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आपराधिक कानून

विचाराधीन कैदियों के लिये ज़मानत

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 08-Jul-2024

जावेद गुलाम शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य

“समय के साथ, ट्रायल कोर्ट और उच्च न्यायालय विधि के एक बहुत ही स्थापित सिद्धांत को भूल गए हैं कि दण्ड के तौर पर ज़मानत नहीं रोकी जानी चाहिये”।

न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां और न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला की पीठ ने कहा कि अभियुक्त को शीघ्र सुनवाई का अधिकार है तथा दण्ड के तौर पर उसकी ज़मानत नहीं रोकी जा सकती।

  • उच्चतम न्यायालय ने जावेद गुलाम शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य मामले में यह निर्णय दिया।

जावेद गुलाम नबी शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • इस मामले में अपीलकर्त्ता को मुंबई पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और उसके पास से 2000 रुपए मूल्यवर्ग के जाली नोट बरामद हुए।
  • अपीलकर्त्ता के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 489B, 489C, 120B सहपठित धारा 34 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी।
  • अंततः जाँच का कार्य राष्ट्रीय जाँच एजेंसी को सौंप दिया गया।
  • यह अपील बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश से उत्पन्न हुई है, जिसमें अविधिक गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, 1967 (UAPA) के प्रावधानों के अधीन अभियोजन के संबंध में अपीलकर्त्ता को ज़मानत पर रिहा करने से प्रतिषेध कर दिया गया था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने निम्नलिखित तीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपीलकर्त्ता को ज़मानत प्रदान की:
    • अपीलकर्त्ता पिछले चार वर्षों से विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में है।
    • ट्रायल कोर्ट आज तक आरोप तय नहीं कर सका है।
    • अभियोजन पक्ष कम-से-कम अस्सी साक्षियों से पूछताछ करना चाहता है।
  • न्यायालय ने कहा कि संविधान के अंतर्गत अभियुक्त को शीघ्र सुनवाई का अधिकार है।
  • यह विधि का एक सुस्थापित सिद्धांत है कि दण्ड के तौर पर ज़मानत नहीं रोकी जा सकती।
  • न्यायालय ने कहा कि यदि राज्य शीघ्र सुनवाई (जो कि भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 के अधीन एक मौलिक अधिकार है) प्रदान नहीं कर सकता है, तो राज्य को इस आधार पर ज़मानत की याचिका का विरोध नहीं करना चाहिये कि किया गया अपराध गंभीर है।
  • इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने कहा कि शीघ्र सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन किया जा सकता है, जिससे संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होता है।

ज़मानत क्या है?

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) के अंतर्गत ज़मानत शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है।
  • संहिता की धारा 2(a) के अंतर्गत केवल ज़मानती अपराध’ और ‘गैर-ज़मानती अपराध’ शब्दों को परिभाषित किया गया है।

ज़मानत के विभिन्न प्रकार क्या हैं?

  • नियमित ज़मानत: न्यायालय, गिरफ्तार व्यक्ति को ज़मानत राशि के रूप में भुगतान करने के बाद पुलिस अभिरक्षा से रिहा करने का आदेश देता है। कोई भी आरोपी CrPC की धारा 437 और 439 (BNSS की धारा 480 और धारा 483) के अंतर्गत नियमित ज़मानत के लिये आवेदन कर सकता है।
  • अंतरिम ज़मानत: यह न्यायालय द्वारा अभियुक्त को अस्थायी और अल्पकालिक ज़मानत प्रदान करने का प्रत्यक्ष आदेश है, जब तक कि उसकी नियमित या अग्रिम ज़मानत याचिका न्यायालय के समक्ष लंबित है।
  • अग्रिम ज़मानत: किसी गैर-ज़मानती अपराध के लिये गिरफ्तारी की आशंका वाले व्यक्ति CrPC की धारा 438 (BNSS की धारा 482) के अधीन उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय में अग्रिम ज़मानत के लिये आवेदन कर सकते हैं।

BNSS की धारा 479 के अधीन विचाराधीन कैदी को अधिकतम कितनी अवधि के लिये अभिरक्षा में रखा जा सकता है?

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 479 (1) में प्रावधान है कि जहाँ किसी व्यक्ति ने किसी विधि के अधीन अपराध (ऐसा अपराध नहीं है जिसके लिये उस विधि के अधीन मृत्यु या आजीवन कारावास का दण्ड निर्दिष्ट किया गया है) की इस संहिता के अधीन जाँच, पूछताछ या परीक्षण की अवधि के दौरान उस विधि के अधीन उस अपराध के लिये निर्दिष्ट कारावास की अधिकतम अवधि के आधे तक की अवधि के लिये अभिरक्षा में रखा है, तो उसे न्यायालय द्वारा ज़मानत पर रिहा कर दिया जाएगा:
    • परंतु जहाँ ऐसा व्यक्ति प्रथम बार अपराधी है (जिसे पूर्व में कभी किसी अपराध के लिये दोषसिद्ध नहीं किया गया है) उसे न्यायालय द्वारा बॉण्ड पर रिहा कर दिया जाएगा, यदि वह उस विधि के अधीन ऐसे अपराध के लिये निर्दिष्ट कारावास की अधिकतम अवधि के एक-तिहाई तक की अवधि के लिये निरुद्ध रह चुका है;
    • आगे यह भी प्रावधान है कि न्यायालय, लोक अभियोजक को सुनने के पश्चात् तथा उसके द्वारा लिखित में अभिलिखित किये जाने वाले कारणों से, ऐसे व्यक्ति को उक्त अवधि के आधे से अधिक अवधि के लिये निरंतर अभिरक्षा में रखने का आदेश दे सकता है या उसे उसके बॉण्ड  के स्थान पर ज़मानत बॉण्ड पर रिहा कर सकता है।
    • यह भी प्रावधान है कि किसी भी मामले में ऐसे व्यक्ति को अन्वेषण, जाँच या विचारण की अवधि के दौरान उस विधि के अधीन उक्त अपराध के लिये उपबंधित कारावास की अधिकतम अवधि से अधिक के लिये निरुद्ध नहीं किया जाएगा।
    • स्पष्टीकरण- ज़मानत स्वीकार करने के लिये इस धारा के अधीन निरुद्धि की अवधि की गणना करते समय, अभियुक्त द्वारा कार्यवाही में किये गए विलंब के कारण बिताई गई निरुद्धि की अवधि को अपवर्जित कर दिया जाएगा।
  • खंड (2) में यह प्रावधान है कि: उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी, और उसके तीसरे परंतुक के अधीन रहते हुए, जहाँ किसी व्यक्ति के विरुद्ध एक से अधिक अपराधों या अनेक मामलों में जाँच, पूछताछ या विचारण लंबित है, उसे न्यायालय द्वारा ज़मानत पर रिहा नहीं किया जाएगा।
  • खंड (3) में यह प्रावधान है कि जहाँ अभियुक्त व्यक्ति निरुद्ध है, वहाँ का जेल अधीक्षक, उपधारा (1) में उल्लिखित अवधि का आधा या एक तिहाई पूरा हो जाने पर, जैसा भी मामला हो, ऐसे व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा करने के लिये उपधारा (1) के अंतर्गत कार्यवाही करने के लिये न्यायालय को लिखित में आवेदन करेगा।

BNSS की धारा 479 और CrPC धारा 436A के बीच तुलना:

  • दोनों प्रावधानों के बीच तुलना इस प्रकार है:

CrPC की धारा  436A

BNSS की धारा 479

(1) जहाँ किसी व्यक्ति ने किसी विधि के अधीन अपराध के लिये इस संहिता के अधीन जाँच, पूछताछ या विचारण की अवधि के दौरान (ऐसा अपराध नहीं है जिसके लिये उस विधि के अधीन दण्डों में से एक के रूप में मृत्युदण्ड  निर्दिष्ट किया गया है) उस विधि के अधीन उस अपराध के लिये निर्दिष्ट कारावास की अधिकतम अवधि के आधे तक की अवधि के लिये अभिरक्षा में रखा है, उसे न्यायालय द्वारा उसके निजी बॉण्ड पर ज़मानत के साथ या उसके बिना रिहा कर दिया जाएगा।

बशर्ते कि न्यायालय, लोक अभियोजक को सुनने के पश्चात् तथा उसके द्वारा लिखित में अभिलिखित किये जाने वाले कारणों से, ऐसे व्यक्ति को उक्त अवधि के आधे से अधिक अवधि के लिये निरंतर अभिरक्षा में रखने का आदेश दे सकता है या उसे ज़मानत सहित या रहित व्यक्तिगत मुचलके के स्थान पर ज़मानत पर रिहा कर सकता है।

आगे यह भी प्रावधान है कि किसी भी मामले में ऐसे व्यक्ति को अन्वेषण, जाँच या विचारण की अवधि के दौरान उस विधि के अधीन उक्त अपराध के लिये उपबंधित कारावास की अधिकतम अवधि से अधिक के लिये निरुद्ध नहीं किया जाएगा।

स्पष्टीकरण- ज़मानत स्वीकार करने के लिये इस धारा के अधीन निरुद्धि  की अवधि की गणना करते समय, अभियुक्त द्वारा कार्यवाही में किये गए विलंब के कारण बिताई गई निरुद्धि की अवधि को अपवर्जित कर दिया जाएगा।

(1) जहाँ किसी व्यक्ति ने किसी विधि के अधीन अपराध के लिये इस संहिता के अधीन जाँच, पूछताछ या परीक्षण की अवधि के दौरान (ऐसा अपराध नहीं है जिसके लिये उस विधि के अधीन दण्ड के रूप में मृत्यु या आजीवन कारावास का दण्ड निर्दिष्ट किया गया है) उस विधि के अधीन उस अपराध के लिये निर्दिष्ट कारावास की अधिकतम अवधि के आधे तक की अवधि के लिये अभिरक्षा में रखा है, तो उसे न्यायालय द्वारा ज़मानत पर रिहा कर दिया जाएगा।

 

बशर्ते कि जहाँ ऐसा व्यक्ति प्रथम बार अपराधी है (जिसे पहले कभी किसी अपराध के लिये दोषी नहीं ठहराया गया है) उसे न्यायालय द्वारा बॉण्ड पर रिहा कर दिया जाएगा, यदि वह उस विधि के अधीन ऐसे अपराध के लिये निर्दिष्ट कारावास की अधिकतम अवधि के एक-तिहाई तक की अवधि के लिये अभिरक्षा में रहा है।

आगे यह भी प्रावधान है कि न्यायालय, लोक अभियोजक को सुनने के पश्चात् तथा उसके द्वारा लिखित में अभिलिखित किये जाने वाले कारणों से, ऐसे व्यक्ति को उक्त अवधि के आधे से अधिक अवधि के लिये निरंतर अभिरक्षा में रखने का आदेश दे सकता है या उसे उसके व्यक्तिगत बॉण्ड   के स्थान पर ज़मानत बॉण्ड पर रिहा कर सकता है।

यह भी प्रावधान है कि किसी भी मामले में ऐसे व्यक्ति को अन्वेषण, जाँच या विचारण की अवधि के दौरान उस विधि के अधीन उक्त अपराध के लिये उपबंधित कारावास की अधिकतम अवधि से अधिक के लिये निरुद्ध नहीं किया जाएगा।

स्पष्टीकरण- ज़मानत स्वीकार करने के लिये इस धारा के अधीन निरुद्धि की अवधि की गणना करते समय, अभियुक्त द्वारा कार्यवाही में किये गए विलंब के कारण बिताई गई निरुद्धि की अवधि को अपवर्जित कर दिया जाएगा।

(2) उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी, और उसके तीसरे परंतुक के अधीन रहते हुए, जहाँ किसी व्यक्ति के विरुद्ध एक से अधिक अपराधों या अनेक मामलों में अन्वेषण, जाँच या विचारण लंबित है, वहाँ उसे न्यायालय द्वारा ज़मानत पर रिहा नहीं किया जाएगा।

(3) उस जेल का अधीक्षक, जहाँ अभियुक्त व्यक्ति निरुद्ध है, उपधारा (1) में उल्लिखित अवधि का आधा या एक तिहाई पूरा हो जाने पर, ऐसे व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा करने के लिये उपधारा (1) के अधीन कार्यवाही करने के लिये न्यायालय को लिखित में आवेदन करेगा।

 BNSS की धारा 479 द्वारा प्रस्तुत नई विशेषताएँ क्या हैं?

  • BNSS की धारा 479 द्वारा प्रस्तुत नई विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
    • पहली बार अपराध करने वाले व्यक्तियों को रिहा करने का प्रावधान है, यदि उन्होंने ऐसे अपराध के लिये निर्दिष्ट कारावास की अधिकतम अवधि के एक तिहाई तक की अवधि तक अभिरक्षा में रखा हो।
    • उपधारा 2 के माध्यम से एक नया प्रावधान यह जोड़ा गया है कि यदि किसी विचाराधीन कैदी के विरुद्ध एक से अधिक अपराधों या अनेक मामलों में जाँच, पूछताछ या वाद लंबित है तो उसे ज़मानत पर रिहा नहीं किया जाएगा।
    • इसके अतिरिक्त, उप-धारा 3 जोड़ी गई है, जिसमें प्रावधान है कि जेल अधीक्षक की रिपोर्ट पर ज़मानत दी जा सकती है।

इस मामले में कौन-सी ऐतिहासिक निर्णयज विधियाँ उद्धृत की गईं हैं?

  • गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य (1980):
    • यह अग्रिम ज़मानत का ऐतिहासिक मामला है।
    • इस मामले में न्यायालय ने माना कि ज़मानत का उद्देश्य अभियुक्त की वाद में उपस्थिति सुनिश्चित करना है।
    • यह निर्धारित करते समय कि ज़मानत दी जानी चाहिये या नहीं, उचित परीक्षण यह है कि क्या यह संभावना है कि पक्षकार अपना वाद चलाने के लिये उपस्थित होगा।
  • हुसैनारा खातून बनाम गृह सचिव बिहार राज्य (1980):
    • इस मामले में न्यायालय ने घोषणा की कि आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे अपराधियों के शीघ्र सुनवाई का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 की व्यापकता और विषय-वस्तु में अंतर्निहित है।
  • अब्दुल रहमान अंतुले बनाम आर. एस. नायक (1992):
    • राज्य या शिकायतकर्त्ता का यह दायित्व है कि वे मामले को उचित तत्परता के साथ आगे बढ़ाएँ।
    • किसी मामले में जहाँ अभियुक्त शीघ्र सुनवाई की मांग करता है और उसे शीघ्र सुनवाई नहीं दी जाती है, तो यह उसके पक्ष में एक प्रासंगिक कारक हो सकता है।
  • सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम केंद्रीय जाँच ब्यूरो (2022):
    • न्यायालय ने कहा कि CrPC की धारा 436 A में निहित प्रावधान किसी विशिष्ट प्रावधान के अभाव में विशेष अधिनियमों पर भी लागू होंगे।
    • न्यायालय ने यह भी कहा कि न्यायालयों, प्राधिकारियों और पुलिस अधिकारियों से कुछ ज़िम्मेदारी तथा उत्तरदायित्व की अपेक्षा की जाती है, ताकि वे निर्दोषता की धारणा का पालन करें, जिसका तात्पर्य यह है कि दोषी सिद्ध होने तक किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने से कोई उद्देश्य पूर्ण नहीं होता है।