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दंड विधि

हत्या के मामलों में सिद्ध की जाने वाली परिस्थितियाँ

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 10-Nov-2023

हरिप्रसाद @किशन साहू बनाम छत्तीसगढ़ राज्य

दो दशक पुराने एक मामले में आरोपी व्यक्ति के आरोपों को, जो संदिग्ध शराब विषाक्तता के कारण एक व्यक्ति की मृत्यु कारण था, अभियोजन साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया गया।

उच्चतम न्यायालय

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय ने संदिग्ध शराब विषाक्तता के परिणामस्वरूप एक व्यक्ति की मौत से संबंधित दो दशक पुराने एक मामले में आरोपी व्यक्ति के आरोपों को खत्म कर दिया।

  • यह हरिप्रसाद @ किशन साहू बनाम छत्तीसगढ़ राज्य का मामला है।

हरिप्रसाद @किशन साहू बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले की पृष्ठभूमि:

  • बिसाहू सिंह (मृतक) जुलाई 2003 में एक शाम जंगल में लकड़ी इकट्ठा करने गया था।
    • अगली सुबह वह अर्धबेहोशी की हालत में पाया गया।
  • मृतक ने दावा किया कि हरिप्रसाद (अपीलकर्त्ता-अभियुक्त) ने उसे शराब पीने के लिये मजबूर किया और अस्पष्ट तरीके से मिश्रण में जड़ी-बूटियाँ मिला दीं।
  • उनके गिरते स्वास्थ्य को देखते हुए उनकी पत्नी उन्हें अस्पताल ले गईं जहाँ 2003 में इलाज के दौरान उनकी मृत्यु हो गई।
  • रासायनिक परीक्षक की रिपोर्ट आने के बाद नवंबर 2004 में इस संबंध में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज़ की गई थी।
  • ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ता को दोषी ठहराया, और निर्णय को उच्च न्यायालय ने बरकरार रखा।
  • इसलिये, उच्चतम न्यायालय में अपील की गई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ:

  • न्यायालय ने कहा कि देरी रासायनिक परीक्षक के कारण हुई, जिसे मृतक के विसरा की रासायनिक जाँच की रिपोर्ट प्रस्तुत करने में 1 वर्ष लग गया।
  • न्यायालय ने इस ऐतिहासिक मामले पर भी गौर किया:
    • शरद बिरदी चंद सारदा बनाम महाराष्ट्र राज्य (1984), उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जहर से हत्या के मामलों में जिन तत्वों को प्रदर्शित किया जाना है, उन्हें स्थापित करने की आवश्यकता पर जोर देना महत्त्वपूर्ण है:
    • एक अलग मकसद।
    • मृत्यु का कारण जहर होने की पुष्टि करना।
    • अभियुक्त के पास ज़हर रखने का प्रदर्शन करना।
    • पदार्थ को प्रशासित करने के अवसर की पुष्टि करना।
  • इसके अलावा, न्यायालय ने कहा कि ट्रायल कोर्ट और उच्च न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 313 के तहत आरोपी को उसकी जाँच के दौरान रासायनिक जाँच रिपोर्ट प्रदान करने में उपेक्षा की, जिससे अदालत ने दोषसिद्धि के फेसले को पलट दिया।

इसमें शामिल कानूनी प्रावधान:

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973

सीआरपीसी की धारा 313 — अभियुक्त की परीक्षा करने की शक्ति —

(1) प्रत्येक जाँच या विचारण में, इस प्रयोजन से कि अभियुक्त अपने विरुद्ध साक्ष्य में प्रकट होने वाली किन्हीं परिस्थितियों का स्वयं स्पष्टीकरण कर सके, न्यायालय :–

(क) किसी प्रक्रम में, अभियुक्त को पहले से चेतावनी दिये बिना, उससे ऐसे प्रश्न कर सकता है जो न्यायालय आवश्यक समझे;

(ख) अभियोजन के साक्षियों की परीक्षा किये जाने के पश्चात् और अभियुक्त से अपनी प्रतिरक्षा करने की अपेक्षा किये जाने के पूर्व उस मामले के बारे में उससे साधारणतया प्रश्न करेगा :

परन्तु किसी समन मामले में, जहाँ न्यायालय ने अभियुक्त को वैयक्तिक हाजिरी से अभिमुक्ति दे दी है, वहाँ वह खण्ड (ख) के अधीन उसकी परीक्षा से भी अभिमुक्ति दे सकता है।

(2) जब अभियुक्त की उपधारा (1) के अधीन परीक्षा की जाती है तब उसे कोई शपथ न दिलाई जायेगी।

(3) अभियुक्त ऐसे प्रश्नों के उत्तर देने से इंकार करने से या उसके मिथ्या उत्तर देने से दण्डनीय नही होगा।

(4) अभियुक्त द्वारा दिये गए उत्तरों पर उस जाँच या विचारण में विचार किया जा सकता है और किसी अन्य ऐसे अपराध, जिसका उसके द्वारा किया जाना दर्शाने की उन उत्तरों की प्रवृत्ति हो, किसी अन्य जाँच या विचारण में ऐसे उत्तरों को उसके पक्ष में या उसके विरुद्ध साक्ष्य के तौर पर रखा जा सकता है। 

(5) उन सुसंगत प्रश्नों को जिन्हें अभियुक्त से किया जाना है, तैयार करने में न्यायालय अभियोजक तथा प्रतिरक्षा पक्ष के अधिवक्ता की मदद ले सकता है तथा न्यायालय इस धारा के पर्याप्त अनुपालन के रूप में अभियुक्त द्वारा लिखित कथन के दाखिल करने की अनुमति दे सकता है।