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आपराधिक कानून
दोषसिद्धि से अपील
« »13-Oct-2023
राज्य बनाम आरिज़ खान “मौजूदा मामला दुर्लभतम मामले की श्रेणी में नहीं आता है।” न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल और न्यायमूर्ति अमित शर्मा |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल और न्यायमूर्ति अमित शर्मा ने बटाला हाउस मुठभेड़ मामले में शामिल एक दोषी की मौत की सजा को कम/उम्र कैद में बदल दिया।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी राज्य बनाम आरिज़ खान के मामले में दी थी।
राज्य बनाम आरिज़ खान मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- 13 सितंबर 2008 को, कनॉट प्लेस, करोल बाग, ग्रेटर कैलाश और इंडिया गेट सहित दिल्ली के विभिन्न स्थानों पर विस्फोटक घटनाओं की एक श्रृंखला हुई थी।
- इन घटनाओं के परिणामस्वरूप 39 लोगों की दुखद रूप से जान चली गई थी, जबकि 159 व्यक्ति घायल हो गये थे।
- अलग-अलग पुलिस स्टेशनों में अलग-अलग प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गईं, जिनमें से प्रत्येक विशिष्ट विस्फोट स्थल से संबंधित थी।
- आरोप से पता चलता है कि "इंडियन मुजाहिद्दीन" के नाम से जाने जाने वाले समूह ने विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया आउटलेट्स को भेजे गये ईमेल के माध्यम से अपनी संलिप्तता बताकर इन बम विस्फोटों की जिम्मेदारी ली है।
- इन मामलों की जांच दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल को सौंपी गई थी।
- अपीलकर्ता कथित तौर पर मामले में हुई गोलीबारी में शामिल था और फरार होने में सफल रहा इसलिये उसे भगोड़ा अपराधी घोषित किया गया।
- हालांकि, दिल्ली पुलिस उसे गिरफ्तार करने में सफल रही।
- आईपीसी की धारा 302 के तहत किये गये अपराध के लिये उसे मौत की सजा सुनाई गई और 'जब तक वह मर नहीं जाता तब तक उसे गर्दन से लटकाए रखने' का निर्देश दिया गया।
- उसने दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 374 के तहत दोषसिद्धि के खिलाफ अपील दायर की।
न्यायालय की टिप्पणी क्या थी?
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि वर्तमान मामला दुर्लभतम मामलों की श्रेणी में नहीं आता है।
- मौत की सज़ा का लघुकरण क्या होता है?
बारे में:
- सीआरपीसी की धारा 433 न्यायालय द्वारा दी गई सजा को कम करने की शक्ति प्रदान करती है।
- यह शक्ति संबंधित सरकार के पास होती है, जो मामले के आधार पर राज्य सरकार या केंद्र सरकार हो सकती है।
कानूनी ढाँचा:
- सीआरपीसी की धारा 433 में कहा गया है कि, संबंधित सरकार, सजा पाए व्यक्ति की सहमति के बिना, सजा का लघुकरण कर सकती है:
- भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) द्वारा प्रदान की गई किसी भी अन्य सजा के लिये मौत की सजा;
- आजीवन कारावास की सजा, चौदह वर्ष से अधिक की अवधि के लिये कारावास या जुर्माना;
- किसी भी अवधि के लिये साधारण कारावास के रूप में कठोर कारावास की सजा, जिसके लिये उस व्यक्ति को सजा दी जा सकती थी, या जुर्माना;
- साधारण कारावास तथा जुर्माने की सजा।
सीआरपीसी की धारा 374 के तहत दोषसिद्धि के खिलाफ अपील क्या है?
बारे में:
- सीआरपीसी की धारा 374 उन मामलों में उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय और सत्र न्यायालय में अपील के प्रावधानों की रूपरेखा तैयार करती है जहाँ किसी व्यक्ति को निचली अदालत द्वारा दोषी ठहराया गया हो या बरी कर दिया गया हो।
- यह धारा किसी दोषी व्यक्ति को उपलब्ध अपील के अधिकार पर प्रकाश डालती है।
उपधारा 1:
- सीआरपीसी की धारा 374 की उप-धारा (1) में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को उच्च न्यायालय द्वारा अपने असाधारण आपराधिक क्षेत्राधिकार में अपराध के लिये दोषी ठहराया गया है, उसे उच्चतम न्यायालय में अपील करने का अधिकार है।
- यह प्रावधान निष्पक्ष और उचित निर्णय के सिद्धांत पर जोर देता है, यह सुनिश्चित करता है कि उच्च न्यायालय में दोषी ठहराए गये व्यक्तियों को उच्चतम न्यायालय द्वारा न्याय का अवसर मिले।
उपधारा 2:
- सीआरपीसी की धारा 374 की उपधारा (2) निर्दिष्ट करती है कि (2) कोई व्यक्ति जो सेशन न्यायाधीश या अपर सेशन न्यायाधीश द्वारा किये गये विचारण में या किसी अन्य न्यायालय द्वारा किये गये विचारण में दोषसिद्ध किया गया है, जिसमें सात वर्ष से अधिक के कारावास का दण्डादेश उसके विरुद्ध या उसी विचारण में दोषसिद्ध किये गये किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध दिया गया है उच्च न्यायालय में अपील कर सकता है।
- यह प्रावधान अपील सुनने की उच्च न्यायालय की शक्ति पर प्रकाश डालता है।
उपधारा 3:
- सीआरपीसी की धारा 374 की उपधारा (3) में कहा गया है कि (3) उपधारा (2) में जैसा उपबंधित है उसके सिवाय, कोई व्यक्ति–
(क) जो महानगर मजिस्ट्रेट या सहायक सेशन न्यायाधीश या प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट या द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा किये गये विचारण में दोषसिद्ध किया गया है, अथवा
(ख) जो धारा 325 के अधीन दण्डादिष्ट किया गया है, अथवा
(ग) जिसके बारे में किसी मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 360 के अधीन आदेश दिया गया है या दण्डादेश पारित किया गया है, - यह स्वीकार करती है कि ऐसे उदाहरण हो सकते हैं जहाँ बरी करना गलत निष्कर्षों या कानूनी गलत व्याख्याओं पर आधारित है और सत्र न्यायालय को ऐसे निर्णयों की समीक्षा करने की अनुमति देता है।
उपधारा 4:
- धारा 374(4) उस समय-सीमा का निर्धारण करती है जिसके भीतर अपील दायर की जानी चाहिये।
- बलात्कार से संबंधित मामलों की अपील का निपटारा ऐसी अपील दायर करने की तारीख से छह महीने की अवधि के भीतर किया जाएगा।