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वाणिज्यिक विधि

मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 32(2)(C) के अधीन मध्यस्थ की शक्ति

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 24-May-2024

दानी वूलटेक्स कॉर्पोरेशन एवं अन्य बनाम शील  प्रॉपर्टीज़ प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य

“दावेदार द्वारा मध्यस्थता न्यायाधिकरण से सुनवाई की तिथि निर्धारित करने का अनुरोध करने में विफलता, स्वतः ही यह निष्कर्ष निकालने का आधार नहीं है कि कार्यवाही अनावश्यक हो गई है”।

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका एवं न्यायमूर्ति पंकज मित्तल

स्रोत: उच्चतम  न्यायलय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने माना कि यदि कोई पक्ष दावा दायर करने के उपरांत सुनवाई के लिये उपस्थित होने में विफल हो जाता है, तो मध्यस्थ यह नहीं कह सकता कि मध्यस्थ कार्यवाही जारी रखना अनावश्यक हो गया है।

दानी वूलटेक्स कॉर्पोरेशन एवं अन्य बनाम शील प्रॉपर्टीज़ प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • दानी वूलटेक्स (प्रथम अपीलकर्त्ता) एक साझेदारी फर्म थी तथा मुंबई में कुछ भूखंड इस फर्म के स्वामित्व में थे।
  • शील प्रॉपर्टीज़ (प्रथम प्रतिवादी) एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी थी जो रियल एस्टेट विकास में संलग्न थी। मैरिको इंडस्ट्रीज़ (दूसरा प्रतिवादी) भी उपभोक्ता वस्तुओं के व्यापार में एक लिमिटेड कंपनी है।
  • यह अनुमति दी गई थी कि पहले अपीलकर्त्ता की संपत्ति का एक भाग वर्ष 1993 में हुए समझौते के अंतर्गत शील प्रॉपर्टीज़ (शील) द्वारा विकसित किया जाएगा।
  • प्रथम अपीलकर्त्ता और मैरिको इंडस्ट्रीज़ (मैरिको) ने मेमोरेंडम ऑफ एसोसिएशन (MOU) निष्पादित किया जिसके द्वारा प्रथम अपीलकर्त्ता अपनी संपत्ति का एक और भाग मैरिको को बेचने के लिये सहमत हुआ।
  • MOU के अंतर्गत मैरिको को एक निश्चित मात्रा में FSI/TDR का लाभ दिया गया।
  • आपत्तियाँ आमंत्रित करने के लिये मैरिको द्वारा एक सार्वजनिक अधिसूचना जारी की गई थी। शील द्वारा एक आपत्ति प्रस्तुत की गई थी तथा कहा गया था कि प्रथम अपीलकर्त्ता और मैरिको के बीच कोई भी लेन-देन पूर्व में किये गए समझौते के अधीन होगा।
  • इस विवाद के कारण कथित सहमति शर्तों द्वारा संशोधित MOU के विशिष्ट प्रदर्शन के लिये शील द्वारा एक वाद दायर किया गया था।
  • प्रथम अपीलकर्त्ता और मैरिको, दोनों ही इस वाद में पक्षकार थे।
  • पहले अपीलकर्त्ता के विरुद्ध मैरिको द्वारा एक और वाद दायर किया गया था तथा शील को भी इस वाद में प्रतिवादी पक्ष बनाया गया था।
  • प्रथम अपीलकर्त्ता और शील के बीच विवाद के कारण शील को वाद दायर करना पड़ा
  • मैरिको द्वारा दायर वाद में एकमात्र मध्यस्थ की नियुक्ति के लिये 13 अक्टूबर 2011 को आदेश पारित किया गया था।
  • उसी एकमात्र मध्यस्थ के साथ विवाद का हवाला देकर एक वाद का (शील द्वारा दायर) निपटारा किया गया ।
  • अब मध्यस्थ न्यायाधिकरण को पहले अपीलकर्त्ता के विरुद्ध शील तथा मैरिको दोनों द्वारा दायर दावों से निपटना था।
  • मध्यस्थता कार्यवाही में मैरिको के दावों को सुना गया तथा पंचाट के साथ निपटान किया गया परंतु शील द्वारा दायर दावा आगे नहीं बढ़ा।
  • प्रथम अपीलकर्त्ता द्वारा मध्यस्थ न्यायाधिकरण को संपर्क किया गया तथा शील द्वारा दायर दावों को इस आधार पर खारिज करने का अनुरोध किया गया था कि कंपनी ने दावा छोड़ दिया था।
  • उसके बाद पहले अपीलकर्त्ता द्वारा मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A&C अधिनियम) की धारा 32 (2) (C) के तहत मध्यस्थ न्यायाधिकरण की शक्ति का उपयोग करते हुए एक आवेदन दायर किया गया था।
  • पहले अपीलकर्त्ता का तर्क यह था कि आठ वर्ष तक कोई भी कार्यवाही नहीं करने का शील का आचरण दर्शाता है कि उक्त कंपनी ने मध्यस्थ कार्यवाही को त्याग दिया।
  • शील द्वारा एक शपथ-पत्र दायर किया गया था और तर्क दिया गया था कि A&C अधिनियम की धारा 32 (2)(C) के तहत कार्रवाई करने का कोई आधार नहीं बनाया गया था। शील ने अन्य तथ्यात्मक तर्क भी दिये तथा कार्यवाही के परित्याग के आरोप से इनकार किया।
  • मध्यस्थ न्यायाधिकरण ने एक आदेश पारित किया और A&C अधिनियम की धारा 32(2)(c)) के अंतर्गत शक्ति का प्रयोग करते हुए मध्यस्थ कार्यवाही को समाप्त कर दिया।
  • उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक अपील दायर की गई थी और मुद्दा A&C अधिनियम की धारा 32(2)(c) के अंतर्गत मध्यस्थ कार्यवाही को समाप्त करने के आदेश की वैधता तथा वैधता से संबंधित था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने माना कि A&C अधिनियम की धारा 32(2)(C) के अंतर्गत शक्ति का प्रयोग केवल तभी किया जा सकता है, जब किसी कारण से कार्यवाही जारी रखना अनावश्यक या असंभव हो गया हो।
  • जब तक मध्यस्थ न्यायाधिकरण अभिलेखित सामग्री के आधार पर संतुष्ट नहीं हो जाता कि कार्यवाही अनावश्यक अथवा असंभव हो गई है, धारा 32(2)(C) के अंतर्गत शक्ति का प्रयोग नहीं किया जा सकता है। यदि उक्त शक्ति का प्रयोग लापरवाही से किया जाता है, तो यह A&C अधिनियम को लागू करने के मूल उद्देश्य को विफल कर देगा।
  • दावेदार द्वारा अपने दावे का परित्याग यह कहने का आधार हो सकता है कि मध्यस्थता की कार्यवाही अनावश्यक हो गई है। हालाँकि, परित्याग स्थापित किया जाना चाहिये। परित्याग या तो व्यक्त या निहित हो सकता है। परित्याग का तत्काल अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि केवल इसलिये कि एक दावेदार, अपने दावे का कथन दाखिल करने के बाद, सुनवाई की तिथि निर्धारित करने के लिये मध्यस्थ न्यायाधिकरण में नहीं जाता है, तो यह नहीं कहा जा सकता है कि दावेदार ने अपना दावा छोड़ दिया है।
  • न्यायालय ने कहा कि केवल इसलिये कि एक दावेदार, अपने दावे का कथन दाखिल करने के बाद, सुनवाई की तिथि निर्धारित करने के लिये मध्यस्थ न्यायाधिकरण में नहीं जाता है, तो दावेदार की यह विफलता, दावे को छोड़ने के समान नहीं होगी।

दावे का कथन क्या है?

  • दावे का कथन वह दस्तावेज़ है जिस पर विधिक दावा आधारित है।
  • यह उन दावों और उपचारों की सरल तथा स्पष्ट व्याख्या प्रदान करता है जिन्हें आप न्यायालय से मांग रहे हैं।
  • एक वाद को आधिकारिक रूप से प्रारंभ करने के लिये, दावे का कथन दायर किया जाता है।
  • यह वाद में कार्यवाही के लिये रूपरेखा निर्धारित करता है।
  • दावे के कथन में पक्ष का नाम तथा उनकी भूमिकाएँ, न्यायालय की सूचना, राहत, क्षति, दायित्व आदि शामिल होने चाहिये।

इस मामले में क्या विधिक प्रावधान शामिल है?

A&C अधिनियम की धारा 32(2)(c): कार्यवाही की समाप्ति—

(1) मध्यस्थता कार्यवाही, अंतिम मध्यस्थ पंचाट अथवा उपधारा (2) के अंतर्गत मध्यस्थ न्यायाधिकरण के आदेश द्वारा समाप्त की जाएगी।

(2) मध्यस्थ न्यायाधिकरण मध्यस्थ कार्यवाही को समाप्त करने के लिये एक आदेश जारी करेगा, जहाँ-

(c) मध्यस्थ न्यायाधिकरण ने पाया कि कार्यवाही जारी रखना किसी अन्य कारण से अनावश्यक अथवा असंभव हो गया है।