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आपराधिक कानून

दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 319

 02-Apr-2025

सतबीर सिंह बनाम राजेश कुमार और अन्य 

कोई भी व्यक्ति हरदीप सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले में इस न्यायालय के संविधान पीठ के निर्णय का संदर्भ ले सकता है और उस पर विश्वास कर सकता है, जहाँ विधि को अधिकारपूर्वक घोषित किया गया है।" 

न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति मनमोहन 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति मनमोहन की पीठ ने निर्णय दिया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 319 के अधीन शक्ति का प्रयोग साक्षी के अभिसाक्ष्य के आधार पर मुख्य परीक्षा के बिना भी किया जा सकता है।  

  • उच्चतम न्यायालय ने सतबीर सिंह बनाम राजेश कुमार और अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया 

सतबीर सिंह बनाम राजेश कुमार और अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी 

  • सतबीर सिंह (अपीलकर्त्ता) ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 319 के अधीन एक आवेदन दायर किया, जिसमें राजेश कुमार, सागर उर्फ ​​बिट्टू, नीरज और अंकित को अतिरिक्त अभियुक्त के रूप में समन करने की मांग की गई। 
  • इस मामले में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 323, 324, 307 और 506 तथा आयुध अधिनियम की धारा 25 के अधीन अपराध सम्मिलित हैं। 
  • 9 फरवरी 2020 को मुकेश (मुख्य अभियुक्त) और सतबीर सिंह दोनों को मारपीट के बाद घायल अवस्था में अस्पताल में भर्ती कराया गया। 

  • प्रारंभ में, मुकेश ने एक कथन किया, जिसके परिणामस्वरूप सतबीर के विरुद्ध प्रथान सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई, किंतु पुलिस ने अन्वेषण के पश्चात् अंतिम रिपोर्ट (closure report) दाखिल कर दी। 
  • जब 14 फरवरी 2020 को सतबीर को होश आया, तो उसने बताया कि वॉलीबॉल खेलते समय उसका मुकेश से झगड़ा हुआ था, जो बाद में नीरज, सागर और अंकित के साथ हथियार लेकर लौटा था। 
  • सतबीर के अनुसार, नीरज ने उसे पकड़ रखा था, जबकि मुकेश ने उस पर दो बार चाकू से वार किया (दिल के पास भी), और सागर और अंकित ने उसे डंडों से पीटा। राजेश ने कथित तौर पर उसे धमकाया। 
  • मेडिकल रिपोर्ट ने पुष्टि की कि सतबीर को धारदार हथियारों से दो चोटें आई थीं, जिसमें से एक छाती की चोट को जानलेवा बताया गया था। 
  • कई अधिकारियों द्वारा किये गए पुलिस अन्वेषण में राजेश, नीरज, सागर या अंकित की संलिप्तता के साक्ष्य नहीं मिले। 
  • आरोप केवल मुकेश के विरुद्ध दायर किया गया, और 27 अप्रैल 2021 को सतबीर ने अभियोजन पक्ष के साक्षी-1 (PW-1) के रूप में अभिसाक्ष्य देने के साथ विचारण प्रारंभ हुआ।  
  • विचारण के दौरान, सतबीर ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 319 के अधीन अन्य चार व्यक्तियों को समन करने के लिये एक आवेदन दायर किया।  
  • सेशन न्यायाधीश ने इस आवेदन को स्वीकार कर लिया, परंतु जब चार लोगों ने इसे चुनौती दी, तो उच्च न्यायालय ने आदेश को अपास्त कर दिया। 
  • उच्च न्यायालय ने सतबीर के अभिसाक्ष्य और चिकित्सा साक्ष्य के बीच विसंगतियों को नोट किया, क्योंकि अन्य लोगों द्वारा कथित रूप से कारित की गई चोटों की पुष्टि चिकित्सा रिपोर्टों से नहीं हुई थी। 
  • उच्च न्यायालय ने यह भी माना कि यह झगड़ा विरोधी टीमों के बीच वॉलीबॉल खेल के दौरान अचानक शुरू हुआ था, तथा दोनों पक्षकारों के बीच पहले से कोई दुश्मनी नहीं थी। 
  • इसलिये यह मामला उच्चतम न्यायालय के समक्ष था। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने सबसे पहले दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 319 के अधीन अतिरिक्त अभियोजन पर विधि बनाई 
  • न्यायालय ने पाया कि नीरज मुकेश का भाई है और अपीलकर्ता (सतबीर) के अनुसार, जब मुकेश ने उसे चाकू मारा, तब नीरज ने उसे पकड़ रखा था। 
  • राजेश ने कथित तौर पर अपीलकर्त्ता को धमकाते हुए कहा, "चाकू मार के तसली कर दी, यदि दोबारा जिंदा गाँव में आएगा तो मैं गोली से उड़ा दूंगा।" 
  • सेशन न्यायाधीश इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हरदीप सिंह मामले में निर्धारित परीक्षणों की पूर्ति हुई है, जिससे अतिरिक्त अभियुक्तों को समन किया जाना उचित ठहराया गया।   
  • उच्चतम न्यायालय ने पाया कि उच्च न्यायालय ने मामले पर उचित दृष्टिकोण से विचार नहीं किया और एक गलत निष्कर्ष पर पहुँचा। 
  • यद्यपि प्रतिवादी पक्ष के अधिवक्ता ने पुलिस रिपोर्ट में राजेश और नीरज को निर्दोष बताए जाने का तर्क दिया, परंतु न्यायालय ने माना कि ये रिपोर्टें उनके गैर-संलिप्तत होने का निश्चायक साक्ष्य नहीं हैं। 
  • सेशन न्यायाधीश ने अपीलकर्त्ता के अभिसाक्ष्य के आधार पर राजेश और नीरज की संलिप्तता के बारे में "प्रथम दृष्टया से अधिक" संतुष्टि का गठन किया था। 
  • यद्यपि उच्च न्यायालय के पास पुनरीक्षण में "सक्रिय हस्तक्षेप" (eyes on) दृष्टिकोण अपनाने का अधिकार था, परंतु उच्चतम न्यायालय का मत था कि "अहस्तक्षेप" (hands off) दृष्टिकोण अधिक उपयुक्त होता। 
  • उच्चतम न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि सेशन न्यायाधीश का निर्णय प्रशंसनीय था, बेतुका नहीं, और इसमें उच्च न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं थी। 
  • उच्चतम न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि सेशन न्यायाधीश का निर्णय तार्किक था, निरर्थक नहीं था, और उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं थी। 
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि उसके टिप्पणियों को राजेश और नीरज की अपराध में वास्तविक संलिप्तता पर राय के रूप में नहीं समझा जाना चाहिये 
  • सेशन न्यायाधीश को विधि के अनुसार शीघ्रता से विचारण पूर्ण करने के लिये प्रोत्साहित किया गया। 

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 319 क्या है? 

  • यह उपबंध किसी अपराध के दोषी प्रतीत होने वाले अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध कार्यवाही करने की शक्ति को उपबंधित करता है। 
  • यह भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 358 में निहित है। 
  • यह judex damantur cum nocens absolvitor सिद्धांत पर आधारित है, जिसका अर्थ है जब दोषी बरी हो जाता है, तो न्यायाधीश को दोषी ठहराया जाता है। इस धारा में कहा गया है कि- 
    • जहाँ किसी अपराध की जांच या विचारण के दौरान साक्ष्य से यह प्रतीत होता है कि किसी व्यक्ति ने, जो अभियुक्त नहीं है, कोई ऐसा अपराध किया है जिसके लिये ऐसे व्यक्ति का अभियुक्त के साथ विचारण किया जा सकता है, वहाँ न्यायालय उस व्यक्ति के विरुद्ध उस अपराध के लिये जिसका उसके द्वारा किया जाना प्रतीत होता है, कार्यवाही कर सकता है।  
    • जहाँ ऐसा व्यक्ति न्यायालय में हाजिर नहीं है वहाँ पूर्वोक्त प्रयोजन के लिये उसे मामले की स्थितियों की अपेक्षानुसार, गिरफ्तार या समन किया जा सकता है।  
    • कोई व्यक्ति जो गिरफ्तार या समन न किये जाने पर भी न्यायालय में हाजिर है. ऐसे न्यायालय द्वारा उसे अपराध के लिये, जिसका उसके द्वारा किया जाना प्रतीत होता है. जांच या विचारण के प्रयोजन के लिये निरुद्ध किया जा सकता है।  
    • जहाँ न्यायालय उप-धारा (1) के तहत किसी व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही करता है, वहाँ 
      • उस व्यक्ति के बारे में कार्यवाही फिर से प्रारंभ की जाएगी और साक्षियों को फिर से सुना जाएगा; 
      • खण्ड (क) के उपबंधों के अधीन रहते हुए, मामले में ऐसे कार्यवाही की जा सकती है, मानो वह व्यक्ति उस समय अभियुक्त व्यक्ति था जब न्यायालय ने उस अपराध का संज्ञान किया था, जिस पर जांच या विचारण प्रारंभ किया गया था। 
  • धारा 319 के आवश्यक तत्त्व: 
    • किसी अपराध की कोई जांच या विचारण हो 
    • साक्ष्य से ऐसा प्रतीत होता है कि किसी व्यक्ति ने, जो अभियुक्त नहीं है, कोई ऐसा अपराध किया है जिसके लिये अभियुक्त के साथ-साथ उस व्यक्ति पर भी विचारण किया जाना है। 

हरदीप सिंह बनाम पंजाब राज्य (2014) के ऐतिहासिक मामले में निर्धारित आवश्यक बिंदु क्या हैं?  

  • न्यायालय ने इस मामले में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 319 के संबंध में निम्नलिखित सुसंगत प्रश्नों के उत्तर दिये: 
    • वह चरण जब दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 319 के अधीन शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है? क्या इस धारा में प्रयुक्त "साक्ष्य" शब्द केवल विचारण के दौरान दर्ज साक्ष्यों तक सीमित है? 
    • न्यायालय ने इस मामले में स्पष्ट किया कि सेशन न्यायाधीश को अतिरिक्त अभियुक्त को समन करने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 319 के अधीन “साक्ष्य” की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। 
    • न्यायालय ने यह भी माना कि धारा 319 में "जांच" (inquiry) और "विचारण" (trial) दो अलग-अलग शब्दों का प्रयोग किया गया है। इस संदर्भ में "जांच" का तात्पर्य विचारण-पूर्व जांच से है। 
    • जांच के उदाहरणों में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 200, 201, 202 और 398 के अधीन की गई जांच सम्मिलित हैं। 
    • इन जांचों के दौरान न्यायालय के समक्ष आई सामग्री का उपयोग दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 319 के अधीन शक्ति का प्रयोग करने के लिये किया जा सकता है। 
    • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 319 में “साक्ष्य” शब्द का निर्वचन व्यापक रूप से किया जाना चाहिये और इसे विचारण के दौरान साक्ष्य तक सीमित नहीं किया जाना चाहिये 
    • क्या दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 319(1) में प्रयुक्त “साक्ष्य” शब्द का का तात्पर्य केवल उस साक्ष्य से है जो प्रतिपरीक्षा (cross-examination) द्वारा परखा गया हो, या न्यायालय साक्षी द्वारा मुख्य परीक्षा (examination-in-chief) में किये गए कथन के आधार पर भी इस धारा के अंतर्गत शक्ति का प्रयोग कर सकता है 
    • न्यायालय साक्षी को केवल मुख्य परीक्षा (examination-in-chief) में किये गए कथन के आधार पर भी इस धारा के अंतर्गत अतिरिक्त अभियुक्त को समन कर सकता है। 

सांविधानिक विधि

दाह संस्कार एवं दफ़न का मौलिक अधिकार

 02-Apr-2025

लखानी ब्लू वेव्स को-ऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी लिमिटेड बनाम अध्यक्ष, CIDCO

"हम इस श्मशान को बनाए रखने के अनुरोध से सहमत नहीं हैं क्योंकि ग्रामीणों को नए श्मशान का उपयोग करने के लिये अधिक दूरी तय करनी होगी। यह वर्तमान श्मशान को जारी रखने का औचित्य नहीं दे सकता। नागरिकों को किसी विशिष्ट स्थान पर दाह संस्कार या दफनाने का अधिकार नहीं है।"

न्यायमूर्ति अजय गडकरी एवं कमल खट्टा

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति अजय गडकरी एवं न्यायमूर्ति कमल खता की पीठ ने कहा कि नागरिकों को किसी विशिष्ट स्थान पर शवदाह या दफनाने का मौलिक अधिकार नहीं है।

  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने लखानी ब्लू वेव्स को-ऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी लिमिटेड बनाम चेयरमैन, CIDCO (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।

लखानी ब्लू वेव्स को-ऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी लिमिटेड बनाम चेयरमैन, CIDCO मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • दो सहकारी आवास समितियों ने भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत एक याचिका दायर की, जिसमें सेक्टर 9, उल्वे के प्लॉट नंबर 176, 176A और 176B पर श्मशान घाट के निर्माण या स्वीकृति को रोकने के लिये CIDCO के विरुद्ध निर्देश मांगे गए। 
  • याचिकाकर्त्ता समितियाँ सेक्टर 9, उल्वे के प्लॉट 161 एवं 163 पर स्थित थीं तथा उन्होंने आरोप लगाया कि CIDCO की विकास योजना के अनुसार ये प्लॉट पेट्रोल पंप के लिये आरक्षित थे। 
  • याचिकाकर्त्ताओं ने दावा किया कि प्रभावशाली व्यक्तियों ने इन भूखंडों पर अवैध रूप से श्मशान घाट का निर्माण करने के लिये एक ठेकेदार को नियुक्त किया था, जिससे आस-पास की आवासीय सोसायटियाँ बुरी तरह प्रभावित हुई हैं।’
  • याचिकाकर्त्ताओं ने दो अन्य निकटवर्ती सोसायटियों के साथ मिलकर 27 अगस्त 2023 एवं 11 सितंबर 2023 को CIDCO को ज्ञापन देकर अनाधिकृत संरचना को हटाने का अनुरोध किया। 
  • नोडल कार्यकारी अभियंता ने मुख्य अनाधिकृत निर्माण नियंत्रक (CCUC) को साइट का सत्यापन करने के बाद उचित कार्यवाही करने के निर्देश जारी किये। 

  • जब CCUC ने 9 नवंबर 2023 को संरचना को ध्वस्त करने का प्रयास किया, तो खारकोपर के ग्रामीणों ने बड़ी संख्या में विरोध किया एवं विध्वंस को रोका।
  • खारकोपर के ग्रामीणों ने तर्क दिया कि श्मशान भूमि 250 से अधिक वर्षों से विषयगत भूखंडों पर मौजूद थी तथा इसे सुधार के लिये CIDCO से धन प्राप्त हुआ था, जिससे यह एक अधिकृत संरचना बन गई। 
  • याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि श्मशान भूमि की आवासीय सोसाइटियों, वाणिज्यिक दुकानों एवं एक स्कूल क्षेत्र से निकटता बच्चों पर नकारात्मक मानसिक प्रभाव डालती है, तथा दाह संस्कार के लिये लकड़ी के उपयोग से दुर्गंध एवं वायु प्रदूषण होता है, जिससे निवासियों का स्वास्थ्य प्रभावित होता है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने पाया कि योजना प्राधिकरण (इस मामले में, CIDCO) को श्मशान घाट उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी सौंपी गई है, तथा नागरिकों को दाह संस्कार या दफनाने के लिये किसी विशेष स्थान की मांग करने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है। 
  • न्यायालय ने पाया कि CIDCO ने विवादित स्थान से लगभग साढ़े तीन किलोमीटर दूर, सेक्टर 14 के प्लॉट नंबर 1 पर पहले से ही पूरी तरह कार्यात्मक श्मशान घाट उपलब्ध कराया है। 
  • न्यायालय ने पाया कि आसपास के क्षेत्र में कार्यात्मक विकल्प उपलब्ध होने के बावजूद श्मशान घाट को उसके वर्तमान स्थान पर बनाए रखने का ग्रामीणों का अनुरोध असामान्य है। 
  • न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि CIDCO ने साशय श्मशान घाट के स्थान को बदलने के लिये अपनी वैध शक्ति का प्रयोग किया था तथा इस निर्णय में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं पाया।
  • न्यायालय ने पाया कि ये सोसाइटियाँ श्मशान भूमि के बहुत करीब स्थित हैं, जैसा कि प्रस्तुत तस्वीरों से पता चलता है तथा ग्रामीणों के इस तर्क से असहमत था कि नए श्मशान का उपयोग करने के लिये अधिक दूरी तय करना वर्तमान सुविधा को बनाए रखने को उचित मानता है। 
  • न्यायालय ने माना कि स्कूलों, खुले हुए खेल के मैदानों और आग एवं धुएं से प्रभावित होने वाली कई सोसाइटियों की मौजूदगी याचिकाकर्त्ताओं की इस स्थिति का समर्थन करती है कि श्मशान को हटा दिया जाना चाहिये। 
  • न्यायालय ने अंततः याचिका को अनुमति दे दी, तथा प्रतिवादियों को विधि के अनुसार स्वीकृत विकास योजनाओं के अनुसार भूमि का उपयोग करने का निर्देश दिया।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 226 क्या है?

  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 226 उच्च न्यायालयों को बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध, अधिकार-पृच्छा एवं उत्प्रेषण सहित निर्देश, आदेश या रिट जारी करने का अधिकार देता है। 
  • ये रिट किसी भी व्यक्ति, प्राधिकरण या सरकार को उस क्षेत्र के अंदर जारी की जा सकती हैं जिस पर उच्च न्यायालय अधिकार-पृच्छा का प्रयोग करता है। 
  • उच्च न्यायालय संविधान के भाग III के अंतर्गत मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन एवं किसी अन्य उद्देश्य के लिये ऐसे रिट जारी कर सकते हैं। 
  • यह शक्ति उच्च न्यायालयों को तब भी प्राप्त होती है, जब कार्यवाही का कारण आंशिक रूप से उनके क्षेत्रीय अधिकार-पृच्छा के भीतर उत्पन्न होता है, भले ही सरकार, प्राधिकरण या व्यक्ति की सीट या निवास उन क्षेत्रों के अंतर्गत आता हो।
  • जब अंतरिम आदेश (निषेधाज्ञा, स्थगन, आदि) प्रभावित पक्ष को याचिका और सहायक दस्तावेजों की प्रतियाँ प्रदान किये बिना या उन्हें सुनवाई का अवसर दिये बिना किया जाता है, तो प्रभावित पक्ष ऐसे आदेश को रद्द करने के लिये आवेदन कर सकता है। 
  • उच्च न्यायालय को ऐसे रद्द करने के आवेदनों को प्राप्ति से दो सप्ताह के अंदर या विरोधी पक्ष को प्रति प्रदान किये जाने की तिथि से, जो भी बाद में हो, निपटान कर देना चाहिये। 
  • यदि आवेदन इस समय सीमा के अंदर निपटान नहीं किया जाता है, तो अंतरिम आदेश निर्दिष्ट अवधि की समाप्ति पर स्वतः ही रद्द हो जाता है। 
  • अनुच्छेद 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालयों को दी गई शक्ति अनुच्छेद 32(2) के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय को दी गई शक्ति को कम नहीं करती है। 
  • संवैधानिक संशोधनों के बाद, अनुच्छेद 226(a) को हटा दिया गया, तथा संपत्ति के अधिकार के संबंध में परिवर्तन किये गए, जो अब भाग III के अंतर्गत मौलिक अधिकार के बजाय अनुच्छेद 300A के अंतर्गत एक संवैधानिक अधिकार है।