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आपराधिक कानून

परिस्थितियाँ जब अभियुक्त और पीड़ित POCSO के तहत समझौता कर सकते हैं

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 14-Dec-2023

रणजीत कुमार बनाम एच.पी. राज्य एवं अन्य

"यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (Protection of Children from Sexual Offences Act- POCSO) के मामलों को रद्द किया जा सकता है यदि पीड़ित और अभियुक्त वास्तविक समझौते पर पहुँचते हैं तथा एक खुशहाल वैवाहिक जीवन व्यतीत कर रहे हैं।"

न्यायमूर्ति तरलोक सिंह चौहान और सत्येन वैद्य

स्रोत: हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति तरलोक सिंह चौहान और सत्येन वैद्य ने कहा है कि यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) के मामलों को रद्द किया जा सकता है यदि पीड़ित व अभियुक्त वास्तविक समझौते पर पहुँचते हैं और एक खुशहाल वैवाहिक जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

  • हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह फैसला रणजीत कुमार बनाम एच.पी. राज्य एवं अन्य के मामले में दिया।

रणजीत कुमार बनाम एच.पी. राज्य  एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • एकल न्यायाधीश ने समझौते के आधार पर प्रथम सूचना रिपोर्ट (First Information Report- FIR) को रद्द करने की याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा था कि याचिकाकर्त्ता के साथ पीड़ित बच्ची और उसके माता-पिता का समझौता महत्त्वहीन था।
  • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि POCSO अधिनियम के तहत गंभीर अपराधों में अपराध राज्य के खिलाफ है और निजी पक्ष मामले से समझौता नहीं कर सकते हैं।
  • खंडपीठ/डिवीज़न बेंच ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code- CrPC) की धारा 482 CrPC की धारा 320 के तहत अंतर्निहित शक्तियों की प्रकृति और दायरे का पता लगाया, जो अपराधों के शमन से संबंधित है।
  • खंडपीठ ने माना कि इस मुद्दे पर एकल न्यायाधीश द्वारा लिया गया दृष्टिकोण सही नहीं था और इसलिये इसे रद्द कर दिया गया। परिणामस्वरूप याचिका स्वीकार कर ली गई और POCSO एक्ट की FIR रद्द कर दी गई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • इसमें कोई विवाद नहीं है कि अभियुक्त पीड़ित बच्चे के साथ विवाह करने का इच्छुक था और वास्तव में उसने विवाह कर लिया है।
  • पीड़िता ने विवाह कर लिया है तथा शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत कर रही है और इसलिये ऐसे मामले में अभियोजन जारी रखने की अनुमति देने से उनके खुशहाल पारिवारिक जीवन में अशांति होगी और ऐसी परिस्थितियों में न्याय यह मांग करेगा कि पक्षों को समझौता करने की अनुमति दी जाए।

इस मामले में उद्धृत ऐतिहासिक निर्णय क्या है?

  • बी.एस. जोशी बनाम हरियाणा राज्य (2003):
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 320, CrPC की धारा 482 के तहत उच्च न्यायालयों में निहित शक्तियों के प्रयोग को सीमित या नियंत्रित नहीं करती है तथा उच्च न्यायालयों के पास CrPC की धारा 482 के तहत शक्ति के प्रयोग के तहत FIR पर आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की शक्ति होगी। भले ही अपराध CrPC की धारा 320 के तहत गैर-शमनीय हो।
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 482 के तहत आपराधिक कार्यवाही या FIR को रद्द करने की उच्च न्यायालयों की शक्ति CrPC की धारा 320 द्वारा सीमित नहीं है।
  • मनोज शर्मा बनाम राज्य एवं अन्य (2008):
    • उच्चतम न्यायालय ने यह विचार किया कि एक बार पक्षों के बीच विवादों का सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटारा हो जाने के बाद, HC आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिये CrPC की धारा 482 या भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अधिकारिता का उपयोग करने से इनकार नहीं कर सकता है, भले ही इसमें शामिल अपराध गैर-शमनीय हो।
  • निखिल मर्चेंट बनाम सी.बी.आई. और अन्य (2009):
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि चूँकि आपराधिक कार्यवाही में नागरिक विवाद का प्रभाव था, जिसे पक्षों के बीच सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझाया गया था, यह एक उपयुक्त मामला था जहाँ तकनीकी पहलुओं को आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की राह में आने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये, क्योंकि पक्षों के बीच समझौता होने के बाद भी इसे जारी रखना एक निरर्थक प्रयास होगा।