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आपराधिक कानून
आरोप का परिवर्द्धन
« »12-Jun-2024
मधुसूदन एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य “आरोपों में परिवर्द्धन की स्थिति में, अभियोजन पक्ष और बचाव पक्ष दोनों को CrPC की धारा 217 के अधीन ऐसे परिवर्द्धित आरोपों के संदर्भ में साक्षियों की पुनः जाँच करने का अवसर दिया जाना चाहिये”। न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय और सतीश चंद्र शर्मा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा कि आरोपों में परिवर्द्धन की स्थिति में, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 217 के अधीन अभियोजन पक्ष तथा बचाव पक्ष दोनों को ऐसे परिवर्द्धित आरोपों के संदर्भ में साक्षियों को वापस बुलाने या उनसे पुनः पूछताछ करने का अवसर दिया जाना चाहिये।
- उपर्युक्त टिप्पणी मधुसूदन एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले में की गई थी।
मधुसूदन एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में पाँचों आरोपियों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 148, 302/149, 307/149 और 323/149 के अधीन आरोप तय किये गए थे।
- यह अभियोग चार आरोपियों संजय, मधुसूदन, रामकृपाल और रामप्रकाश के विरुद्ध चलाया गया था। पाँचवाँ आरोपी बब्बू उर्फ ओमप्रकाश फरार होने के कारण इस अभियोग में शामिल नहीं था।
- संबंधित ट्रायल कोर्ट ने आरोपी संजय को सभी आरोपों से दोषमुक्त करने का आदेश दिया। साथ ही, IPC की धारा 148 के अधीन अपराध के लिये शेष तीन आरोपियों को भी दोषमुक्त करने का आदेश दिया गया।
- हालाँकि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 34 के प्रावधानों का सहारा लेते हुए तीनों को क्रमशः धारा 302, 307 और 323 के अधीन अपराधों के लिये दोषी ठहराया गया।
- प्रथम अपर सत्र न्यायाधीश, इंदौर द्वारा 23 नवंबर 2000 को दिया गया उपरोक्त निर्णय, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की इंदौर पीठ द्वारा अपील पर पुष्टि किया गया, जिसमें पाया गया कि अपील में कोई योग्यता नहीं है।
- इसके उपरांत अपीलकर्त्ताओं ने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की।
- अपीलकर्त्ताओं के अधिवक्ता ने कहा कि प्रत्यक्षदर्शियों के साक्ष्य में विसंगतियों के कारण तथा अभियोजन पक्ष द्वारा आरोपी को अपराध के साथ स्वीकार्य भौतिक साक्ष्य से जोड़ने में चूक के कारण दोषसिद्धि का निर्णय कायम नहीं रखा जा सकता।
- अपीलकर्त्ताओं के अधिवक्ता के अनुसार, ट्रायल कोर्ट ने केवल समान उद्देश्य से संबंधित प्रश्न तैयार किये थे और समान आशय का मुद्दा विचारण के दौरान कभी सामने नहीं आया।
- तद्नुसार अपील स्वीकार की गयी तथा अपीलकर्त्ताओं को दोषमुक्त करने का आदेश दिया गया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा कि न्यायालय निर्णय सुनाए जाने से पूर्व किसी भी आरोप में परिवर्द्धन कर सकता है या उसे जोड़ सकता है, परंतु जब आरोप परिवर्द्धित किये जाते हैं, तो अभियोजन पक्ष तथा बचाव पक्ष दोनों को CrPC की धारा 217 के अधीन ऐसे परिवर्द्धित आरोपों के संदर्भ में साक्षियों को वापस बुलाने या उनसे पुनः पूछताछ करने का अवसर दिया जाना चाहिये। इससे भी महत्त्वपूर्ण बिंदु यह है कि यदि न्यायालय द्वारा आरोपों में परिवर्द्धन किया जाता है, तो इसके कारणों का निर्णय में उल्लेख किया जाना चाहिये।
- यह भी माना गया कि धारा 149 से धारा 34 IPC में आरोप बदलते समय न्यायालय ने कोई कारण नहीं बताया। महत्त्वपूर्ण बिंदु यह है कि अभियोजन पक्ष द्वारा अभियुक्त के विरुद्ध धारा 34 के अधीन कोई आरोप नहीं लगाया गया। परंतु जब धारा 149 IPC के अधीन आरोप हटा दिया गया, तो ट्रायल कोर्ट ने सुविधाजनक तरीके से आरोप बदलने का निर्णय किया और धारा 34 IPC की सहायता से अभियुक्त को क्रमशः धारा 302, 307 तथा 323 IPC के तहत दोषी ठहराने का आदेश दिया।
- न्यायालय ने रोहतास बनाम हरियाणा राज्य (2021) में हाल ही में तीन न्यायाधीशों की पीठ के फैसले का संदर्भ दिया, जिसमें यह देखा गया था कि जब किसी आरोप को 'समान उद्देश्य' से 'समान आशय' में बदल दिया जाता है, तो किसी दिये गए मामले में समान इरादे के अस्तित्त्व को अभियोजन पक्ष द्वारा प्रासंगिक साक्ष्य के साथ आवश्यक रूप से स्थापित किया जाना चाहिये क्योंकि 'समान उद्देश्य' और 'समान इरादे' की एक दूसरे के साथ तुलना नहीं की जा सकती है।
आरोप क्या है?
परिचय:
- सरल शब्दों में दोषारोपण का अर्थ है 'आरोप'।
- इसका अर्थ है, किसी अभियुक्त के विरुद्ध शिकायत या सूचना के आधार पर मजिस्ट्रेट या न्यायालय द्वारा ठोस आरोप को औपचारिक मान्यता देना।
विधिक प्रावधान:
- CrPC की धारा 2(b) 'आरोप' को परिभाषित करती है, जिसमें कहा गया है कि, आरोप में कोई भी आरोप शीर्ष शामिल होता है, जब आरोप में एक से अधिक शीर्ष शामिल हों।
उद्देश्य:
- वी. सी. शुक्ला बनाम राज्य (1979) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि आरोप तय करने के पीछे का उद्देश्य आरोप की प्रकृति के बारे में स्पष्ट, असंदिग्ध या सटीक सूचना देना है, जिस सूचना का सामना अभियुक्त को वाद के दौरान करना होता है।
आरोप के आवश्यक तत्त्व:
- CrPC की धारा 211 आरोप के आवश्यक तत्त्वों का गठन करती है:
- इसमें उस अपराध का उल्लेख होना चाहिये जिसका आरोप अभियुक्त पर लगाया गया है।
- तैयार किये गए आरोप में उस अपराध का सटीक नाम निर्दिष्ट किया जाएगा जिसके लिये अभियुक्त पर आरोप लगाया गया है।
- यदि किसी विधि के अधीन उस अपराध के लिये कोई विशिष्ट नाम नहीं दिया गया है जिसके लिये अभियुक्त पर आरोप लगाया गया है, तो अपराध की परिभाषा स्पष्ट रूप से बताई जानी चाहिये ताकि अभियुक्त को ज्ञात हो सके कि उस पर किस अपराध का आरोप लगाया गया है।
- आरोप में उस विधि तथा विधि की धारा का उल्लेख किया जाएगा जिसके विरुद्ध अपराध किया गया है।
- मात्र यह तथ्य कि आरोप दायर कर दिया गया है, इस बात की घोषणा के समान है कि इस मामले में कथित अपराध के लिये विधि द्वारा आवश्यक प्रत्येक विधिक शर्त पूरी कर दी गई है।
- आरोप, न्यायालय की भाषा में लिखा जाना चाहिये।
- यदि अभियुक्त को पहले किसी अपराध के लिये दोषी ठहराया जा चुका है, तो बढ़ी हुई सज़ा के लिये आरोप-पत्र में पिछली सज़ा के तथ्य, तिथि एवं स्थान का उल्लेख किया जाना चाहिये, जिसे न्यायालय तब पारित कर सकता है, जब वह अभियुक्त को उस आरोपित अपराध का दोषी पाती है।
समय, स्थान और व्यक्ति के संबंध में विवरण:
- तैयार किये गए आरोप-पत्र में कथित अपराध के समय और स्थान तथा उस व्यक्ति के विषय में विवरण दिया जाएगा जिसके विरुद्ध अपराध किया गया है, ताकि अभियुक्त को उस मामले की सटीक तथा स्पष्ट सूचना मिल सके जिसके लिये उस पर आरोप लगाया गया है।
- जब अभियुक्त पर आपराधिक विश्वासघात या धन या किसी अन्य चल संपत्ति के बेईमानी से गबन का आरोप लगाया जाता है तो आरोप-पत्र में सटीक समय का उल्लेख करना आवश्यक नहीं है, निर्दिष्ट सकल राशि और वह तिथि जब ऐसा कथित अपराध किया गया है, पर्याप्त होगी।
- उदाहरण के लिये, हत्या के मामले में हत्या की तिथि और समय तथा आरोपी और मृतक का विवरण पर्याप्त होगा।
अपराध करने का तरीका बताना कब आवश्यक है:
- CrPC की धारा 213 के अनुसार, जब मामले की प्रकृति ऐसी हो कि धारा 211 और धारा 212 में दर्शाए गए विवरण अभियुक्त को उस आरोप की पर्याप्त सूचना नहीं देते, जिसका उस पर आरोप लगाया गया है, तो आरोप में कथित अपराध कैसे किया गया है, इस विषय में ऐसे विवरण शामिल किये जाएंगे जो उस उद्देश्य के लिये प्रावधान करेंगे।
- उदाहरण के लिये- A पर किसी निश्चित समय और स्थान पर B को धोखा देने का आरोप है। आरोप में यह बताया जाना चाहिये कि A ने B को किस तरह से धोखा दिया।
न्यायालय की आरोप के परिवर्द्धन की शक्ति:
- CrPC की धारा 216 स्पष्ट करती है कि न्यायालय को निर्णय सुनाए जाने से पहले किसी भी समय आरोप में परिवर्द्धन करने या उसे जोड़ने का अधिकार होगा।
- आरोप में ऐसे परिवर्द्धन या किसी परिवर्द्धन के पश्चात, आरोप अभियुक्त को समझाया जाएगा।
- यदि आरोप में कोई परिवर्तन या परिवर्द्धन ऐसा है कि वाद की कार्यवाही तत्काल प्रारंभ करने से अभियुक्त को अपने बचाव में या अभियोजक को मामले के संचालन में कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा, तो न्यायालय अपने विवेकानुसार वाद की कार्यवाही इस प्रकार आगे बढ़ा सकता है मानो परिवर्तित या जोड़ा गया आरोप, परिवर्तन या परिवर्द्धन के उपरांत मूल आरोप था।
- यदि किसी आरोप में ऐसा कोई जोड़ या परिवर्तन किया गया है कि वाद की तत्काल कार्यवाही अभियुक्त के बचाव में या अभियोजक के मामले के संचालन में प्रतिकूल प्रभाव डालेगी, तो न्यायालय अपने विवेकानुसार या तो नए वाद का आदेश दे सकता है या उसे स्थगित कर सकता है।
- यदि परिवर्तित या जोड़े गए आरोप में उल्लिखित अपराध अभियोजन के लिये है, तो मामला तब तक आगे नहीं बढ़ेगा जब तक कि उस अपराध को गठित करने वाले तथ्यों के संबंध में अभियोजन के लिये स्वीकृति प्राप्त नहीं कर ली जाती है, जिस पर परिवर्तित या जोड़े गए आरोप आधारित हैं।
- ध्यान में रखने योग्य सिद्धांत यह है कि मजिस्ट्रेट द्वारा लगाया गया आरोप उसके समक्ष प्रस्तुत सामग्री या बाद में रिकार्ड पर आए साक्ष्य के अनुसार हो।
- जब तक साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर दिये जाते, पहले से तय आरोपों में परिवर्तन नहीं किया जा सकता, क्योंकि CrPC की धारा 216 का उद्देश्य ऐसा नहीं है।
- न्यायालय का यह दायित्व है कि वह यह सुनिश्चित करे कि अभियुक्त के प्रति कोई पूर्वाग्रह न हो तथा उसे निष्पक्ष सुनवाई का अवसर मिले।
- ट्रायल कोर्ट या अपील कोर्ट आरोप में परिवर्तन कर सकता है या उसमें वृद्धि कर सकता है, बशर्ते:
- अभियुक्त पर किसी नए अपराध का आरोप नहीं लगाया गया है।
- अभियुक्त को उसके विरुद्ध लगाए गए आरोप का बचाव करने का अवसर अवश्य दिया जाना चाहिये।
आरोप में परिवर्तन होने पर साक्षी को वापस बुलाना:
- CrPC की धारा 217 में साक्षियों को वापस बुलाने का प्रावधान है, जब वाद प्रारंभ होने के उपरांत न्यायालय द्वारा आरोप में परिवर्तन किया जाता है या आरोप में कुछ जोड़ा जाता है, तो न्यायालय स्वयं ऐसा कर सकती है और इस प्रयोजन के लिये किसी आदेश को पारित करने की आवश्यकता नहीं होती है।
निर्णयज विधियाँ:
- कोर्ट इन इट्स मोशन बनाम शंकरू (1982):
- हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि आरोप के सार का उल्लेख किये बिना, जिस धारा के अधीन अभियुक्त पर आरोप लगाया गया है मात्र उस धारा का उल्लेख करना प्रक्रिया का गंभीर उल्लंघन है।
- भगवत दास बनाम उड़ीसा राज्य (1989):
- उड़ीसा उच्च न्यायालय ने माना कि आरोप में अपराध का विवरण देने में मामूली अनियमितताएँ वाद या उसके परिणाम को प्रभावित नहीं करेंगी।
IPC की धारा 34 और धारा 149 के बीच क्या अंतर है?
- उच्चतम न्यायालय ने वीरेंद्र सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2010) में निम्नलिखित अंतरों पर गौर किया:
IPC की धारा 34 |
IPC की धारा 149 |
● धारा 34 अपने आप में कोई विशिष्ट अपराध का गठन नहीं करती। |
● धारा 149 अपने आप में किसी विशिष्ट अपराध का गठन करती है। |
● धारा 34 के अंतर्गत कुछ सक्रिय भागीदारी, विशेषकर शारीरिक हिंसा से जुड़े अपराधों में, आवश्यक है। |
● धारा 149 में इसकी आवश्यकता नहीं है और दायित्व केवल एक समान उद्देश्य के साथ विधिविरुद्ध सभा की सदस्यता के कारण उत्पन्न होता है तथा अपराध की तैयारी एवं अपराध के कार्यान्वयन में कोई सक्रिय भागीदारी नहीं हो सकती है। |
● यह धारा समान आशय की बात करती है। |
● यह धारा एक समान उद्देश्य पर विचार करती है जो निस्संदेह अपनी सीमा और विस्तार में समान आशय से कहीं अधिक व्यापक है। |
● यह धारा उन व्यक्तियों की न्यूनतम संख्या निर्धारित नहीं करती है जिनका समान आशय होना आवश्यक है। |
● धारा 149 के अनुसार कम-से-कम पाँच व्यक्ति होने चाहिये जिनका उद्देश्य एक ही हो। |