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सांविधानिक विधि
दस्तावेज़़ की वास्तविकता की स्वीकृति द्वारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 20 (3) का अनुल्लंघन
« »18-Jul-2024
अशोक डागा बनाम प्रवर्तन निदेशालय “CrPC की धारा 294 के अधीन अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज़ों की सूची के साथ-साथ उनकी वास्तविकता को स्वीकार करने या अस्वीकार करने के लिये अभियुक्त को बुलाना, किसी भी तरह से अभियुक्त के अधिकार के प्रतिकूल नहीं कहा जा सकता है”। न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में अशोक डागा बनाम प्रवर्तन निदेशालय के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि किसी अभियुक्त को दस्तावेज़ की वास्तविकता को स्वीकार करने या अस्वीकार करने के लिये बुलाना, आत्म-दोषसिद्धि के विरुद्ध उसके अधिकार का उल्लंघन नहीं माना जाएगा।
अशोक डागा बनाम प्रवर्तन निदेशालय मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान वाद में यह मुद्दा उठाया गया था कि क्या यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 20 (3) का उल्लंघन है यदि किसी व्यक्ति को दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 294 के अधीन दस्तावेज़़ की वास्तविकता को स्वीकार करने या अस्वीकार करने के लिये न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है।
- इस मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय में एक विशेष अनुमति याचिका दायर की गई।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 20(3) आत्म-दोषसिद्धि के विरुद्ध अधिकार की बात करता है और किसी भी व्यक्ति को अपने विरुद्ध साक्षी नहीं बनना चाहिये।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि CrPC की धारा 294 का उद्देश्य केवल वाद के लिये प्रासंगिक साक्ष्य का उपयोग करके तथा अन्य अप्रासंगिक दस्तावेज़ों को अलग रखकर वाद की कार्यवाही को शीघ्रता से संचालित करना है।
- न्यायालय ने कहा कि किसी दस्तावेज़ की वास्तविकता को स्वीकार करने या अस्वीकार करने वाले व्यक्ति के उपस्थित न होने पर उसके विरुद्ध, प्रतिकूल निर्णय हो सकता है।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि किसी अभियुक्त से दस्तावेज़ की वास्तविकता को स्वीकार करने या अस्वीकार करने के लिये कहा जाता है तो वाद की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना संविधान के अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन नहीं होगा।
BNSS की धारा 330 क्या है?
- परिचय:
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 330 में ऐसे दस्तावेज़ दिये गए हैं जिनके औपचारिक प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।
- पहले यह मामला CrPC की धारा 294 के अंतर्गत आता था।
- BNSS की धारा 330 के अंतर्गत दो नए प्रावधान जोड़े गए हैं।
- धारा 330:
- खंड (1) में कहा गया है कि यहाँ अभियोजन पक्ष या अभियुक्त द्वारा किसी भी न्यायालय के समक्ष कोई दस्तावेज़ दायर किया जाता है, ऐसे प्रत्येक दस्तावेज़ के विवरण को एक सूची में शामिल किया जाएगा और अभियोजन पक्ष या अभियुक्त या अभियोजन पक्ष या अभियुक्त के अधिवक्ता, यदि कोई हो, को ऐसे दस्तावेज़ों की आपूर्ति के तुरंत बाद और किसी भी मामले में ऐसी आपूर्ति के तीस दिनों के बाद प्रत्येक ऐसे दस्तावेज़ की वास्तविकता को स्वीकार या अस्वीकार करने के लिये कहा जाएगा:
- बशर्ते कि न्यायालय अपने विवेकानुसार, लिखित रूप में दर्ज किये जाने वाले कारणों के साथ समय-सीमा में छूट दे सकता है।
- आगे यह भी प्रावधान है कि किसी विशेषज्ञ को न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने के लिये तब तक नहीं बुलाया जाएगा जब तक कि ऐसे विशेषज्ञ की रिपोर्ट पर विचारण के किसी पक्षकार द्वारा विवाद न किया जाए।
- खंड (2) में कहा गया है कि दस्तावेज़ों की सूची ऐसे प्रारूप में होगी जैसा राज्य सरकार द्वारा निर्धारित किया जाएगा।
- खंड (3) में कहा गया है कि जहाँ किसी दस्तावेज़ की वास्तविकता पर विवाद नहीं है, ऐसे दस्तावेज़ को इस संहिता के तहत किसी जाँच, परीक्षण या अन्य कार्यवाही में उस व्यक्ति के हस्ताक्षर के साक्ष्य के बिना साक्ष्यों में स्वीकार किया जा सकता है, जिसके लिये उस पर हस्ताक्षर किये जाने का तात्पर्य है:
- इसमें यह प्रावधान है कि न्यायालय अपने विवेकानुसार ऐसे हस्ताक्षर को सिद्ध करने की मांग कर सकता है।
- खंड (1) में कहा गया है कि यहाँ अभियोजन पक्ष या अभियुक्त द्वारा किसी भी न्यायालय के समक्ष कोई दस्तावेज़ दायर किया जाता है, ऐसे प्रत्येक दस्तावेज़ के विवरण को एक सूची में शामिल किया जाएगा और अभियोजन पक्ष या अभियुक्त या अभियोजन पक्ष या अभियुक्त के अधिवक्ता, यदि कोई हो, को ऐसे दस्तावेज़ों की आपूर्ति के तुरंत बाद और किसी भी मामले में ऐसी आपूर्ति के तीस दिनों के बाद प्रत्येक ऐसे दस्तावेज़ की वास्तविकता को स्वीकार या अस्वीकार करने के लिये कहा जाएगा:
आत्म-दोषी ठहराए जाने के विरुद्ध अधिकार क्या है?
- परिचय:
- यह विधिक सूक्त पर आधारित है- निमो टेनेटूर प्रोड्रे एक्यूसेरे सीप्सम- यह बताता है कि किसी व्यक्ति को कोई आत्म-दोषी अभिकथन देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता है।
- आत्म-दोष एक विधिक सिद्धांत है जिसके अधीन किसी व्यक्ति को किसी आपराधिक मामले में सूचना देने या स्वयं के विरुद्ध गवाही देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता है। अमेरिका और भारत सहित विभिन्न न्यायक्षेत्रों में, आत्म-दोष के विरुद्ध अधिकार को संवैधानिक या विधिक संरक्षण के रूप में स्थापित किया गया है।
संविधान का अनुच्छेद 20:
- अपराधों के लिये दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण:
- खंड (1) में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को किसी अपराध के लिये दोषी नहीं ठहराया जाएगा, सिवाय उस अपराध के, जो अपराध के रूप में आरोपित कृत्य के समय लागू विधि के उल्लंघन के लिये हो और न ही उस पर उससे अधिक दण्ड लगाया जाएगा, जो अपराध के समय लागू विधि के अधीन लगाया जा सकता था।
- खंड (2) में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति पर एक ही अपराध के लिये एक से अधिक बार वाद नहीं चलाया जाएगा और न ही उसे एक से अधिक बार दण्डित किया जाएगा।
- खंड (3) में कहा गया है कि किसी भी अपराध के आरोपी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्षी बनने के लिये बाध्य नहीं किया जाएगा।
आत्म-दोषसिद्धि पर ऐतिहासिक निर्णयज विधियाँ क्या हैं?
- नंदिनी सत्पथी बनाम पी.एल. दानी (1978): इस मामले में आत्म-दोषी ठहराए जाने के विरुद्ध अधिकार के महत्त्व की पुष्टि की गई। न्यायालय ने माना कि यह अधिकार अभियुक्त व्यक्तियों और साक्षियों दोनों पर लागू होता है तथा इस बात पर ज़ोर दिया कि किसी भी परिस्थिति में किसी को भी स्वयं को दोषी ठहराने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता।
- रितेश सिन्हा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2019): इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने हस्तलेखन नमूनों के मापदण्डों को व्यापक बनाते हुए इसमें आवाज़ के नमूने भी शामिल कर लिये हैं, साथ ही कहा है कि इससे आत्म-दोषी ठहराने के अधिकार का उल्लंघन नहीं होगा।
- यह भी घोषित किया गया कि मजिस्ट्रेट किसी व्यक्ति को जाँच के दौरान अनिवार्य रूप से आवाज़ का नमूना देने का निर्देश दे सकता है।