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सिविल कानून
अंतःकालीन लाभ
08-Apr-2025
अमृतपाल जगमोहन सेठी बनाम हरिभाऊ पुंडलिक इंगोले "चूँकि बेदखली का आदेश महाराष्ट्र किराया नियंत्रण अधिनियम, 1999 के अंतर्गत पारित किया गया था, इसलिये विधि की स्थापित स्थिति यह है कि बेदखली का आदेश पारित होने पर ही मकान मालिक एवं किरायेदार का रिश्ता समाप्त हो जाता है।" न्यायमूर्ति अभय एस. ओका एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति अभय एस. ओका एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ की पीठ ने कहा कि मकान मालिक एवं किरायेदार का संबंध तभी समाप्त हो जाता है जब बेदखली का आदेश पारित हो जाता है।
- उच्चतम न्यायालय ने अमृतपाल जगमोहन सेठी बनाम हरिभाऊ पुंडलिक इंगोले (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
अमृतपाल जगमोहन सेठी बनाम हरिभाऊ पुंडलिक इंगोले (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान तथ्यों में, अपीलकर्त्ता किराएदार था एवं मकान मालिक प्रतिवादी था।
- प्रतिवादी ने महाराष्ट्र किराया नियंत्रण अधिनियम, 1999 के अंतर्गत विभिन्न आधारों पर बेदखली के लिये वाद दायर किया।
- ट्रायल कोर्ट द्वारा कब्जे का आदेश पारित किया गया तथा अपीलकर्त्ता को बेदखल कर दिया गया।
- इस मामले में मुद्दा डिक्री के ऑपरेटिव भाग में जारी निर्देश के विषय में था, जो इस प्रकार है: "सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश XX नियम 12 (1) (c) के अंतर्गत भविष्य के अंतःकालीन लाभ की जाँच वाद की तिथि से लेकर प्रतिवादी द्वारा वादी को वाद की संपत्ति के खाली शांतिपूर्ण कब्जे की डिलीवरी तक की जानी चाहिये"।
- इस प्रकार, मामला उच्चतम न्यायालय के समक्ष था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि विधि की यह स्थापित स्थिति है कि किराएदार एवं मकान मालिक का रिश्ता तभी खत्म होता है जब बेदखली का आदेश पारित हो जाता है।
- न्यायालय ने आदेश के ऑपरेटिव भाग को संशोधित किया जो इस प्रकार है:
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश XX नियम 12(1)(c) के अंतर्गत भावी अंतःकालीन लाभ की जाँच 29 मार्च, 2014 से प्रतिवादी द्वारा वादी को वाद संपत्ति के खाली कब्जे की डिलीवरी तक की जाएगी।
- इस प्रकार न्यायालय ने उपरोक्त संशोधन के अधीन अपील को स्वीकार कर लिया।
अंतःकालीन लाभ क्या है?
- धारा 2 (12) परिभाषा
- अंतःकालीन लाभ वह धन है जो किसी व्यक्ति द्वारा दोषपूर्ण तरीके से संपत्ति पर कब्जा करने के बाद उसके असली मालिक को दिया जाता है।
- इस धन में शामिल हैं:
- संपत्ति पर दोषपूर्ण तरीके से कब्जा करते समय उससे वास्तव में प्राप्त लाभ।
- वे लाभ जो सामान्य प्रयास से उचित रूप से अर्जित किये जा सकते थे।
- इन लाभों पर ब्याज।
- दोषपूर्ण कब्जेदार द्वारा किये गए सुधारों से प्राप्त लाभ को इसमें शामिल नहीं किया जाता है।
- आदेश XX नियम 12 = कब्जे एवं अंतःकालीन लाभ के लिये डिक्री
- नियम 12 (1) उन वाद पर लागू होता है, जहाँ कोई व्यक्ति अचल संपत्ति (भूमि, भवन) पर कब्ज़ा वापस पाने की कोशिश कर रहा हो तथा किराया या अंतःकालीन लाभ की मांग कर रहा हो।
- न्यायालय निम्नलिखित को शामिल करते हुए डिक्री जारी कर सकता है:
- संपत्ति का कब्ज़ा।
- वाद दायर होने से पहले बकाया राशि।
- वाद के दौरान और उसके बाद बकाया राशि।
- न्यायालय यह आदेश दे सकता है कि सही मालिक को संपत्ति का कब्ज़ा वापस मिल जाए।
- वाद-पूर्व किराया: न्यायालय निम्न में से कोई भी आदेश दे सकता है:
- वाद आरंभ होने से पहले बकाया किराए की राशि सीधे बताना।
- या इस राशि का निर्धारण करने के लिये जाँच का आदेश देना।
- पूर्व-वाद अंतःकालीन लाभ: न्यायालय या तो:
- वाद आरंभ होने से पहले बकाया लाभ की राशि सीधे बताना।
- या इस राशि का निर्धारण करने के लिये जाँच का आदेश देना।
- भविष्य में बकाया राशि: न्यायालय वाद दायर होने के समय से लेकर इनमें से किसी एक के घटित होने तक किराये या अंतःकालीन लाभ की जाँच का आदेश दे सकता है:
- सही मालिक को कब्ज़ा वापस मिल जाता है।
- दोषपूर्ण कब्ज़ा करने वाला व्यक्ति उचित विधिक नोटिस के साथ कब्ज़ा छोड़ देता है।
- न्यायालय के निर्णय की तिथि़ से तीन वर्ष बीत जाते हैं।
सिविल कानून
पंजीकरण प्राधिकारी विक्रेता के स्वत्व का निर्धारण नहीं कर सकता
08-Apr-2025
के. गोपी बनाम उप-रजिस्ट्रार एवं अन्य "1908 अधिनियम के अंतर्गत कोई भी प्रावधान किसी भी प्राधिकारी को इस आधार पर अंतरण दस्तावेज के पंजीकरण से मना करने की शक्ति नहीं देता है कि विक्रेता के स्वत्व से संबंधित दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किये गए हैं, या यदि उसका स्वत्व स्थापित नहीं है," न्यायमूर्ति अभय एस. ओका एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति अभय एस. ओका एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ की पीठ ने तमिलनाडु पंजीकरण नियमों के नियम 55A(i) को असंवैधानिक करार देते हुए कहा कि पंजीकरण प्राधिकारी विक्रेता के स्वत्व के साक्ष्य के अभाव में किसी दस्तावेज को पंजीकृत करने से मना नहीं कर सकता है।
- उच्चतम न्यायालय ने के. गोपी बनाम सब-रजिस्ट्रार एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
के. गोपी बनाम सब-रजिस्ट्रार एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 2 सितंबर 2022 को, जयरामन मुदलियार नामक व्यक्ति ने एक संपत्ति के संबंध में अपीलकर्त्ता के. गोपी के पक्ष में एक विक्रय विलेख निष्पादित किया।
- उप-पंजीयक ने विक्रय विलेख को पंजीकृत करने से मना कर दिया, जिसके बाद अपीलकर्त्ता ने इस अस्वीकृति को चुनौती देते हुए एक रिट याचिका दायर की।
- रिट याचिका खारिज होने के बाद, अपीलकर्त्ता ने उप-पंजीयक के आदेश के विरुद्ध जिला रजिस्ट्रार के समक्ष अपील दायर की।
- जिला रजिस्ट्रार ने 4 सितंबर 2023 को अपील की अनुमति दी तथा उप-पंजीयक को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने का निर्देश दिया।
- उप-पंजीयक ने तब अपीलकर्त्ता को संपत्ति अंतरित करने के लिये विक्रेता के स्वत्व के प्रमाण के साथ दस्तावेज़ फिर से जमा करने का निर्देश दिया।
- जब अपीलकर्त्ता ने 3 अक्टूबर 2023 को पंजीकरण के लिये फिर से विक्रय विलेख जमा किया, तो उप-पंजीयक ने एक बार फिर पंजीकरण से मना कर दिया।
- अपीलकर्त्ता ने इस अस्वीकृति के विरुद्ध एक और रिट याचिका दायर की, जिसे मद्रास उच्च न्यायालय के संबंधित एकल न्यायाधीश ने खारिज कर दिया।
- इस अस्वीकृति के विरुद्ध एक रिट अपील को 20 मार्च 2024 को मद्रास उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने खारिज कर दिया।
- उच्च न्यायालय ने माना कि तमिलनाडु पंजीकरण नियमों के नियम 55A के अंतर्गत, उप-पंजीयक इस आधार पर पंजीकरण से मना करने का अधिकारी था कि अपीलकर्त्ता के विक्रेता ने अपना स्वत्व और स्वामित्व स्थापित नहीं किया था।
- अपीलकर्त्ता का दावा एक अपंजीकृत वसीयत पर आधारित था, तथा उच्च न्यायालय ने कहा कि जब संदेह उत्पन्न होता है और विधिक उत्तराधिकारियों को पक्षकार नहीं बनाया जाता है, तो पक्षों को सिविल कोर्ट में अपील करना चाहिये।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पंजीकरण अधिनियम, 1908 के अंतर्गत कोई भी प्रावधान किसी भी अधिकारी को इस आधार पर अंतरण दस्तावेज के पंजीकरण से मना करने की शक्ति नहीं देता है कि विक्रेता के स्वत्व से संबंधित दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किये गए हैं, या यदि उसका स्वत्व स्थापित नहीं है।
- न्यायालय ने कहा कि पंजीकरण अधिकारी का निष्पादक के पास मौजूद स्वत्व से कोई सरोकार नहीं है तथा उसके पास यह निर्णय लेने की कोई न्यायिक शक्ति नहीं है कि निष्पादक के पास कोई स्वत्व है या नहीं।
- भले ही निष्पादक किसी ऐसी संपत्ति के लिये दस्तावेज निष्पादित करता है जिसमें उसका कोई स्वत्व नहीं है, पंजीकरण अधिकारी पंजीकरण से मना नहीं कर सकता है यदि सभी प्रक्रियात्मक अनुपालन किये गए हैं तथा आवश्यक स्टाम्प ड्यूटी एवं पंजीकरण शुल्क का भुगतान किया गया है।
- न्यायालय ने माना कि नियम 55A(i) पंजीकरण अधिनियम, 1908 के प्रावधानों के साथ असंगत है, क्योंकि यह निष्पादक के स्वत्व को सत्यापित करने के लिये पंजीकरण अधिकारी को अनुचित रूप से शक्ति प्रदान करता है।
- उच्चतम न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि पंजीकरण केवल निष्पादक के पास जो भी अधिकार हैं, उन्हें अंतरित करता है; यदि निष्पादक के पास संपत्ति में कोई अधिकार, स्वत्व या हित नहीं है, तो पंजीकृत दस्तावेज किसी भी अंतरण को प्रभावित नहीं कर सकता है।
- न्यायालय ने नियम 55A(i) को पंजीकरण अधिनियम, 1908 के अधिकारिता से बाहर घोषित किया, क्योंकि धारा 69 के अंतर्गत नियम बनाने की शक्ति का प्रयोग मूल अधिनियम के प्रावधानों के साथ असंगत नियम बनाने के लिये नहीं किया जा सकता है।
उल्लिखित विधिक प्रावधान क्या हैं?
पंजीकरण अधिनियम, 1908 की धारा 69
- पंजीकरण अधिनियम, 1908 - भारत में दस्तावेजों के पंजीकरण को नियंत्रित करने वाली प्राथमिक विधि।
- पंजीकरण अधिनियम, 1908 की धारा 69 - यह प्रावधान महानिरीक्षक को पंजीकरण कार्यालयों का पर्यवेक्षण करने तथा अधिनियम के अनुरूप नियम बनाने की शक्ति प्रदान करता है।
- धारा 69(1)(a) से (j) उन विशिष्ट क्षेत्रों को सूचीबद्ध करती है, जहाँ नियम बनाए जा सकते हैं, जिनमें दस्तावेजों की सुरक्षित अभिरक्षा, भाषा का उपयोग, क्षेत्रीय विभाजन, जुर्माना विनियमन, पंजीकरण अधिकारी का विवेक, ज्ञापन का प्रारूप, पुस्तक प्रमाणीकरण, उपकरण प्रस्तुति, सूचकांक सामग्री, अवकाश घोषणाएँ और सामान्य कार्यवाही विनियमन शामिल हैं।
- धारा 69(2) के अनुसार इस धारा के अंतर्गत बनाए गए नियमों को राज्य सरकार के अनुमोदन के लिये प्रस्तुत किया जाना चाहिये, आधिकारिक राजपत्र में प्रकाशित किया जाना चाहिये तथा उसके बाद ही अधिनियम में अधिनियमित होने के रूप में प्रभावी होना चाहिये।
- धारा 69(1)(a) से (j) तक में सूचीबद्ध नियम बनाने की कोई भी शक्ति पंजीकरण अधिकारियों को स्वत्व सत्यापन के आधार पर पंजीकरण से मना करने की अनुमति देने वाले नियमों के निर्माण को अधिकृत नहीं करती है।
- उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि धारा 69 के अंतर्गत बनाए गए सभी नियम "इस अधिनियम के अनुरूप" होने चाहिये - यह प्रमुख आवश्यकता नियम 55A(i) को अधिकारहीन घोषित करने का आधार बनी।
- न्यायालय ने माना कि नियम 55A(i) इन उल्लिखित शक्तियों की सीमा से बाहर है तथा इस मौलिक सिद्धांत का खंडन करता है कि पंजीकरण अधिकारियों को स्वत्व के मामलों पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं है।
तमिलनाडु पंजीकरण
- तमिलनाडु पंजीकरण नियमों का नियम 55A - राज्य का वह नियम जिसे निरस्त कर दिया गया, जिसके अंतर्गत पंजीकरण से पहले प्रस्तुतकर्त्ताओं को पिछले मूल विलेख एवं विल्लंगम प्रमाणपत्र प्रस्तुत करने की आवश्यकता होती थी।
- पंजीकरण (तमिलनाडु संशोधन) अधिनियम, 2008 की धारा 22-A और 22-B - राज्य संशोधन जो सीमित परेस्थितियों को निर्दिष्ट करते हैं जिसके अंतर्गत पंजीकरण से मना किया जा सकता है।
- तमिलनाडु टाउन एंड कंट्री प्लानिंग एक्ट, 1971 (धारा 9-A) - चेन्नई मेट्रोपॉलिटन डेवलपमेंट अथॉरिटी से संबंधित संपत्तियों के संबंध में धारा 22-A में संदर्भित।
- तमिलनाडु धार्मिक एवं धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम, 1959 - धार्मिक संस्थान संपत्तियों के संबंध में धारा 22-A में संदर्भित।
- तमिलनाडु भूदान यज्ञ अधिनियम, 1958 (धारा 3) - दान की गई भूमि के संबंध में धारा 22-A में संदर्भित।
सिविल कानून
SEBI पर रेस जुडिकेटा का अनुप्रयोग
08-Apr-2025
भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड बनाम राम किशोरी गुप्ता एवं अन्य "यह बताया गया कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 11 में रेस जुडिकेटा के प्रावधान हैं, लेकिन ये रेस जुडिकेटा के सामान्य सिद्धांत के लिये संपूर्ण नहीं हैं। यह देखा गया कि रेस जुडिकेटा के सिद्धांत प्रशासनिक अधिकारियों के समक्ष कार्यवाही में समान रूप से लागू होंगे।" न्यायमूर्ति संजय कुमार एवं के.वी. विश्वनाथन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति संजय कुमार एवं न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने कहा कि SEBI का बाद में दिया गया धन वापसी का आदेश, रेस जुडिकेटा के सिद्धांत के कारण वर्जित था, क्योंकि इसे पूर्व कार्यवाही में उठाया जा सकता था।
- उच्चतम न्यायालय ने भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड बनाम राम किशोरी गुप्ता एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड बनाम राम किशोरी गुप्ता एवं अन्य की पृष्ठभूमि क्या थी?
- मेसर्स वाइटल कम्युनिकेशंस लिमिटेड (VCL), एक प्रमुख स्टॉक एक्सचेंजों में सूचीबद्ध सार्वजनिक लिमिटेड कंपनी, ने मई-जून 2002 के बीच शेयरों की पुनर्खरीद, बोनस शेयरों एवं प्राथमिक मुद्दों के विषय में भ्रामक विज्ञापन प्रकाशित किये।
- भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (SEBI) ने 24 मई 2005 को VCL एवं उसके प्रमोटरों को कारण बताओ नोटिस जारी किया, जिसमें आरोप लगाया गया कि ये विज्ञापन शेयर की कीमतों को ₹3-12 से ₹30 तक कृत्रिम रूप से बढ़ाने के लिये प्रारूपण किया गया था।
- SEBI की जाँच से पता चला कि VCL ने 15 कंपनियों को 72 लाख इक्विटी शेयर आवंटित किये थे, जो सभी एक ही पते को साझा करती थीं तथा VCL के आपूर्तिकर्त्ताओं के रूप में सूचीबद्ध थीं, जो सर्कुलर फंडिंग का सुझाव देती हैं जहाँ VCL के अपने फंड का अप्रत्यक्ष रूप से इसके शेयरों को खरीदने के लिये उपयोग किया गया था।
- मई-जुलाई 2002 के बीच, प्रमोटर-संबंधित संस्थाओं ने भ्रामक विज्ञापनों द्वारा बनाई गई कृत्रिम मांग का लाभ उठाते हुए बाजार में 71.14 लाख शेयर बेचे।
- दो निवेशकों, राम किशोरी गुप्ता एवं हरिश्चंद्र गुप्ता ने इन भ्रामक विज्ञापनों के आधार पर मई-जून 2002 के बीच VCL के 1,71,773 शेयर खरीदे थे और उन्हें भारी वित्तीय हानि हुई थी।
- SEBI ने 20.02.2008 को एक आदेश पारित कर VCL एवं उसके अधिकांश निदेशकों को दो वर्ष के लिये प्रतिभूति बाजार में व्यापारिक गतिविधि पर रोक लगा दिया, लेकिन इस आदेश को प्रतिभूति अपीलीय अधिकरण (SAT) ने प्रक्रियात्मक कारणों से अलग रखा।
- वर्ष 2012 में नए कारण बताओ नोटिस के बाद, SEBI ने 31 जुलाई 2014 को एक और आदेश पारित किया, जिसमें VCL एवं 23 अन्य संस्थाओं को विशिष्ट अवधि के लिये प्रतिभूति बाजार में व्यापारिक गतिविधि पर रोक दिया गया, लेकिन लाभ की वापसी का आदेश नहीं दिया।
- गुप्ता निवेशकों की शिकायतों के बाद, SEBI ने मामले को फिर से खोला और 28 सितंबर 2018 को एक नया आदेश पारित किया, जिसमें VCL एवं संबंधित संस्थाओं को 10% ब्याज के साथ ₹4,55,91,232/- के विधिविरुद्ध लाभ को वापस करने का निर्देश दिया गया।
- VCL एवं अन्य संस्थाओं ने इस वापसी आदेश को SAT के समक्ष चुनौती दी, यह तर्क देते हुए कि यह रेस जुडिकेटा के सिद्धांत द्वारा वर्जित था क्योंकि उसी अपराध पर पहले 2014 के आदेश ने अंतिमता प्राप्त कर ली थी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने पुष्टि की कि रेस ज्यूडिकाटा का सिद्धांत अर्ध-न्यायिक कार्यवाही पर लागू होता है, जिसमें SEBI अधिनियम, 1992 के अंतर्गत कार्यवाही भी शामिल है, तथा यह पक्षों को एक ही प्रश्न पर एक से अधिक बार वाद लाने से रोकता है।
- न्यायालय ने पाया कि SEBI को 2014 में अपना आदेश पारित करते समय VCL की अवैध गतिविधियों के वित्तीय निहितार्थों के विषय में पूरी सूचना थी, फिर भी ऐसा करने का अधिकार होने के बावजूद उसने उस समय धन वापसी का निर्देश नहीं दिया।
- न्यायालय ने उल्लेख किया कि एक बार जब SEBI का 2014 का आदेश अंतिम हो गया (क्योंकि इसे न तो चुनौती दी गई और न ही अलग रखा गया) और दण्ड की सजा दी गई, तो SEBI 2018 में नए निर्देश पारित करने के लिये कार्यवाही के उसी कारण पर फिर से विचार नहीं कर सकता था।
- न्यायालय ने रचनात्मक रेस जुड़केटा सिद्धांत का आह्वान करते हुए कहा कि चूँकि SEBI 2014 की कार्यवाही में धन वापसी का आदेश दे सकता था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया, इसलिये उसे उसी अपराध के आधार पर बाद की कार्यवाही में ऐसा करने से रोक दिया गया।
- न्यायालय ने मामले को संभालने में SEBI के "आलसी एवं सुस्त दृष्टिकोण" और "अनुचित विलंब" की आलोचना की, तथा कहा कि धन वापसी की कार्यवाही आरंभ करने का निर्णय लेने के बाद वास्तव में कारण बताओ नोटिस जारी करने में लगभग दो वर्ष लग गए।
उल्लिखित विधिक प्रावधान क्या हैं?
- यह मामला मुख्य रूप से भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड अधिनियम, 1992, विशेष रूप से धारा 11 से संबंधित है, जो निवेशकों की सुरक्षा एवं प्रतिभूति बाजार को विनियमित करने के लिये SEBI के कर्त्तव्यों का प्रावधान करता है।
- SEBI अधिनियम की धारा 11B SEBI को निर्देश जारी करने और जुर्माना लगाने का अधिकार देती है, जिसमें अधिनियम के प्रावधानों के उल्लंघन के माध्यम से अर्जित दोषपूर्ण लाभ को वापस करने का निर्देश देना भी शामिल है।
- धारा 11B में जोड़ा गया स्पष्टीकरण (18.07.2013 से प्रभावी) स्पष्ट करता है कि निर्देश जारी करने की शक्ति में दोषपूर्ण लाभ को वापस लौटाने का निर्देश देने की शक्ति भी शामिल है और "सदैव शामिल मानी जाएगी"।
- SEBI अधिनियम की धारा 11(5) (18.07.2013 से सम्मिलित) में प्रावधान है कि धारा 11B के अंतर्गत निर्देश के अनुसार लौटाई गई राशि निवेशक संरक्षण एवं शिक्षा कोष में जमा की जाएगी।
- SEBI अधिनियम की धारा 15U(1) में यह प्रावधानित किया गया है कि प्रतिभूति अपीलीय अधिकरण सिविल प्रक्रिया संहिता की प्रक्रिया से बाध्य नहीं होगा, बल्कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों द्वारा निर्देशित होगा।
- भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (प्रतिभूति बाजारों से संबंधित मिथ्याकरण एवं और अनुचित व्यापार प्रथाओं का निषेध) विनियम, 1995, विशेष रूप से विनियम 3, 4, 5(1) एवं 6(a), जिसका VCL एवं उसके प्रमोटरों ने कथित रूप से उल्लंघन किया है।
- कंपनी अधिनियम, 1956 की धारा 77, किसी कंपनी द्वारा अपने स्वयं के शेयरों की खरीद पर प्रतिबंधों से संबंधित है, जिसका VCL ने अप्रत्यक्ष वित्तपोषण व्यवस्था के माध्यम से कथित रूप से उल्लंघन किया है।
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 11, रेस जुडिकेटा के सिद्धांत को मूर्त रूप देती है, जो सक्षम न्यायालय या अधिकरण द्वारा पहले से ही अंतिम रूप से तय किये गए मामलों पर फिर से वाद लाने से रोकती है।