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आपराधिक कानून
विवाह करने का वचन
09-Apr-2025
गोवा राज्य बनाम XXX “यह नहीं कहा जा सकता कि उसकी सम्मति 'धार्मिक रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह करने के वचन पर आधारित थी, क्योंकि पक्षकार पहले से ही विधिक रूप से विवाहित थे।” न्यायमूर्ति भारती डांगरे और न्यायमूर्ति निवेदिता पी. मेहता |
स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति भारती डांगरे और न्यायमूर्ति निवेदिता पी मेहता की की खंडपीठ ने कहा कि यदि विवाह विधिक रूप से पंजीकृत है तो तो पति के विरुद्ध इस आधार पर आपराधिक मामला दर्ज नहीं किया जा सकता कि उसने प्रथाओं एवं रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह का मिथ्या वचन किया था।
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने गोवा राज्य बनाम XXX (2025) के वाद में यह निर्णय दिया।
गोवा राज्य बनाम XXX (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 226 और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 528 के अधीन दायर की गई वर्तमान याचिका में याचिकाकर्त्ताओं के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 376 और 420 के अधीन दर्ज की गई प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने की मांग की गई है।
- याचिकाकर्त्ता का विवाह प्रतिवादी संख्या 3 से हुआ था और उनके बीच विवाह सिविल रजिस्ट्रार के कार्यालय में पंजीकृत था।
- इस बात पर विवाद नहीं था कि विवाह रीति-रिवाजों के अनुसार नहीं हुआ था।
- याचिकाकर्त्ता का मामला यह था कि यह विवाह याचिकाकर्त्ता के पिता द्वारा उस पर डाले गए दबाव का परिणाम था।
- इसके अतिरिक्त, याचिकाकर्त्ता ने यह भी दावा किया है कि उसे प्रतिवादी 3 और दो अन्य व्यक्तियों के बीच साझा किये गए कुछ परेशान करने वाले संदेश मिले हैं।
- 2 जुलाई 2024 को याचिकाकर्त्ता ने विवाह को रद्द करने की मांग करते हुए सिविल जज सीनियर डिवीजन पणजी के न्यायालय में वैवाहिक याचिका दायर की।
- प्रतिवादी संख्या 3 ने याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375, 376 और 420 के अधीन अपराध करने का आरोप लगाते हुए परिवाद दर्ज किया।
- यह उपरोक्त FIR है जिसे याचिकाकर्त्ता ने न्यायालय के समक्ष रद्द करने की प्रार्थना की है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने यह अवलोकन किया कि भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 90 यह निर्धारित करती है कि सम्मति क्या होती है।
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 90 में उपबंध है कि यदि तथ्य के भ्रम के अधीन कोई सम्मति प्राप्त की जाती है, तो वह सम्मति नहीं है।
- यदि कोई महिला विवाह के मिथ्या वचन पर लैंगिक संबंध बनाती है तो उसकी सम्मति “तथ्य के भ्रम” पर आधारित होती है और ऐसा लैंगिक कृत्य बलात्संग के समान होगा।
- न्यायालय ने कहा कि विवाह का मिथ्या वचन साबित करने के लिये यह साबित करना आवश्यक है कि वचन करते समय अभियुक्त का आशय परिवादकर्त्ता को प्रवंचना देने का था।
- यह प्रवंचना ऐसी होनी चाहिये जिससे प्रेरित होकर परिवादकर्त्ता ने अभियुक्त के साथ लैंगिक संबंध बनाए हों।
- वर्तमान तथ्यों में प्रतिवादी को लैंगिक संबंध बनाने से पूर्व अपने और याचिकाकर्त्ता के बीच विधिक रूप से पंजीकृत विवाह के बारे में पता था।
- इसके अतिरिक्त, प्रतिवादी ने यह भी स्वीकार किया कि उनके विवाह विधिक पंजीकरण के पश्चात् दोनों पक्षकारों ने कई अवसरों पर आपसी सहमति से सहवास किया।
- इससे पता चलता है कि प्रतिवादी को विवाह के बंधन के बारे में पता था और उसने जानबूझकर सहमति से लैंगिक संबंध बनाने का फैसला किया।
- न्यायालय ने आगे दोहराया कि “विवाह करने का मिथ्या वचन” और “विवाह करने का वचन-भंग” के बीच अंतर है।
- वर्तमान तथ्यों में न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्त्ताओं के कार्यों की व्याख्या केवल विवाह करने के वचन-भंग के रूप में की जा सकती है क्योंकि उसने प्रतिवादी के अन्य पुरुषों के साथ संबंधों का पता चलने के पश्चात् धार्मिक रीति-रिवाजों के अनुसार उनके विवाह करने से इंकार कर दिया।
- इस प्रकार, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि वर्तमान तथ्यों में अभियुक्त के विरुद्ध बलात्संग और विवाह के मिथ्या वचन के आधार पर छल का अपराध स्थापित नहीं होता है।
- इस प्रकार, न्यायालय ने अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग किया और FIR को रद्द कर दिया।
विवाह करने का मिथ्या वचन करने का अपराध क्या है?
- भारतीय दण्ड संहिता में ऐसा कोई स्पष्ट अपराध नहीं है। यद्यपि, भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 69 में इस तरह के अपराध का उल्लेख किया जा सकता है।
- भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 69 में प्रवंचनापूर्ण साधनों, आदि का प्रयोग करके मैथुन करने को उपबंधित किया गया है।
- जो कोई प्रवंचनापूर्ण साधनों द्वारा या किसी महिला को विवाह करने का वचन देकर, उसे पूरा करने के किसी आशय के बिना, उसके साथ मैथुन करता है, ऐसा मैथुन बलात्संग के अपराध की कोटि में नहीं आता है, तो वह दोनों में से किसी भाँति के ऐसी अवधि के कारावास से दण्डनीय होगा, जो दस वर्ष तक की हो सकेगी, और जुर्माने के लिये भी दायी होगा।
- स्पष्टीकरण- "प्रवंचनापूर्ण साधनों" में, नियोजन या प्रोन्नति, या पहचान छिपाकर विवाह करने के लिये, उत्प्रेरण या उनका मिथ्या वचन, सम्मिलित है।
सिविल कानून
बीमा दावे का अस्वीकरण असंभव-पूर्ति स्थिति के लिये मान्य नहीं
09-Apr-2025
सोहोम शिपिंग प्राइवेट लिमिटेड बनाम मेसर्स द न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड एवं अन्य "अगर शर्त का सख्ती से निर्वचन किया जाए, तो बीमित व्यक्ति समुद्री दुर्घटना के मामले में दावा करने में असमर्थ होगा, जहाँ जहाज किसी खतरे के कारण अपनी यात्रा पूरी करने में असमर्थ है, जिससे विशेष शर्त का पालन करना असंभव हो जाता है। अंततः बीमित व्यक्ति बीमा के अंतर्गत किसी भी उपचार के बिना रह जाएगा। यह एक तर्कहीन तथ्य है, जो बीमा संविदा के पीछे के उद्देश्य को ही नष्ट कर देती है।" न्यायमूर्ति एम.एम.सुंदरेश एवं न्यायमूर्ति राजेश बिंदल |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में न्यायमूर्ति एम.एम.सुंदरेश और न्यायमूर्ति राजेश बिंदल की पीठ ने कहा है कि किसी संविदा की शर्त के उल्लंघन के लिये बीमा दावे को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, जिसे पूरा करना असंभव हो।
- उच्चतम न्यायालय ने सोहोम शिपिंग प्राइवेट लिमिटेड बनाम मेसर्स द न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड एवं अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
सोहोम शिपिंग प्राइवेट लिमिटेड बनाम मेसर्स द न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- सोहोम शिपिंग प्राइवेट लिमिटेड ने एक नवनिर्मित बजरा 'श्रीजॉय II' खरीदा और मुंबई से कोलकाता तक इसकी पहली यात्रा करने की मांग की।
- कंपनी ने शिपिंग महानिदेशक (DGS) को 'एकल यात्रा परमिट' के लिये आवेदन किया, जिसमें अनुमान लगाया गया कि जहाज 30 अप्रैल 2013 को मुंबई से रवाना होगा और 15 मई 2013 को कोलकाता पहुँचेगा।
- DGS ने भारतीय शिपिंग रजिस्टर (IRS) को जहाज का विस्तृत निरीक्षण करने का निर्देश दिया।
- सोहोम शिपिंग ने 16 मई 2013 से 15 जून 2013 के बीच की अवधि के लिये न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड के साथ एक बीमा संविदा किया, जिसमें एक विशेष शर्त थी कि "यात्रा मानसून शुरू होने से पहले शुरू और पूरी होनी चाहिये"।
- जहाज ने 06 जून 2013 को यात्रा शुरू की, लेकिन अगले दिन खराब मौसम और इंजन की विफलता के कारण रत्नागिरी बंदरगाह के पास लंगर डाला गया, अंततः फंस गया।
- बीमा संविदा समाप्त होने के बाद, सोहोम शिपिंग ने बीमाकर्त्ता से जहाज को खींचने और बचाने के लिये सहायता मांगी।
- 25 जुलाई 2013 को, सोहोम शिपिंग ने बीमाकर्त्ता को 'परित्याग का नोटिस' जारी किया, जिसमें इस आधार पर कुल नुकसान का दावा किया गया कि जहाज की मरम्मत बीमित राशि से अधिक महंगी होगी।
- बीमाकर्त्ता ने 12 सितंबर 2013 को एक 'निराकरण नोटिस' जारी किया, जिसमें इस आधार पर दावे को खारिज कर दिया गया कि जहाज 'मानसून के आने' के बाद रवाना हुआ, जिससे बीमा संविदा में विशेष शर्त का उल्लंघन हुआ।
- निराकरण से व्यथित होकर, सोहोम शिपिंग ने राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (NCDRC) के समक्ष COPRA की धारा 21 के तहत एक उपभोक्ता शिकायत दर्ज की, जिसे बाद में खारिज कर दिया गया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने पाया कि बीमा पॉलिसी एक महीने की अवधि के लिये ली गई थी, विशेष तौर पर मुंबई से कोलकाता की यात्रा को शामिल करने के लिये, जिस दौरान 1 मई से पूर्वी तट पर खराब मौसम पहले से ही प्रभावी था।
- न्यायालय ने बीमाकर्त्ता के इस तर्क को खारिज कर दिया कि उन्हें खराब मौसम के दौरान यात्रा के विषय में कोई सूचना नहीं थी, यह देखते हुए कि अपीलकर्त्ता ने फॉर्म में स्पष्ट रूप से कहा था कि बीमा का उद्देश्य मुंबई से कोलकाता की यात्रा करना था।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि बीमा दोनों तटों पर खराब मौसम की अवधि को शामिल करने के लिये लिया गया था, क्योंकि भले ही यात्रा 16.05.2013 को तुरंत शुरू हुई हो, लेकिन जहाज पूर्वी तट पर मानसून की शुरुआत के बाद कोलकाता बंदरगाह पर पहुँचा होगा।
- न्यायालय ने माना कि यात्रा मार्ग और समय को देखते हुए मानसून से पहले यात्रा पूरी करने की विशेष शर्त का पालन करना असंभव था, जिससे यह शर्त महत्त्वहीन हो गई तथा पक्षकारों द्वारा स्पष्ट रूप से माफ कर दी गई।
- न्यायालय ने आगे कहा कि ऐसी शर्त के सख्त निर्वचन से मानसून के दौरान समुद्री दुर्घटनाओं के मामले में बीमित व्यक्ति को कोई उपचार नहीं मिलेगा, जो बीमा संविदा के मूल उद्देश्य को ही नष्ट कर देगा।
- न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि बीमाकर्त्ता विशेष शर्त के उल्लंघन के आधार पर दावे को अस्वीकार करने का अधिकारी नहीं है, क्योंकि इससे एक तर्कहीन तथ्य सामने आएगा जो संविदा के किसी भी उचित पक्ष की मंशा नहीं हो सकती है।
- परिणामस्वरूप उच्चतम न्यायालय ने अपील को अनुमति दे दी, NCDRC के आदेश को खारिज कर दिया और अपीलकर्त्ता को देय बीमित राशि की सीमा निर्धारित करने के लिये मामले को वापस भेज दिया।
उल्लिखित विधिक प्रावधान क्या हैं?
- उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 (COPRA) की धारा 67 - NCDRC के आदेश के विरुद्ध अपीलकर्त्ता द्वारा इस धारा के अंतर्गत अपील प्रस्तुत की गई।
- COPRA की धारा 21 - मूल उपभोक्ता शिकायत NCDRC के समक्ष इस धारा के अंतर्गत दायर की गई थी।
- बीमा संविदा का खंड 3, विशेष रूप से खंड 3.1.2 - इस खंड में समुद्री योग्यता से संबंधित पोत की वर्गीकरण सोसायटी द्वारा की गई अनुशंसाओं एवं आवश्यकताओं का अनुपालन आवश्यक था।
COPRA की धारा 67 एवं 21 क्या है?
COPRA की धारा 21 (2019)
केंद्रीय प्राधिकरण के पास व्यापारियों, निर्माताओं, अनुमोदकों, विज्ञापनदाताओं या प्रकाशकों को मिथ्यापूर्ण या भ्रामक विज्ञापनों को बंद करने या संशोधित करने के निर्देश जारी करने की शक्ति है, जो उपभोक्ता हितों को क्षति कारित हैं या उपभोक्ता अधिकारों का उल्लंघन करते हैं।
- केंद्रीय प्राधिकरण मिथ्यापूर्ण या भ्रामक विज्ञापनों के लिये निर्माताओं या समर्थकों पर दस लाख रुपये तक का जुर्माना लगा सकता है, जो बाद के उल्लंघनों के लिये पचास लाख रुपये तक हो सकता है।
- केंद्रीय प्राधिकरण मिथ्यापूर्ण या भ्रामक विज्ञापनों के समर्थकों को एक वर्ष तक किसी भी उत्पाद या सेवा का समर्थन करने से रोक सकता है, जिसे बाद के उल्लंघनों के लिये तीन वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।
- भ्रामक विज्ञापनों के प्रकाशन में प्रकाशक या पक्षकारों को दस लाख रुपये तक के जुर्माने का सामना करना पड़ सकता है।
- समर्थक दण्ड से छूट का दावा कर सकते हैं यदि उन्होंने अपने द्वारा समर्थित विज्ञापनों में किये गए दावों को सत्यापित करने के लिये उचित परिश्रम किया हो।
- प्रकाशक बचाव का दावा कर सकते हैं यदि उन्होंने केंद्रीय प्राधिकरण द्वारा वापसी या संशोधन के किसी आदेश की पूर्व सूचना के बिना व्यवसाय के सामान्य क्रम में विज्ञापन प्रकाशित किया हो।
- दण्ड निर्धारित करते समय, प्राधिकरण जनसंख्या एवं प्रभावित क्षेत्र, अपराध की आवृत्ति एवं अवधि, प्रभावित व्यक्तियों की भेद्यता एँ अपराध के परिणामस्वरूप विक्रय से सकल राजस्व जैसे कारकों पर विचार करता है।
- इस धारा के अंतर्गत कोई भी आदेश पारित करने से पहले केंद्रीय प्राधिकरण को सुनवाई का अवसर प्रदान करना चाहिये।
COPRA की धारा 67 (2019)
धारा 58 की उपधारा (1) के खंड (a) के उपखंड (i) या (ii) के अधीन राष्ट्रीय आयोग द्वारा जारी आदेश से व्यथित कोई व्यक्ति आदेश के तीस दिन के अंदर उच्चतम न्यायालय में अपील कर सकता है।
- यदि विलंब के लिये पर्याप्त कारण स्थापित हो जाते हैं तो उच्चतम न्यायालय तीस दिन की अवधि के बाद दायर अपील पर विचार कर सकता है।
- यदि अपीलकर्त्ता को राष्ट्रीय आयोग के आदेश के अनुसार कोई राशि जमा करने की आवश्यकता होती है, तो अपील पर तभी विचार किया जाएगा जब अपीलकर्त्ता ने निर्धारित राशि का पचास प्रतिशत जमा कर दिया हो।
- यह खंड राष्ट्रीय आयोग के कुछ आदेशों को चुनौती देने के लिये उच्चतम न्यायालय को अपीलीय प्राधिकारी के रूप में स्थापित करता है।
- अपील तंत्र राष्ट्रीय आयोग के संभावित दोषपूर्ण निर्णयों के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता है जबकि जमा आवश्यकता के माध्यम से सद्भावना अनुपालन की आवश्यकता होती है।
सिविल कानून
भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 28
09-Apr-2025
राकेश कुमार वर्मा बनाम HDFC बैंक लिमिटेड "जब तक कोई रोजगार संविदा किसी लागू विधि, जैसे संविदा अधिनियम या CPC के प्रावधानों का उल्लंघन नहीं करता है, तब तक सामान्यतया हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं होना चाहिये।" न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता एवं न्यायमूर्ति मनमोहन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता एवं न्यायमूर्ति मनमोहन की पीठ ने रोजगार संविदाओं में विशेष अधिकारिता के प्रावधान को यथावत बनाए रखा।
- उच्चतम न्यायालय ने राकेश कुमार वर्मा बनाम HDFC बैंक लिमिटेड (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
राकेश कुमार वर्मा बनाम HDFC बैंक लिमिटेड (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला दो व्यक्तियों की नियुक्ति एवं पदच्युति से संबंधित है।
- राकेश का मामला:
- जुलाई 2002 में HDFC बैंक की पटना शाखा में कार्यकारी के रूप में नियुक्त किया गया।
- रोजगार संविदा में एक विशेष अधिकारिता खंड शामिल था, जिसमें कहा गया था कि विवादों के लिये बॉम्बे न्यायालयों के पास अधिकारिता है।
- कथित कपट एवं कदाचार के लिये 28 अगस्त, 2016 को सेवा से पदच्युत कर दिया गया।
- पटना अदालत में एक दीवानी मुकदमा दायर किया, जिसमें पदच्युति को अवैध घोषित करने और बहाली की मांग की गई।
- HDFC बैंक ने मुंबई के न्यायालयों की अधिकारिता का दावा करते हुए वाद को खारिज करने के लिये याचिका दायर की।
- ट्रायल कोर्ट ने HDFC की याचिका खारिज कर दी।
- HDFC बैंक ने पटना उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण आवेदन दायर किया, जो सफल रहा।
- दीप्ति का मामला:
- आरंभ में लॉर्ड कृष्णा बैंक में कार्य किया, जिसका 2009 में HDFC बैंक में विलय हो गया।
- मुंबई की न्यायालयों के लिये समान विशेष अधिकारिता वाले रोजगार करार के साथ दिल्ली शाखा में अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया।
- 31 मई, 2017 को कथित कपट एवं कदाचार के लिये पदच्युत कर दिया गया।
- पदच्युति को अमान्य घोषित करने एवं बहाली की मांग करते हुए दिल्ली के न्यायालय में दीवानी वाद दायर किया।
- HDFC बैंक ने लिखित अभिकथन में अधिकारिता को चुनौती दी।
- ट्रायल कोर्ट ने माना कि अधिकारिता का खंड दिल्ली की न्यायालयों के अधिकारिता को पूरी तरह से समाप्त नहीं करता।
- HDFC बैंक की दिल्ली उच्च न्यायालय में संशोधन याचिका खारिज कर दी गई।
- मुख्य निर्णय:
- पटना उच्च न्यायालय ने HDFC बैंक के पक्ष में निर्णय दिया, जिसमें कहा गया कि सेवा समाप्ति विवादों पर विशेष अधिकारिता का प्रावधान लागू होता है।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने HDFC बैंक के विरुद्ध निर्णय दिया, जिसमें कहा गया कि विशेष अधिकारिता का प्रावधान दिल्ली की न्यायालयों के अधिकारिता को समाप्त नहीं करता।
- दोनों मामलों में केन्द्रीय विधिक मुद्दा यह है कि क्या रोजगार संविदाओं में विशिष्ट अधिकारिता संबंधी प्रावधान कर्मचारियों के उस न्यायालय में वाद दायर करने के अधिकार को समाप्त कर देते हैं जहाँ उन्होंने कार्य किया था और जहाँ उन्हें नौकरी से निकाला गया था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि किसी अनन्य अधिकारिता खंड को वैध होने के लिये उसे निम्नलिखित शर्तों को पूरा करना होगा:
- यह भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (ICA) की धारा 28 के अनुरूप होना चाहिये, अर्थात, यह किसी भी पक्ष को संविदा से संबंधित विधिक कार्यवाही आरंभ करने से पूरी तरह से प्रतिबंधित नहीं करना चाहिये।
- जिस न्यायालय को विशेष अधिकारिता दिया गया है, उसे पहले स्थान पर ऐसी अधिकारिता रखने में सक्षम होना चाहिये, अर्थात, सांविधिक व्यवस्था के अनुसार अधिकारिता न धारण करने वाले न्यायालय को संविदा के माध्यम से अधिकारिता नहीं दिया जा सकता है।
- और अंत में पक्षों को या तो निहित रूप से या स्पष्ट रूप से न्यायालयों के एक विशिष्ट समूह को अधिकारिता प्रदान करना चाहिये।
- न्यायालय ने माना कि निजी क्षेत्र में पक्षकारों के बीच किये गए रोजगार संविदा की शर्तों के अनुसार ही पक्षकारों का प्रशासन चलता है।
- इसके अतिरिक्त यह भी देखा गया कि जब तक रोजगार संविदा सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) या ICA जैसे लागू विधि का उल्लंघन नहीं करता है, तब तक हस्तक्षेप की कोई संभावना नहीं है।
- इसके अतिरिक्त, पक्षों द्वारा यह तर्क दिया गया कि चूँकि वर्तमान मामला सेवा संविदा से संबंधित है, इसलिये उपरोक्त निर्धारित विधि लागू नहीं होगी, जिसे न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया।
- न्यायालय ने माना कि कोई भी संविदा चाहे वह वाणिज्यिक, बीमा, विक्रय, सेवा आदि से संबंधित हो, सभी एक संविदा ही है। पक्षों की स्थिति, शक्ति या प्रभाव के आधार पर कोई भेद नहीं किया जा सकता।
- इस प्रकार न्यायालय ने वर्तमान तथ्यों में ऊपर दिये गए परीक्षण को लागू करने का प्रस्ताव रखा:
- यह देखा गया कि मुंबई की अधिकारिता होगी क्योंकि राकेश एवं दीप्ति को नौकरी पर रखने का निर्णय मुंबई में लिया गया था, राकेश के पक्ष में नियुक्ति पत्र मुंबई से जारी किया गया था, रोजगार करार मुंबई से भेजा गया था, राकेश एवं दीप्ति की सेवाएँ समाप्त करने का निर्णय मुंबई में लिया गया था तथा सेवा समाप्ति के पत्र मुंबई से भेजे गए थे।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि HDFC बैंक का यह दावा उचित था कि वाद मुंबई के संबंधित न्यायालय में लाया जाना चाहिये।
अनन्य अधिकारिता खंड पर ऐतिहासिक मामले क्या हैं?
- हाकम सिंह बनाम गैमन (इंडिया) लिमिटेड (1971):
- पक्षकारों के लिये यह संभव नहीं है कि वे अपने करार द्वारा किसी ऐसे न्यायालय को अधिकारिता प्रदान करें जो संहिता के अंतर्गत उनके पास नहीं है।
- लेकिन जहाँ दो या अधिक न्यायालयों के पास CPC के अंतर्गत किसी वाद या कार्यवाही की सुनवाई करने का अधिकारिता है, वहाँ पक्षकारों के बीच यह करार कि उनके बीच विवाद की सुनवाई ऐसे ही न्यायालयों में से किसी एक में की जाएगी, सार्वजनिक नीति के विपरीत नहीं है।
- ऐसा करार संविदा अधिनियम की धारा 28 का उल्लंघन नहीं करता है।
- स्वास्तिक गैसेस (P) लिमिटेड बनाम इंडियन ऑयल कारपोरेशन लिमिटेड (2013):
- करार में धारा 18 को शामिल करके पक्षकारों की मंशा स्पष्ट है कि कोलकाता की न्यायालयों को अधिकारिता प्राप्त होगी, जिसका अर्थ है कि केवल कोलकाता की न्यायालयों को ही अधिकारिता प्राप्त होगी।
- ऐसा इसलिये है क्योंकि करार में धारा 18 की तरह अधिकारिता खंड के निर्माण के लिये, मैक्सिम एक्सप्रेसियो यूनियस एस्ट एक्सक्लूसियो अल्टरियस लागू होता है क्योंकि इसके विपरीत संकेत देने के लिये कुछ भी नहीं है।