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सांविधानिक विधि
मध्यस्थता पंचाटों पर पृथक्करणीयता के सिद्धांत का लागू होना
« »26-Sep-2023
हिंदुस्तान स्टीलवर्क्स कंस्ट्रक्शन लिमिटेड बनाम न्यू ओखला औद्योगिक विकास प्राधिकरण "यह न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में है कि वह पंचाट के एक हिस्से को अलग कर दे, पृथक कर दे और शेष हिस्से को बरकरार रखे।" न्यायमूर्ति मनोज कुमार गुप्ता, न्यायमूर्ति विक्रम डी. चौहान |
स्रोतः इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति मनोज कुमार गुप्ता और न्यायमूर्ति विक्रम डी. चौहान की पीठ ने कहा कि पंचाट के एक हिस्से को पृथक करना, अलग करके देखना और शेष हिस्से को बरकरार रखना न्यायालय के अधिकार में है।
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हिंदुस्तान स्टीलवर्क्स कंस्ट्रक्शन लिमिटेड (HSCL) बनाम न्यू ओखला इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट अथॉरिटी (NOIDA) मामले में यह टिप्पणी दी ।
हिंदुस्तान स्टीलवर्क्स कंस्ट्रक्शन लिमिटेड (HSCL) बनाम नोएडा मामले की पृष्ठभूमि:
- हिंदुस्तान स्टीलवर्क्स कंस्ट्रक्शन लिमिटेड (HSCL) (अपीलकर्ता) नामक सरकारी उपक्रम ने नोएडा (प्रतिवादी) के साथ क्लोवर लीव्स और संबद्ध कार्य के साथ दो फ्लाईओवर के निर्माण के लिये 106.10 करोड़ रुपये में एक समझौता किया।
- भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) दिल्ली की एक रिपोर्ट में पाया गया कि एक परियोजना की लागत लगभग 60 करोड़ रूपये अधिक दिखाई गई। यह रिपोर्ट सामने आने के बाद परियोजना की प्रभारी संस्था हिंदुस्तान स्टीलवर्क्स कंस्ट्रक्शन लिमिटेड (HSCL) को सभी कार्य रोकने को कहा गया।
- कई बार इधर-उधर की बातचीत के बाद, हिंदुस्तान स्टीलवर्क्स कंस्ट्रक्शन लिमिटेड (HSCL) ने कार्य बंद होने के दौरान होने वाले नुकसान और बढ़ी हुई लागत के लिये मुआवज़े की मांग नहीं करने का फैसला किया।
- उन्होंने एक पूरक समझौता ज्ञापन किया जिसमें हिंदुस्तान स्टीलवर्क्स कंस्ट्रक्शन लिमिटेड अनुबंध निलंबित रहने की अवधि के दौरान अपने नुकसान और मूल्य वृद्धि के लिये अपना दावा छोड़ने पर सहमत हुआ।
- हिंदुस्तान स्टीलवर्क्स कंस्ट्रक्शन लिमिटेड ने मध्यस्थता के माध्यम से मामला सुलझाने का फैसला किया जिसमें मध्यस्थ ने हिंदुस्तान स्टीलवर्क्स कंस्ट्रक्शन लिमिटेड के पक्ष में फैसला सुनाया।
- इसके बाद, न्यू ओखला इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट अथॉरिटी (NOIDA) ने मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 (A & C Act) की धारा 34 के तहत वाणिज्यिक न्यायालय में दरवाजा खटखटाया। न्यायालय ने कहा कि 928 दिनों तक प्रोजेक्ट रुकने के कारण हिंदुस्तान स्टीलवर्क्स कंस्ट्रक्शन लिमिटेड ने जो नुकसान का दावा किया है, उस पर विचार नहीं किया जाना चाहिये।
- पूरक समझौता ज्ञापन की वैधता को बरकरार रखा गया। हिंदुस्तान स्टीलवर्क्स कंस्ट्रक्शन लिमिटेड की जबरदस्ती, दबाव, अनुचित प्रभाव और असमान सौदेबाजी की शक्ति की दलील खारिज कर दी गई।
- अपीलकर्ता ने वर्तमान अपील में तर्क दिया कि जबरदस्ती और दबाव से संबंधित प्रश्न मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 34 के तहत वाणिज्यिक न्यायालय की शक्ति से परे थे।
न्यायालय की टिप्पणियाँ:
- मध्यस्थ निर्णय पर पृथक्करणीयता के सिद्धांत को लागू करने की अनुमति देते हुए न्यायालय ने निम्नलिखित प्रतिबंध लगाए:
- शक्ति का प्रयोग करते समय, न्यायालय मध्यस्थ न्यायाधिकरण के निर्णायक निष्कर्षों को संशोधित नहीं कर सकता है और,
- शेष भाग अपने आप अस्तित्व में रहने में सक्षम है।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि, "अब यह सुस्थापित हो गया है कि यदि कोई पंचाट अलग-अलग और स्पष्ट रूप से कई दावों से संबंधित है और निर्णय लेता है, भले ही न्यायालय को पता चले कि कुछ मदों के संबंध में पंचाट खराब है, तो न्यायालय पंचाट को पृथक कर देगा।”
पृथक्करणीयता का सिद्धांत:
- पृथक्करण का सिद्धांत न्यायालयों को यह निर्धारित करने के लिये एक तंत्र प्रदान करता है कि क्या किसी कानून या संविधान के किसी विशेष प्रावधान या पूरे दस्तावेज़ को असंवैधानिक या शून्य बनाए बिना बाकी दस्तावेज़ से अलग किया जा सकता है ।
- पृथक्करणीयता का सिद्धांत इस विचार का प्रतीक है कि एक अमान्य या असंवैधानिक प्रावधान, अन्यथा वैध कानून या संविधान पर अध्यारोपित नहीं होना चाहिये, इस प्रकार यह न्यायिक अतिरेक के खिलाफ सुरक्षा के रूप में कार्य करता है और यह सुनिश्चित करता है कि कानूनी प्रणाली प्रभावी ढंग से कार्य करती रहे।
- इसकी उत्पत्ति भारत के संविधान के अनुच्छेद 13 से हुई है।
पृथक्करणीयता के सिद्धांत के ऐतिहासिक मामले:
- मार्बरी बनाम मैडिसन (1803):
- जबकि सीधे तौर पर यह पृथक्करणीयता से संबंधित नहीं है, मार्बरी बनाम मैडिसन ने न्यायिक समीक्षा के सिद्धांत की स्थापना की, जो कानूनों की संवैधानिकता निर्धारित करने के लिये न्यायालयों के अधिकार का आधार है।
- इस मामले ने पृथक्करणीयता से संबंधित भविष्य के निर्णयों के लिये आधार तैयार किया।
- ए. के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950):
- उच्चतम न्यायालय ने प्रिवेंशन डिटेंशन एक्ट, 1950 की धारा 14 को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि पूरे कानून को रद्द नहीं किया जा सकता है।
- आर. एम. डी. चमारबागवाला बनाम भारत संघ (1957):
- इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि यदि किसी कानून का कोई हिस्सा असंवैधानिक पाया जाता है, तो उस हिस्से को बाकी कानून से अलग किया जा सकता है, बशर्ते कि शेष हिस्सा स्वतंत्र रूप से कार्य कर सके।