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सिविल कानून
अपील उचित समय के भीतर दायर की जानी चाहिये
« »19-Dec-2023
मैसर्स नॉर्थ ईस्टर्न केमिकल्स इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड एवं अन्य बनाम मैसर्स अशोक पेपर मिल लिमिटेड एवं अन्य। "जब अपील दायर करने के लिये कोई सीमा अवधि निर्धारित नहीं की गई हो तो ऐसी अपील उचित समय के भीतर दायर की जानी चाहिये।" न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और संजय करोल |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने मैसर्स नॉर्थ ईस्टर्न केमिकल्स इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड एवं अन्य बनाम मैसर्स अशोक पेपर मिल लिमिटेड एवं अन्य के मामले में माना है कि जब अपील दायर करने के लिये कोई सीमा अवधि निर्धारित नहीं की गई हो तो ऐसी अपील उचित समय के भीतर दायर की जानी चाहिये।
मैसर्स नॉर्थ ईस्टर्न केमिकल्स इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड एवं अन्य बनाम मैसर्स अशोक पेपर मिल लिमिटेड एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- अपीलकर्ता (मैसर्स नॉर्थ ईस्टर्न केमिकल्स इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड एवं अन्य) को प्रतिवादियों (मैसर्स अशोक पेपर मिल लिमिटेड एवं अन्य) को कुछ वस्तुओं की आपूर्ति करने के आदेश मिले थे।
- ऐसा करने के बाद उन्होंने कुछ बिल बनाए जिनका प्रतिवादियों द्वारा केवल आंशिक भुगतान किया गया।
- इसके बाद, प्रतिवादी को एक रुग्ण कंपनी घोषित कर दिया गया।
- अपीलकर्ता ने जोगीघोपा अधिनियम, 1990 की धारा 16 के तहत ब्याज सहित 1,58,375/- रुपए के लिये अपना दावा दायर किया।
- भुगतान आयुक्त ने अपीलकर्ता को मूल राशि तो दे दी लेकिन कोई ब्याज नहीं दिया।
- इस तरह के दावा किये गए ब्याज का भुगतान न करने से व्यथित होकर, गुवाहाटी उच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर की गई थी जिसमें विलंब माफी के लिये परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5 के तहत एक आवेदन के साथ देय मूल राशि पर ब्याज देने पर विचार करने के लिये आयुक्त को निर्देश देने की मांग की गई है।
- आयुक्त ने विलंबित भुगतान पर ₹ 6,83,688/- पर 8% की ब्याज राशि देने के अनुरोध पर विचार करते हुए इसे मंज़ूर कर लिया।
- इससे भी व्यथित अपीलकर्ताओं ने एक बार फिर उच्च न्यायालय की ओर रूख किया।
- उच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि यदि कोई अतिरिक्त ब्याज देय पाया जाता है, तो आदेश के 60 दिनों के भीतर भुगतान किया जाना चाहिये।
- उक्त आदेश के विरुद्ध, प्रतिवादियों ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक समीक्षा आवेदन दायर किया जिसे बाद में न्यायालय ने अनुमति दे दी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति संजय करोल की खंडपीठ ने कहा कि अपील दायर करने के लिये निर्धारित समय की किसी विशेष अवधि के अभाव में, यह उचित समय के सिद्धांत द्वारा शासित होगा, जिसके लिये इसकी प्रकृति के आधार पर, कोई स्ट्रेटजैकेट फॉर्मूला निर्धारित नहीं किया जा सकता है और इसे प्रत्येक मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों के अनुसार निर्धारित किया जाना है।
- न्यायालय ने माना कि जब कोई सीमा निर्धारित नहीं है तो यह न्यायालय के लिये विधायिका के विवेक को प्रतिस्थापित करने और एक सीमा प्रदान करने के लिए अनुचित होगा, विशेष रूप से उस अवधि के अनुसार जिसे वह उचित अवधि मानता है।
परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5 क्या है?
परिचय:
- परिसीमा अधिनियम की धारा 5 विलंब माफी की अवधारणा से संबंधित है। यह कुछ मामलों में निर्धारित अवधि के विस्तार से संबंधित है और इसमें कहा गया है कि -
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) के आदेश XXI के किसी भी प्रावधान के तहत आवेदन के अलावा कोई भी अपील या कोई आवेदन, निर्धारित अवधि के बाद स्वीकार किया जा सकता है, यदि अपीलकर्त्ता या आवेदक न्यायालय को संतुष्ट करता है कि उसके पास अपील न करने या ऐसी अवधि के भीतर आवेदन न करने के लिये पर्याप्त कारण थे।
- स्पष्टीकरण: तथ्य यह है कि अपीलकर्त्ता या आवेदक निर्धारित अवधि का पता लगाने या गणना करने में उच्च न्यायालय के किसी भी आदेश, अभ्यास या निर्णय से चूक गया, तो इस धारा के अर्थ में पर्याप्त कारण हो सकता है।
- परिसीमा अधिनियम की धारा 5 के प्रावधान का तात्पर्य यह नहीं है कि विलंब माफी करने की न्यायालय की शक्ति एक आवेदन दायर करने तक सीमित है।
- विलंब माफी करने की शक्ति का प्रयोग तब किया जा सकता है जब अपीलकर्ता न्यायालय को संतुष्ट कर दे कि उसके पास निर्धारित अवधि के भीतर अपील दायर न करने के पर्याप्त कारण थे।
- यदि कोई अपील बिना किसी औपचारिक या लिखित आवेदन के स्पष्ट करने योग्य परिस्थिति में समय से पहले प्रस्तुत की जाती है, तो न्यायालयों को न्याय के निष्फल से बचने के लिये पक्षों को मामले में संशोधन करने का उचित अवसर मिलना चाहिये।
- धारा 5 के तहत राहत का दावा करने के लिये एक लिखित आवेदन आवश्यक नहीं है और यदि न्याय के हित की आवश्यकता हो तो इस धारा के तहत लिखित आवेदन के बिना राहत देने के लिये न्यायालय खुला है।
निर्णयज विधि:
- राम लाल बनाम रीवा कोलफील्ड्स लिमिटेड (1962) मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि दो महत्त्वपूर्ण विचार हैं जिन्हें विलंब माफी पर विचार करते समय ध्यान में रखा जाना चाहिये:
- परिसीमा की अवधि की समाप्ति से डिक्री-धारक के पक्ष में पारित डिक्री को पार्टियों के बीच बाध्यकारी मानने के कानूनी अधिकारों का उदय होता है। समय बीतने पर डिक्री-धारक को जो कानूनी अधिकार प्राप्त होता है, उसमें थोड़ा भी व्यवधान नहीं होना चाहिये।
- यदि विलंब के निष्पादन के लिये पर्याप्त कारण दिखाया गया है, तो विलंब माफी करने और अपील स्वीकार करने का विवेक न्यायालय को दिया जाता है। पर्याप्त कारण का प्रमाण विवेकाधीन क्षेत्राधिकार के प्रयोग में एक आवश्यक शर्त है।
- राम काली कुएर बनाम इंद्रदेव चौधरी (1985) मामले में पटना उच्च न्यायालय ने माना कि धारा 5 यह प्रावधान नहीं करती है कि उक्त प्रावधान के तहत राहत देने से पहले लिखित रूप में एक आवेदन दायर किया जाना चाहिये।