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सिविल कानून

बेनामी लेन-देन (निषेध), अधिनियम

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 23-May-2024

सी. सुब्बैया उर्फ़ कदंबुर जयराज एवं अन्य बनाम पुलिस अधीक्षक एवं अन्य

पूरी तरह से उथले FIR के कारण आरोपी या अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध आपराधिक अभियोजन किया गया, जो विधि की प्रक्रिया के दुरुपयोग के समान है।

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं न्यायमूर्ति संदीप मेहता

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि कोई भी व्यक्ति बेनामी संपत्ति के संबंध में किसी भी अधिकार के आधार पर उस व्यक्ति के विरुद्ध, जिसके नाम पर संपत्ति है या किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध बचाव नहीं कर सकता है।

सी. सुब्बैया उर्फ कदंबुर जयराज एवं अन्य बनाम पुलिस अधीक्षक एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • शिकायतकर्त्ता को वर्ष 2007 में एक सरकारी शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था। इस नौकरी से पहले वह पिछले 16 वर्षों से रियल एस्टेट का कारोबार कर रहा था।
  • शिकायतकर्त्ता सुब्बैया एवं उसकी पत्नी के संपर्क में आया। सुब्बैया के माध्यम से उसकी मुलाकात चंद्रशेखर, उसके बेटे, पत्नी और भाई (आरोपी) से हुई। ये सभी रियल एस्टेट कारोबार से जुड़े थे।
  • उन्होंने शिकायतकर्त्ता को अपने रियल एस्टेट व्यवसाय में सम्मिलित होने के लिये विवश किया, क्योंकि उनके मज़बूत राजनीतिक संबंध थे।
  • उन्होंने शिकायतकर्त्ता से लेन-देन के प्रारंभ में ही प्रवंचना करने के आशय से भूमि का क्रय-विक्रय (सौदे) करने का आग्रह किया।
  • साथ ही शिकायतकर्त्ता को इस वचन पर ज़मीन में निवेश करने के लिये प्रभावित किया कि उनके मज़बूत राजनीतिक संबंध हैं, जो उन्हें लाभ कमाने में सहायता करेंगे।
  • शिकायतकर्त्ता ने आरोप लगाया कि आरोपी (अपीलकर्त्ता) उसके भाग का भुगतान करने में विफल रहे।
  • शिकायतकर्त्ता ने थाने में शिकायत दर्ज कराई, लेकिन कोई कार्यवाही नहीं हुई।
  • उन्होंने मद्रास उच्च न्यायालय में अपील किया तथा उच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि वह ज़िला पुलिस अधीक्षक को एक नई शिकायत प्रस्तुत करें। पुनः कोई प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज नहीं की गई।
  • फिर शिकायतकर्त्ता ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 156(3) के अधीन इसे पुलिस को अग्रेषित करने की प्रार्थना के साथ क्षेत्राधिकारी मजिस्ट्रेट के न्यायालय में शिकायत दर्ज की।
  • न्यायालय के निर्देश के बाद प्राथमिकी दर्ज की गई तथा आरोप-पत्र समर्पित किया गया।
  • शिकायतकर्त्ता ने इन्हीं आरोपों के लिये एक सिविल वाद भी दायर किया था, जो ज़िला न्यायाधीश के समक्ष लंबित था।
  • अभियुक्तों (अपीलकर्त्ताओं) ने FIR एवं आरोप-पत्र के प्रत्युत्तर में उच्च न्यायालय में अपील दायर की तथा उच्च न्यायालय ने याचिका खारिज कर दी।
  • इसके बाद उन्होंने उच्चतम न्यायालय के समक्ष विशेष अनुमति द्वारा अपील दायर की।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • उच्चतम न्यायालय (SC) ने कथित लेन-देन के समय लागू बेनामी लेन-देन (निषेध), अधिनियम 1988 (बेनामी अधिनियम) की धारा 2 (a), धारा 2 (c) एवं धारा 4 का उल्लेख किया है।
  • उच्चतम न्यायालय ने पाया कि शिकायतकर्त्ता ने भूमि सौदों में निवेश करने के बावजूद, जो स्पष्ट रूप से बेनामी लेन-देन थे, उन व्यक्तियों के विरुद्ध वसूली के लिये कोई नागरिक कार्यवाही शुरू नहीं की, जिनके नाम पर संपत्तियाँ थीं, जो इस मामले में आरोपी या अपीलकर्त्ता होंगे।
  • चूँकि बेनामी अधिनियम की धारा 4(1) एवं 4(2) में निहित प्रावधानों के आधार पर, शिकायतकर्त्ता को इन बेनामी लेन-देन के संबंध में सिविल दोष के लिये आरोपी पर वाद लाने से प्रतिबंधित किया गया है, परिणामस्वरूप, आपराधिक अभियोजन चलाने की अनुमति मिलती है क्योंकि स्वयं के संबंध में अभियुक्त पर कार्यवाही का कारण विधि में अस्वीकार्य होगा।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि एक विवाद जो पूरी तरह से सिविल प्रकृति का है, उसे आपराधिक विधि के प्रावधानों का दुरुपयोग करके प्रवंचना एवं आपराधिक विश्वास-भंग का आरोप लगाते हुए आपराधिक अभियोजन का रंग दिया गया है।
  • उच्चतम न्यायालय ने पुनः कहा कि बेनामी अधिनियम की धारा 4 में निहित स्पष्ट रोक के कारण, शिकायतकर्त्ता, आरोपी और अपीलकर्त्ताओं पर उन्हीं तथ्यों एवं आरोपों के लिये अभियोजित नहीं कर सकता था, जिन्हें आपराधिक कार्यवाही का आधार बनाया गया है।

बेनामी लेन-देन (निषेध), अधिनियम 1988 क्या है?

  • बेनामी संपत्ति:
    • 'बेनामी' शब्द उर्दू से लिया गया है जिसका अर्थ है 'कोई नाम नहीं' या 'बिना नाम' के
    • बेनामी संपत्ति में कोई भी चल या अचल, मूर्त या अमूर्त एवं अधिकार या संपत्ति में स्वामित्व या हित का साक्ष्य देने वाला कोई दस्तावेज़ शामिल है।
  • बेनामी लेन-देन:
    • बेनामी लेन-देन में संपत्ति, एक व्यक्ति को अंतरित की जाती है, लेकिन प्रतिफल किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रदान या भुगतान किया जाता है।
    • यह एक ऐसी प्रणाली है, जहाँ वास्तविक स्वामियों के अतिरिक्त अन्य नामों पर संपत्ति का स्वामित्व होना या अर्जित करना संभव है।
  • ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
    • बेनामी संपत्ति से संबंधित लेन-देन को पहली बार वर्ष 1778 में न्यायपालिका द्वारा मान्यता दी गई थी।
    • गोपीक्रिस्ट गोसाईं बनाम गंगा परसाद गोसाईं (1854) के मामले में प्रिवी काउंसिल ने पाया कि बेनामी लेन-देन को न्यायिक मान्यता की आवश्यकता है।
    • चूँकि बेनामी लेन-देन के संबंध में कोई विशेष प्रावधान नहीं था, इसलिये इसे विधायी मान्यता प्राप्त थी: न्यास अधिनियम, 1882 की धारा 82, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 66 और संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 (TPA) की धारा 53
    • वर्ष 1972 में सरकार द्वारा विधि आयोग को एक संदर्भ दिया गया था। आयोग ने अपनी 57वीं रिपोर्ट में अनुशंसा की कि बेनामी लेन-देन को अपराध घोषित किया जाना चाहिये।
    • आयोग की अनुशंसा पर, विधानमंडल ने वर्ष 1988 में बेनामी लेन-देन (संपत्ति पुनर्प्राप्त करने के अधिकार का निषेध) अध्यादेश, 1988 अधिनियमित किया।
    • उसके बाद, आयोग ने एक नई संविधि बनाने की अनुशंसा की तथा विधि आयोग की 130वीं रिपोर्ट के आधार पर बेनामी लेन-देन (निषेध) अधिनियम, 1988 बनाया गया।
    • बेनामी लेन-देन (निषेध) संशोधन अधिनियम, 2016 के माध्यम से एक बड़ा बदलाव किया गया था।
      • यह अधिनियम 1 नवंबर 2016 को लागू हुआ।
      • यह अधिनियम 9 धाराओं से बढ़कर 72 धाराओं तक विस्तारित हो गया।
      • यह बेनामी लेन-देन के विभिन्न पहलुओं को परिभाषित करता है तथा नए अपराधों एवं उनके दण्डों का प्रावधान करता है।
      • संशोधित विधि अधिहरण (ज़ब्ती की प्रक्रिया) प्रदान करता है।

इस मामले में क्या विधिक प्रावधान शामिल है?

बेनामी अधिनियम की धारा 2 (a): परिभाषा

बेनामी लेन-देन का अर्थ है, कोई भी लेन-देन, जिसमें संपत्ति किसी अन्य व्यक्ति द्वारा भुगतान या प्रदान किये गए प्रतिफल के द्वारा एक व्यक्ति को अंतरित की जाती है।

बेनामी अधिनियम की धारा 2 (c): परिभाषा

संपत्ति का अर्थ है किसी भी प्रकार की संपत्ति, चाहे वह चल या अचल, मूर्त या अमूर्त हो तथा ऐसी संपत्ति में कोई भी अधिकार या हित निहित है।

बेनामी अधिनियम की धारा 4: बेनामी रखी गई संपत्ति को पुनर्प्राप्त करने के अधिकार का निषेध-

(1) बेनामी रखी गई किसी भी संपत्ति के संबंध में किसी भी अधिकार को लागू करने के लिये उस व्यक्ति के विरुद्ध, जिसके नाम पर संपत्ति है या किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध कोई वाद, दावा या कार्यवाही ऐसी संपत्ति के वास्तविक स्वामी होने का दावा करने वाले व्यक्ति द्वारा या उसकी ओर से नहीं की जाएगी।

(2) बेनामी रखी गई किसी भी संपत्ति के संबंध में किसी भी अधिकार पर आधारित कोई भी बचाव, चाहे वह उस व्यक्ति के विरुद्ध हो, जिसके नाम पर संपत्ति है, या किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध, किसी भी वाद, दावे या कार्यवाही में या उसकी ओर से जो ऐसी संपत्ति का वास्तविक स्वामी होने का दावा करता हो, को भी अनुमति नहीं दी जाएगी।

(3) इस धारा में कुछ भी लागू नहीं होगा–

(a) जहाँ, जिस व्यक्ति के नाम पर संपत्ति है, वह हिंदू अविभाजित परिवार में सहदायिक है तथा संपत्ति परिवार में सहदायिकों के लाभ के लिये रखी गई है, या

(b) जहाँ, जिस व्यक्ति के नाम पर संपत्ति है वह न्यासी है या परस्पर संबंध वाला कोई अन्य व्यक्ति है, तथा संपत्ति किसी अन्य व्यक्ति के लाभ के लिये रखी गई है, जिसके लिये वह न्यासी है या जिसके प्रति वह ऐसे परस्पर संबंध में प्रस्तुत है।