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आपराधिक कानून

प्रत्यक्षदर्शी के अभिसाक्ष्य को अभिलिखित करने में विलंब

 26-Mar-2025

फ़िरोज़ खान अकबरखान बनाम महाराष्ट्र राज्य 

जहाँ तक ​​दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (जिसे आगे 'संहिता' कहा जाएगा) की धारा 161(5) के अधीन प्रत्यक्षदर्शियों के अभिसाक्ष्यों को अभिलिखित करने में 2/3 दिन के विलंब का प्रश्न है, अन्वेषण अधिकारी सहित साक्षियों द्वारा इस विलंब को इस आशय से पूरी तरह से समझाया गया है कि क्षेत्र में दंगे हुए थे। 

जस्टिस अभय एस ओका, अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और एजी मसीह 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

जस्टिस अभय एस ओका, अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और ए.जी. मसीह ने निर्णय दिया कि यदि विलंब को पर्याप्त रूप से समझाया जाए तो प्रत्यक्षदर्शी के अभिसाक्ष्य को अभिलिखित करने में विलंब से अभियोजन पक्ष के मामले के विरुद्ध कोई प्रतिकूल निष्कर्ष नहीं निकलेगा। 

  • उच्चतम न्यायालय ने फ़िरोज़ खान अकबरखान बनाम महाराष्ट्र राज्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया 

फिरोज खान अकबरखान बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • यह मामला 19 अप्रैल 2005 को एक गाँव में हुई हत्या से संबंधित है, जिसमें कई व्यक्ति सम्मिलित थे। 
  • यह घटना रामकला (पीड़िता की बहन) और रशीद काजी नामक एक व्यक्ति के बीच संबंधों से संबंधित तनाव से उपजी थी। 
  • इस रिश्ते कारण गाँव में विवाद की स्थिति बनी हुई थी 
  • 19 अप्रैल 2005 की सुबह करीब 9:00 बजे, पीड़ित (सुखदेव महादेवराव धुर्वे) गुजरी बाजार में एक हेयर सैलून के पास था। 
  • तीन अभियुक्त व्यक्ति - फिरोज खान अकबरखान (अपीलकर्त्ता), मोहम्मद जकारिया और कलीमखान - पीड़ित के पास पहुँचे 
  • कथित रिश्ते को लेकर विवाद शुरू हो गया। 

  • टकराव के दौरान: 
    • अभियुक्त नं. 2 (मो. जकारिया) ने पीड़ित का कॉलर पकड़ लिया। 
    • अपीलकर्त्ता (फिरोज खान) ने चाकू निकाला और पीड़ित की छाती पर वार किया। 
    • अभियुक्त नंबर 2 ने पीड़ित की छाती और गर्दन पर लात भी मारी। 
    • अभियुक्त नंबर 3 (कलीमखान) हमले के समय उपस्थित था।  
  • तत्काल परिणाम: 
    • पीड़ित को गंभीर चोटें आईं और घटनास्थल पर ही उसकी मृत्यु हो गई। 
    • पीड़ित के खून बहने पर आसपास बहुत से लोग जमा हो गए। 
    • अभियुक्त ने चाकू घटनास्थल पर फेंक दिया और भाग गया।  
    • पीड़ित की बहन (रामकला) ने मौखिक रिपोर्ट दी, जो प्रथम इत्तिला रिपोर्ट (FIR) बन गई। 
  • विचारण न्यायालय ने प्रारंभिक रूप से अपीलकर्त्ता और अभियुक्त नंबर 2 को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 (हत्या) के साथ धारा 34 (सामान्य आशय) के अधीन दोषसिद्ध ठहराया। 
  • उन्हें आजीवन कारावास और जुर्माने से दण्डित किया गया 
  • अभियुक्त नंबर 3 को दोषमुक्त कर दिया गया। 
  • बाद में उच्च न्यायालय ने विचारण न्यायालय के दण्ड की पुष्टि की। 
  • उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय के समक्ष दायर की गई है। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?  

उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं: 

साक्षियों और साक्ष्यों के संबंध में: 

  • अपीलकर्त्ता की उपस्थिति और छुरा घोंपने के बारे में प्रत्यक्षदर्शियों का अभिसाक्ष्य सुसंगत है। 
  • साक्षियों के साक्ष्यों में मामूली विसंगतियाँ अभियोजन पक्ष के समग्र मामले को कमज़ोर नहीं करती हैं। 
  • साक्षियों के साक्ष्य को अभिलिखित करने में विलंब का कारण क्षेत्र में हुए दंगे थे। 

आशय के संबंध में: 

  • अपीलकर्त्ता चाकू लेकर आया था, जिससे पूर्ववर्ती आशय स्पष्ट होता है कि वह शारीरिक क्षति पहुँचाने के उद्देश्य से आया था।  
  • यह अचानक प्रकोपन का मामला नहीं है, क्योंकि चाकू पहले से ही अपीलकर्त्ता के पास था। 
  • धारा 302 (हत्या) से धारा 304-I (आपराधिक मानववध) तक आरोप को कम करने के तर्क को खारिज कर दिया। 

छूट के संबंध में: 

  • अपीलकर्त्ता को समयपूर्व रिहाई (Premature Release) के लिये पुनः आवेदन करने की स्वतंत्रता प्रदान की गई 
  • राज्य को निदेश दिया कि वह अपीलकर्त्ता के दया याचिका (Remission) के मामले पर उस नीति के आधार पर विचार करे, जो उसके दोषसिद्धि के समय प्रभावी थी 
  • राज्य को निदेश दिया कि वह अपीलकर्त्ता के अभ्यावेदन प्राप्त होने के तीन माह के भीतर एक कारणयुक्त आदेश (Reasoned Order) पारित करे।  
  • दया याचिका के लिये प्रक्रियात्मक दिशा-निदेश: 
    • राज्य को विवेक का प्रयोग उचित और निष्पक्ष रूप से करना चाहिये 
    • दोषसिद्ध व्यक्ति दया याचिका को एक अधिकार के रूप में दावा नहीं कर सकता। 
    • किंतु उसे यह अधिकार है कि उसका मामला लागू नीतियों के अनुसार विचाराधीन हो 
    • दया याचिका हेतु निर्धारित शर्तें तर्कसंगत एवं गैर-मनमानी होनी चाहिये 
    • संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के अधीन सांविधानिक अधिकारों का सम्मान करते हुए विचार किया जाना चाहिये 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 181 क्या है? 

धारा 181: अन्वेषण के दौरान पुलिस से किये गए कथनों के उपयोग पर प्रतिबंध 

  • अन्वेषण के दौरान पुलिस से किये गए कथनों को प्रत्यक्ष साक्ष्य के रूप में उपयोग करने पर प्रतिबंध। 
  • पुलिस से किया गया कोई भी कथन: 
    • इसे करने वाले व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित नहीं होना चाहिये 
    • जांच या विचारण में प्रत्यक्ष रूप से प्रयुक्त नहीं किया जाना चाहिये 
    • साक्ष्यात्मक उद्देश्य (Evidentiary Purposes) हेतु दर्ज नहीं किया जाना चाहिये 

साक्षी के अभिसाक्ष्य का खण्डन   

  • उपयोग की शर्तें: 
    • तब लागू होता है जब साक्षी को अभियोजन के लिये बुलाया जाता है। 
    • कथन को विधिवत साबित किया जाना चाहिये 
    • इसका उपयोग निम्न द्वारा किया जा सकता है: 
      • अभियुक्त (अधिकार के रूप में)। 
      • अभियोजन पक्ष (न्यायालय की अनुमति से)। 

कथन के उपयोग का दायरा 

  • खण्डन के उद्देश्य से: 
    • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 148 द्वारा विहित रीती से उपयोग किया जाएगा 
  • पुन: परीक्षा की परिसीमाएँ: 
    • केवल जिरह में उठाए गए विषयों को स्पष्ट करने के लिए उपयोग किया जा सकता है। 

प्रतिबंधों के अपवाद 

  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 26(क) के अंतर्गत आने वाले कथन। 
  • धारा 23(2) के प्रावधान अप्रभावित रहते हैं। 

स्पष्टीकरण: कथनों में लोप  

लोप का महत्त्व: 

  • लोप को खण्डन के रूप में मानने के मापदण्ड  
    • महत्त्वपूर्ण होना चाहिये 
    • संदर्भ के लिये सुसंगत होना चाहिये 
    • निर्धारण तथ्य का प्रश्न है। 

मूल्यांकन के सिद्धांत 

  • प्रासंगिक मूल्यांकन: 
    • लोप का महत्त्व विशिष्ट परिस्थितियों पर निर्भर करता है। 
    • खण्डन निर्धारित करने के लिये कोई व्यापक नियम नहीं है। 

आपराधिक कानून

IEA की धारा 65B

 26-Mar-2025

उमर अली बनाम केरल राज्य

"मूल इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड, जो प्राथमिक साक्ष्य है, और जो न्यायालय के समक्ष पूरी तरह से उपलब्ध था, को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करने से छोड़ दिया गया है तथा मूल DVR से निकाले गए इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की एक प्रति को स्वीकार्य साक्ष्य निर्मित करने के लिये उचित प्रमाणीकरण के बिना प्रस्तुत किया गया था।"

न्यायमूर्ति राजा विजयराघवन वी. एवं न्यायमूर्ति पी. वी. बालकृष्णन

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति राजा विजयराघवन वी. एवं न्यायमूर्ति पी. वी. बालकृष्णन की पीठ ने माना है कि CrPC की धारा 293 के अनुसार सरकारी विशेषज्ञ की रिपोर्ट धारा 65B के अंतर्गत निर्गत प्रमाण पत्र का स्थान नहीं ले सकती, क्योंकि धारा 65B इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की ग्राह्यता के लिये एक सांविधिक आवश्यकता है।

  • केरल उच्च न्यायालय ने उमर अली बनाम केरल राज्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

उमर अली बनाम केरल राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला एक आपराधिक मामला है, जिसमें एक आरोपी पर भारतीय दण्ड संहिता (IPC) के अधीन गंभीर अपराधों का आरोप लगाया गया है, विशेष रूप से धारा 302 (हत्या), 376 (A) (बलात्संग के कारण मृत्यु) और 201 (साक्ष्यों को गायब करना)। 
  • यह घटना 27 नवंबर 2019 को लगभग 1:08 बजे पेरुंबवूर स्थित 'इंद्रप्रस्थ होटल' के पास हुई। 
  • अभियोजन पक्ष का आरोप है कि आरोपी, जिसे आवारा बताया गया है, ने जानबूझकर दीपा नाम की पीड़िता को बलात्संग और हत्या करने के आशय से होटल के प्रांगण में घसीटा। 
  • अभियोजन पक्ष के कथन के अनुसार, जब पीड़िता ने आरोपी के प्रयासों का विरोध किया, तो उसने उस पर कुदाल से हमला किया, जिससे उसके चेहरे पर चोटें आईं। 
  • आरोपी पर बाद में आरोप है कि:
    • पीड़िता के कपड़े उतारे।
    • बलात्संग कारित किया।
    • उसी कुदाल से उसके सिर, चेहरे और शरीर पर कई चोटें पहुँचाईं।
    • पीड़िता की मृत्यु का कारण बना।
    • साक्ष्य नष्ट करने के लिये अपराध स्थल पर लगे CCTV कैमरे को क्षतिग्रस्त कर दिया।
  • आरोपी को 27 नवंबर 2019 को गिरफ्तार किया गया तथा उस पर उपरोक्त अपराधों के आरोप लगाए गए। 
  • मुकदमे के दौरान, आरोपी ने स्वयं को निर्दोष बताया तथा सभी आरोपों से मना कर दिया, सहमति से यौन संपर्क और उसके बाद भुगतान से जुड़ी घटनाओं का एक वैकल्पिक संस्करण प्रस्तुत किया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य, विशेष रूप से अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत CCTV फुटेज की ग्राह्यता की जाँच की। 
  • इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य के प्रक्रियात्मक अनुपालन, विशेष रूप से भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 65B के अनिवार्य प्रमाणीकरण की अनुपलब्धता के विषय में मुख्य विधिक चिंताएँ प्रस्तुत की गईं। 
  • न्यायालय ने CrPC की धारा 293 के अधीन एक विशेषज्ञ की रिपोर्ट एवं इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड के लिये IEA की धारा 65B के अंतर्गत निर्गत प्रमाणपत्र की विशिष्ट सांविधिक आवश्यकता के बीच अंतर स्थापित किया। 
  • अभियोजन पक्ष के दृष्टिकोण के विषय में न्यायालय की टिप्पणियाँ की गईं:
    • द्वितीयक इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य (DVD प्रतियों) पर निर्भरता। 
    • मूल इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड (DVR) प्रस्तुत करने में विफलता। 
    • इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य के लिये उचित विधिक प्रमाणीकरण का अभाव।
  • न्यायालय ने कहा कि इलेक्ट्रॉनिक अभिलेखों के लिये सख्त प्रक्रियागत अनुपालन की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके:
    • स्रोत की प्रामाणिकता
    • साक्ष्य की अखंडता
    • संभावित छेड़छाड़ की रोकथाम
  • न्यायिक जाँच में साक्ष्यों के रखरखाव में महत्त्वपूर्ण प्रक्रियागत चूक सामने आई, जो संभावित रूप से मुकदमे की निष्पक्षता से समझौता कर सकती है। 
  • न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि न्यायिक कार्यवाही में सत्य एवं न्याय के लिये आधारभूत सिद्धांत होने चाहिये, विशेष रूप से गंभीर अपराधों से जुड़े आपराधिक मामलों में। 
  • कथित अपराध की गंभीरता को पहचानते हुए, न्यायालय ने साक्ष्य प्रस्तुतीकरण में प्रक्रियागत शुद्धता एवं विधिक अनुपालन को प्राथमिकता दी।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 62 एवं धारा 63 क्या है?

नये आपराधिक विधियों के कार्यान्वयन से पहले, यह धारा IEA की धारा 65B के अंतर्गत आती थी।

धारा 62: इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड का साक्ष्य

  • धारा 62 मौलिक सिद्धांत स्थापित करती है कि इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की सामग्री को धारा 63 के प्रावधानों के अनुसार सिद्ध किया जाएगा। 
  • यह विधिक कार्यवाही में इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य के रखरखाव के लिये एक व्यापक ढाँचे के लिये मंच तैयार करता है।

धारा 63: इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की ग्राह्यता

  • धारा 63(1): मौलिक ग्राह्यता का खंड
    • इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड ग्राह्यता के लिये व्यापक प्रावधान
    • यदि विशिष्ट शर्तें पूरी होती हैं तो इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को दस्तावेज़ माना जा सकता है
    • इसके बिना ग्राह्यता की अनुमति देता है:
      • आगे की प्रक्रिया के लिये साक्ष्य।
      • मूल दस्तावेज़ का उत्पादन।
      • प्रत्यक्ष साक्ष्य की आवश्यकता।
    • इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड का दायरा:
      • मुद्रित कागज़ रिकॉर्ड
      • ऑप्टिकल या मैग्नेटिक मीडिया में संग्रहीत
      • सेमीकंडक्टर मेमोरी
      • उत्पादक:
        • कंप्यूटर
        • संचार उपकरण
        • कोई भी इलेक्ट्रॉनिक रूप
  • धारा 63(2): ग्राह्यता की शर्तें
    • नियमित उपयोग एवं उत्पादन
      • इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड नियमित कंप्यूटर उपयोग की अवधि के दौरान तैयार किया जाना चाहिये
      • विधिक नियंत्रण के तहत लगातार गतिविधियों के लिये प्रयोग किया जाने वाला कंप्यूटर
    • सूचना इनपुट
      • डिवाइस में नियमित रूप से सूचना संग्रहित की जानी चाहिये।
      • नियमित गतिविधियों के सामान्य क्रम में किया गया इनपुट।
    • ऑपरेशनल अखंडता
      • कंप्यूटर को सामग्री अवधि के दौरान ठीक से कार्य करना चाहिये।
      • किसी भी परिचालन संबंधी समस्या से रिकॉर्ड की सटीकता प्रभावित नहीं होनी चाहिये।
    • पुनरुत्पादन की प्रामाणिकता
      • इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को मूल रूप से इनपुट की गई सूचना को सटीक रूप से पुनरुत्पादित या प्राप्त करना चाहिये।
  • धारा 63(3): कंप्यूटर डिवाइस समेकन
    • व्यापक डिवाइस कवरेज: एकाधिक कंप्यूटर उपयोग परिदृश्यों को पहचानता है:
      • स्टैंडअलोन मोड
      • कंप्यूटर सिस्टम
      • कंप्यूटर नेटवर्क
      • कंप्यूटर संसाधन
      • मध्यस्थ-आधारित सिस्टम
    • एकीकृत उपचार:
      • किसी अवधि के दौरान किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिये उपयोग किये जाने वाले सभी उपकरणों को एक ही उपकरण माना जाता है।
      • तकनीकी कार्यान्वयन में लचीलापन सुनिश्चित करता है।
  • धारा 63(4): प्रमाणन की आवश्यकताएँ
    • अनिवार्य प्रमाणपत्र घटक:
      • इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड पहचान
      • उत्पादन विधि विवरण
      • डिवाइस विशिष्टताएँ
      • शर्त अनुपालन विवरण
    • प्रमाणपत्र विशेषताएँ:
      • प्रभारी व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित:
        • कंप्यूटर/संचार उपकरण
        • प्रासंगिक गतिविधि प्रबंधन
      • सर्वोत्तम ज्ञान एवं विश्वास पर आधारित हो सकता है।
      • विशेषज्ञ सत्यापन की आवश्यकता है।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 329 क्या है?

परिचय 

  • नए आपराधिक विधियों के लागू होने से पहले, यह धारा CrPC की धारा 293 के अंतर्गत आती थी। 
  • BNSS की धारा 329 संहिता के अंतर्गत न्यायिक कार्यवाही में वैज्ञानिक विशेषज्ञ रिपोर्टों की ग्राह्यता, प्रस्तुति एवं प्रक्रियात्मक संचालन के लिये एक व्यापक रूपरेखा प्रदान करती है।

मुख्य प्रावधान 

  • विशेषज्ञ रिपोर्ट की ग्राह्यता (उपधारा 1)
    • सरकारी वैज्ञानिक विशेषज्ञों द्वारा तैयार रिपोर्ट के रूप में दस्तावेजी साक्ष्य की अनुमति देता है
    • रिपोर्टें निम्न होनी चाहिये:
      • विशेषज्ञ के स्वयं के हस्ताक्षर से तैयार।
      • जाँच या विश्लेषण के लिये प्रस्तुत मामलों से संबंधित।
      • विधिक कार्यवाही के दौरान प्रस्तुत किया गया।
    • ऐसी रिपोर्ट को पूछताछ, परीक्षण या अन्य विधिक कार्यवाही में साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य माना जाता है।
  • विशेषज्ञ परीक्षा में न्यायिक विवेक (उपधारा 2)
    • न्यायालयों के पास निम्नलिखित विवेकाधीन शक्तियाँ हैं:
      • रिपोर्ट तैयार करने वाले वैज्ञानिक विशेषज्ञ को आमंत्रित करना। 
      • रिपोर्ट के विषय-वस्तु के संबंध में विशेषज्ञ की प्रत्यक्ष जाँच करना। 
    • यह प्रावधान सुनिश्चित करता है:
      • विशेषज्ञ गवाही में पारदर्शिता
      • प्रतिपरीक्षा का अवसर
      • विशेषज्ञ निष्कर्षों का न्यायिक सत्यापन
  • प्रतिनिधित्व एवं प्रतिनियुक्ति (उपधारा 3)
    • विशेषज्ञ की उपस्थिति में व्यावहारिक बाधाओं को मान्यता दी गई है।
    • यदि प्राथमिक विशेषज्ञ व्यक्तिगत रूप से न्यायालय में उपस्थित नहीं हो सकते हैं, तो वे निम्न कार्य कर सकते हैं:
      • अपने विभाग से एक उत्तरदायी अधिकारी को प्रतिनियुक्त करें
      • उप-अधिकारी को यह करना होगा:
        • मामले के विवरण से परिचित होना।
        • संतोषजनक गवाही देने में सक्षम होना।
    • अपवाद:
      • न्यायालय विशेष रूप से मूल विशेषज्ञ की व्यक्तिगत उपस्थिति को अनिवार्य कर सकता है।
      • प्रतिनियुक्ति की अनुमति केवल तभी दी जाती है जब स्पष्ट रूप से निषिद्ध न हो
  • निर्दिष्ट सरकारी वैज्ञानिक विशेषज्ञ (उपधारा 4)
    इस खंड में इस प्रावधान के अंतर्गत आने वाले सरकारी वैज्ञानिक विशेषज्ञों की स्पष्ट सूची दी गई है:
    • रासायनिक विशेषज्ञ
      • रासायनिक परीक्षक
      • सरकार के सहायक रासायनिक परीक्षक
    • विशिष्ट तकनीकी विशेषज्ञ
      • विस्फोटकों के मुख्य नियंत्रक
      • फिंगर प्रिंट ब्यूरो के निदेशक
      • हाफकीन संस्थान, बॉम्बे के निदेशक
      • फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला कार्मिक:
        • निदेशक
        • उप निदेशक
        • सहायक निदेशक (केंद्रीय या राज्य प्रयोगशालाएँ)
      • सरकारी सीरोलॉजिस्ट
    • ओपन-एंडेड प्रमाणन
      • राज्य या केंद्र सरकार को आधिकारिक अधिसूचना के माध्यम से अतिरिक्त वैज्ञानिक विशेषज्ञों को निर्दिष्ट करने की अनुमति देता है।

सिविल कानून

दान/समझौता विलेख एवं वसीयत के बीच अंतर

 26-Mar-2025

एन.पी. ससींद्रन बनाम एन.पी. पोन्नम्मा एवं अन्य

"दान या समझौते के लिये प्रेजेंटी में हित का अंतरण होना चाहिये तथा वसीयतकर्त्ता की मृत्यु तक ऐसे अंतरण के स्थगन के मामले में, दस्तावेज़ को वसीयत के रूप में माना जाना चाहिये।"

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने कहा कि दान या समझौते के लिये ब्याज का अंतरण अवश्य होना चाहिये तथा वसीयतकर्त्ता की मृत्यु तक ऐसे अंतरण को स्थगित करने की स्थिति में दस्तावेज को वसीयत माना जाएगा।

  • उच्चतम न्यायालय ने एन.पी. ससीन्द्रन बनाम एन.पी. पोन्नम्मा एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

एन.पी. ससीन्द्रन बनाम एनपी पोन्नम्मा एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • पिता ने मूल रूप से एक विशिष्ट संपत्ति के संबंध में अपनी बेटी (प्रतिवादी संख्या 1) के पक्ष में 26 जून 1985 (जिसका शीर्षक "धननिश्चयआधारम" था) का एक दस्तावेज निष्पादित किया था। 
  • इस दस्तावेज की शुरुआत में विभिन्न न्यायालयों द्वारा अलग-अलग व्याख्या की गई थी: ट्रायल कोर्ट और प्रथम अपीलीय न्यायालय ने इसे वसीयत के रूप में देखा, जबकि बाद में उच्च न्यायालय ने इसे एक दान विलेख या समझौते के रूप में माना। 
  • 1985 के दस्तावेज को निष्पादित करने के बाद, पिता ने बाद में इसे रद्द कर दिया और वैध विचार के लिये अपने बेटे (अपीलकर्त्ता) के पक्ष में 19 अक्टूबर 1993 को एक विक्रय विलेख निष्पादित किया।
  • बेटी (प्रतिवादी संख्या 1) ने 1985 के दस्तावेज़ को दान विलेख बताते हुए वाद संस्थित किया तथा संपत्ति में अपने अधिकार, शीर्षक एवं हित की घोषणा की मांग की। 

  • वाद के लंबित रहने के दौरान, 06 जनवरी 1995 को पिता की मृत्यु हो गई तथा उनके अन्य विधिक उत्तराधिकारियों को प्रतिवादी के रूप में शामिल किया गया। 
  • ट्रायल कोर्ट ने बेटी के वाद को खारिज कर दिया तथा इस खारिजगी की पुष्टि प्रथम अपीलीय न्यायालय ने भी की, दोनों ने 1985 के दस्तावेज़ को दान के बजाय वसीयत के रूप में माना। 
  • इसके बाद उच्च न्यायालय ने अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णयों को पलट दिया, उनके निर्णयों को अलग रखा तथा 1985 के दस्तावेज़ को एक समझौता/दान विलेख के रूप में निर्वचन करके बेटी को घोषणात्मक राहत प्रदान की।
  • उच्च न्यायालय के निर्णय के परिणामस्वरूप, पुत्र (अपीलकर्त्ता) ने उच्च न्यायालय के निर्वचन एवं निर्णय को चुनौती देते हुए वर्तमान अपील दायर की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • इस मामले में न्यायालय ने दान, समझौता विलेख और वसीयत से संबंधित विधान पर चर्चा की। 
  • न्यायालय ने पाया कि दान की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:
    • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 (TPA) की धारा 123 में यह प्रावधान किया गया है कि दान कैसे दिया जाता है। 
    • TPA की धारा 126 में यह प्रावधान किया गया है कि दान को कब निलंबित या रद्द किया जा सकता है। 
    • यह धारा एकतरफा रद्दीकरण को रोकती है। धारा 127 दानकर्त्ता को विलेख में कोई भी शर्त अध्यारोपित करने में सक्षम बनाती है, जिसे दान के प्रभावी होने के लिये स्वीकार किया जाना चाहिये या दूसरे शब्दों में, दायित्व को स्वीकार किये बिना, दान को स्वीकार करने वाला नहीं कहा जा सकता है। 
    • प्रावधानों को ध्यान से पढ़ने पर पता चलता है कि अचल संपत्ति के दान को वैध होने के लिये, इसे पंजीकृत किया जाना चाहिये, दान को सार्वभौमिक रूप से रद्द करना अस्वीकार्य है, और कब्जे की डिलीवरी दान को वैध बनाने के लिये अनिवार्य शर्त नहीं है।
  • इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने समझौता विलेख के संबंध में निम्नलिखित प्रावधान किया:
    • विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 (SRA) की धारा 2 (B) समझौता को एक गैर-वसीयतनामा साधन के रूप में परिभाषित करती है, जिसके अंतर्गत किसी भी चल या अचल संपत्ति को गंतव्य या क्रमिक हित के अंतरण के लिये करार या समझौता किया जाता है। 
    • समझौता का अर्थ होगा किसी की संपत्ति को सीधे दूसरे को सौंपना या दूसरे (दूसरों) पर अधिकारों के क्रमिक अंतरण के बाद किसी ऐसे व्यक्ति में निहित करना। 
    • इसके अतिरिक्त, ऐसी परिस्थितियों और कारणों को जिसके कारण इस तरह के समझौता विलेख को निष्पादित किया गया, इसके विचार के रूप में वर्णित किया गया है, जिसका कोई मौद्रिक मूल्य होना आवश्यक नहीं है। 
    • अधिकतर मामलों में, इसमें प्रेम, देखभाल, स्नेह, कर्त्तव्य, नैतिक दायित्व या संतुष्टि शामिल होती है, क्योंकि इस तरह के विलेख आमतौर पर परिवार के सदस्य के पक्ष में निष्पादित किये जाते हैं।
  • वसीयत के संबंध में न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणी की:
    • वसीयत भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 (ISA) के अंतर्गत एक वसीयतनामा दस्तावेज है।
    • वसीयत को धारा 2(h) के अंतर्गत वसीयतकर्त्ता के आशय की विधिक घोषणा के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसे उसकी मृत्यु के बाद लागू किया जाना है।
    • ऐसी घोषणा उसकी संपत्ति के संबंध में होती है और निश्चित होनी चाहिये।
  • इस प्रकार न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि विधिक स्थिति अच्छी तरह से स्थापित है कि दान या समझौता के लिये वर्तमान में हित का अंतरण होना चाहिये तथा वसीयतकर्त्ता की मृत्यु तक ऐसे अंतरण को स्थगित करने की स्थिति में दस्तावेज़ को वसीयत के रूप में माना जाना चाहिये।
  • यह तथ्य कि दस्तावेज़ पंजीकृत है, इसकी सामग्री को त्यागने और दस्तावेज़ को दान के रूप में मानने का एकमात्र आधार नहीं है, केवल इसलिये कि विधि में वसीयत को पंजीकृत करने की आवश्यकता नहीं है।
  • दस्तावेज़ का नामकरण अप्रासंगिक है और वसीयतकर्त्ता के आशय एवं उद्देश्य को समझने के लिये दस्तावेज़ की सामग्री को समग्र रूप से पढ़ा जाना चाहिये।
  • वर्तमान मामले के तथ्यों में न्यायालय ने माना कि बेटी की स्वीकृति वैध थी तथा इसने पिता द्वारा रद्दीकरण और बाद में बेटे को विक्रय को शून्य कर दिया।

दान एवं समझौता विलेख के बीच क्या अंतर है?

यहाँ दान विलेख और समझौता विलेख के बीच अंतर की तुलना करने वाली एक तालिका दी गई है:

विषय 

दान विलेख 

समझौता विलेख

प्रतिफल 

इसमें कोई प्रतिफल निहित नहीं है; पूर्णतया स्वैच्छिक है।

इसमें अक्सर परिवार के किसी सदस्य के पक्ष में किया जाने वाला प्रतिफल निहित होता है।

  प्रकृति 

  स्वामित्व का स्वैच्छिक अंतरण.

किसी विशिष्ट उद्देश्य से स्वामित्व का अंतरण, प्रायः परिवार के अंदर।

पंजीकरण हेतु आवश्यकताएँ

पंजीकरण अधिनियम की धारा 17 के अंतर्गत अनिवार्य।

पंजीकरण अधिनियम की धारा 17 के अंतर्गत अनिवार्य।

स्वीकृति

दान प्राप्तकर्त्ता द्वारा स्पष्टतः या निहित रूप से स्वीकार किया जाना चाहिये।

समझौताकर्त्ता द्वारा इसे स्पष्ट रूप से या निहित रूप से स्वीकार किया जाना चाहिये।

  निरसन

इसे एकतरफा तौर पर तब तक रद्द नहीं किया जा सकता जब तक कि इसमें रद्दीकरण खंड शामिल न हो (संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 126 के अनुसार)।

इसे एकतरफा तौर पर तब तक रद्द नहीं किया जा सकता जब तक कि इसमें रद्दीकरण खंड शामिल न हो।

कब्जे की आवश्यकता

यह अनिवार्य नहीं है; स्वीकृति ही पर्याप्त है।

यह अनिवार्य नहीं है; स्वीकृति ही पर्याप्त है।

अधिकारों का निहित होना

त्वरित होता है (वर्तमान समय में)।

त्वरित होता है (वर्तमान समय में)।

जीवन हित

वैधता को प्रभावित किये बिना आरक्षित किया जा सकता है।

वैधता को प्रभावित किये बिना आरक्षित किया जा सकता है।

दान का तत्त्व 

विशुद्ध रूप से एक दान.

इसमें दान का एक तत्त्व निहित है, लेकिन अतिरिक्त नियम एवं शर्तें भी हैं।

दान एवं वसीयत में क्या अंतर है?

यहाँ वसीयत एवं दान विलेख की तुलना करने वाली एक तालिका दी गई है:

विषय 

वसीयत 

दान विलेख 

परिभाषा 

मृत्यु के बाद संपत्ति वितरित करने के वसीयतकर्त्ता के आशय की विधिक घोषणा।

दाता के जीवनकाल के दौरान संपत्ति का स्वैच्छिक अंतरण।

अंतरण की समय सीमा 

यह वसीयतकर्त्ता की मृत्यु के बाद ही प्रभावी होता है।

त्वरित प्रभाव डालता है (वर्तमान समय में)।

प्रतिसंहरणीयता

वसीयतकर्त्ता की मृत्यु से पहले इसे कितनी भी बार रद्द या परिवर्तित किया जा सकता है।

सामान्यतः अपरिवर्तनीय जब तक कि कोई निरसन खंड निहित न हो।

प्रतिफल

इसमें कोई प्रतिफल निहित नहीं है।

इसमें कोई प्रतिफल निहित नहीं है।

कब्जे की आवश्यकता

लागू नहीं; स्वामित्व मृत्यु तक वसीयतकर्त्ता के पास रहता है।

यह अनिवार्य नहीं है; दान प्राप्तकर्त्ता द्वारा स्वीकृति ही पर्याप्त है।

पंजीकरण 

यह अनिवार्य नहीं है, लेकिन विधिक वैधता के लिये उचित है।

यदि मामला अचल संपत्ति से संबंधित है तो पंजीकरण अधिनियम की धारा 17 के अंतर्गत अनिवार्य है।

स्वीकार्यता 

वसीयतकर्त्ता के जीवनकाल के दौरान लाभार्थी द्वारा स्वीकृति आवश्यक नहीं है।

दान प्राप्तकर्त्ता द्वारा स्पष्टतः या निहित रूप से स्वीकार किया जाना चाहिये।

अधिकारों का निहित होना

वसीयतकर्त्ता की मृत्यु के बाद ही अधिकार लाभार्थी में निहित होते हैं।

निष्पादन एवं स्वीकृति के तुरंत बाद अधिकार दान प्राप्तकर्त्ता में निहित हो जाते हैं।

विधिक प्रभाव 

वसीयतकर्त्ता के जीवनकाल में इसका कोई विधिक प्रभाव नहीं होता।

एक बार निष्पादित एवं स्वीकृत होने पर विधिक रूप से बाध्यकारी।

दान, वसीयत एवं समझौता विलेख के बीच क्या अंतर है?

यहाँ वसीयत, दान विलेख एवं समझौता विलेख की तुलना करने वाली एक तालिका दी गई है:

विषय 

वसीयत 

दान विलेख 

समझौता विलेख

परिभाषा 

मृत्यु के बाद संपत्ति अंतरित करने के आशय की विधिक घोषणा।

बिना किसी प्रतिफल के संपत्ति का स्वैच्छिक अंतरण।

संपत्ति का अंतरण, आमतौर पर परिवार के अंदर, प्रतिफल के साथ।

अंतरण की समय सीमा 

यह वसीयतकर्त्ता की मृत्यु के बाद ही प्रभावी होता है।

त्वरित प्रभाव डालता है (वर्तमान समय  में)।

त्वरित प्रभाव डालता है (वर्तमान समय में)।

प्रतिफल 

इसमें कोई प्रतिफल शामिल नहीं है।

इसमें कोई प्रतिफल निहित नहीं है।

इसमें कोई प्रतिफल निहित नहीं है।