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आपराधिक कानून

यौन उत्पीड़न के मामलों में एक व्यापक संदर्भ

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 08-Nov-2023

भारत संघ एवं अन्य बनाम दिलीप पॉल

"यौन उत्पीड़न के आरोपों पर मामले के व्यापक संदर्भ में विचार किया जाना चाहिये "।

सीजेआई डी. वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस जे. बी. पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा

 स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने भारत संघ और अन्य बनाम दिलीप पॉल ने कहा कि यौन उत्पीड़न के आरोपों पर मामले के व्यापक संदर्भ में विचार किया जाना चाहिये और केवल प्रक्रियात्मक उल्लंघन के आधार पर निर्णय नहीं लिया जाना चाहिये ।

भारत संघ एवं अन्य बनाम दिलीप पॉल मामले की पृष्ठभूमि:

  • यहाँ प्रतिवादी असम राज्य में सेवा चयन बोर्ड के कार्यालय के स्थानीय प्रमुख के रूप में कार्यरत था।
  • उसी कार्यालय में, एक महिला कर्मचारी फील्ड असिस्टेंट के रूप में कार्यरत थी जिसने प्रतिवादी के खिलाफ यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज़ कराई थी।
  • पहली शिकायत 30 अगस्त, 2011 को दर्ज़ की गई थी जिसे शुरू में महानिरीक्षक (आईजी) को प्रस्तुत किया गया था और बाद में राष्ट्रीय महिला अधिकार आयोग, नई दिल्ली के अध्यक्ष सहित कई अधिकारियों को मामला भेज दिया गया था।
  • 18 सितंबर 2012 को, शिकायतकर्त्ता ने फैक्स के माध्यम से प्रतिवादी के खिलाफ अतिरिक्त आरोपों वाली दूसरी शिकायत प्रस्तुत की।
  • दो प्रारंभिक जाँच, एक तथ्य-अन्वेषण जाँच और एक फ्रंटियर शिकायत समिति की जाँच, आरोपों को साबित करने में विफल रही।
  • इसके बाद केंद्रीय शिकायत समिति ने जाँच की।
  • केंद्रीय शिकायत समिति ने प्रतिवादी को यौन उत्पीड़न का दोषी पाया।
  • केंद्रीय शिकायत समिति की जाँच को रद्द करने के उद्देश्य से, प्रतिवादी ने केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (कैट) से संपर्क किया।
  • चूँकि अनुशासनात्मक कार्यवाही अभी भी लंबित थी, कैट ने केंद्रीय शिकायत समिति की जाँच के संबंध में राय व्यक्त करने से परहेज़ किया।
  • इसके बाद, प्रतिवादी ने गुवाहाटी उच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर की।
  • उच्च न्यायालय (HC) ने कहा कि केंद्रीय शिकायत समिति का अधिकार क्षेत्र शिकायतकर्त्ता द्वारा दायर की गई पहली शिकायत तक ही सीमित था, और उसे दूसरी शिकायत में लगाए गए आरोपों पर विचार नहीं करना चाहिये था।
  • इससे व्यथित होकर उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील दायर की गई।
  • उच्च न्यायालय (HC) के फैसले को उच्चतम न्यायालय ने रद्द कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ:

  • भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी. वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस जे. बी. पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि यौन उत्पीड़न के आरोपों पर मामले के व्यापक संदर्भ में विचार किया जाना चाहिये और केवल प्रक्रियात्मक उल्लंघन के आधार पर निर्णय नहीं लिया जाना चाहिये ।
  • न्यायालय ने ऐसे मामलों की समीक्षा करते समय महत्त्वहीन विसंगतियों या अति-तकनीकिताओं से प्रभावित न होने के महत्त्व को रेखांकित किया। इसने इस बात पर ज़ोर दिया कि इस प्रकृति के आरोपों पर पूरे मामले के व्यापक संदर्भ में विचार किया जाना चाहिये । न्यायालय ने कदाचार के प्रत्येक आरोपी के प्रति अनुचित सहानुभूति या उदारता दिखाने के प्रति भी आगाह किया।
  • न्यायालय ने ऐसे मामलों में उच्च न्यायालय के सीमित क्षेत्राधिकार पर भी प्रकाश डाला। इसमें कहा गया है कि उच्च न्यायालय को अपीलीय प्राधिकारी के रूप में कार्य नहीं करना चाहिये या अपने स्वयं के निष्कर्षों को अनुशासनात्मक प्राधिकारी के निष्कर्षों से प्रतिस्थापित नहीं करना चाहिये ।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि केवल प्रक्रियात्मक नियम के उल्लंघन के मामले में, प्रतिवादी पर कोई पूर्वाग्रह उत्पन्न होने का दावा नहीं किया जा सकता है, भले ही यह मान लिया जाए कि उसे दूसरी शिकायत के लिये दोषी मानने के लिये नहीं कहा गया था। उच्चतम न्यायालय ने माना कि उच्च न्यायालय ने न्यायालय द्वारा स्थापित सिद्धांतों की अनदेखी की है और अनुशासनात्मक प्राधिकारी के दंड आदेश को अनुचित रूप से रद्द कर दिया है।

यौन उत्पीड़न क्या है?

  • यौन उत्पीड़न एक व्यापक और गहरी जड़ें जमा चुका मुद्दा है जिसने दुनिया भर के समाजों को त्रस्त कर दिया है।
  • यौन उत्पीड़न महिला के मौलिक अधिकारों का गंभीर उल्लंघन है। इसका अर्थ प्रकृति का कोई भी अवांछित आचरण है
  • भारत में, यह गंभीर चिंता का विषय रहा है, और यौन उत्पीड़न से निपटने के लिये कानूनों का विकास इस समस्या के समाधान के प्रति देश की प्रतिबद्धता का एक प्रमाण है।
  • भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 354a यौन उत्पीड़न और यौन उत्पीड़न के लिये सजा से संबंधित है। यह कहती है कि-

(1) ऐसा व्यक्ति जो निम्नलिखित में से कोई भी कार्य कर रहा है-

  • किसी महिला को गलत या दुर्भावनापूर्ण इरादे से छूना जिसमें स्पष्ट यौन प्रस्ताव शामिल हैं
  • किसी महिला की सहमति के बिना जबरन अश्लील या सेक्सुअल सामग्री दिखाना।
  • मैथुन(सेक्स) के लिये माँग या अनुरोध।
  • किसी महिला पर अभद्र या कामुक टिप्पणियाँ करना।

ऐसा व्यक्ति यौन उत्पीड़न के अपराध का दोषी होगा।

(2) कोई भी व्यक्ति जो उपधारा (1) के खंड (i) या खंड (ii) या खंड (iii) में निर्दिष्ट अपराध करता है, उसे एक ऐसी अवधि के लिये कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा जिसे तीन साल तक बढ़ाया जा सकता है, या जुर्माना, या दोनों लगाया जा सकता है।

(3) कोई भी व्यक्ति जो उप-धारा (1) के खंड (iv) में निर्दिष्ट अपराध करता है, उसे किसी एक ऐसी अवधि के लिये कारावास, जिसे एक वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, या जुर्माना, या दोनों से दंडित किया जाएगा।

  • कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न के बढ़ते सामाजिक खतरे के खिलाफ निर्णायक मोड़ विशाखा और अन्य बनाम राजस्थान राज्य (1997) के मामले में उच्चतम न्यायालय के पथप्रदर्शक फैसले में खोजा जा सकता है।
  • इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को महिला के समानता और सम्मान के मौलिक अधिकार का उल्लंघन माना।