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आपराधिक कानून

मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध का संज्ञान

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 29-May-2024

मेसर्स सास इंफ्राटेक प्राइवेट लिमिटेड बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य

कोई मजिस्ट्रेट अपने न्यायिक विवेक का प्रयोग करते हुए दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 156(3) के अधीन जाँच का निर्देश देता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि उसने किसी अपराध को संज्ञान में लिया है

न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी और पंकज मिथल

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने मेसर्स सास इंफ्राटेक प्राइवेट लिमिटेड बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य मामले में कहा कि कोई मजिस्ट्रेट अपने न्यायिक विवेक का प्रयोग करते हुए दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 156(3) के अधीन जाँच का निर्देश देता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि उसने किसी अपराध को संज्ञान में लिया है।

मेसर्स सास इंफ्राटेक प्राइवेट लिमिटेड बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, ट्रायल कोर्ट ने शिकायत, दस्तावेज़ों और अपीलकर्त्ता के विद्वान अधिवक्ता द्वारा प्रस्तुत प्रस्तुतियों की जाँच के उपरांत, CrPC की धारा 156 (3) के अधीन जाँच का निर्देश देकर अपने न्यायिक विवेक का प्रयोग किया।
  • इसके बाद प्रतिवादी (अभियुक्त) ने इससे व्यथित होकर हैदराबाद स्थित तेलंगाना राज्य के उच्च न्यायालय के समक्ष आपराधिक याचिका दायर की थी।
  • उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के आदेश को खारिज कर दिया और कहा कि यह बिना किसी उचित कारण के दिया गया है।
  • इसके बाद अपीलकर्त्ता द्वारा तेलंगाना राज्य के हैदराबाद स्थित उच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय एवं आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील दायर की गई है।
  • अपील को स्वीकार करते हुए न्यायालय ने पुलिस जाँच के निर्देश देने वाले ट्रायल कोर्ट के आदेश को बहाल कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी और न्यायमूर्ति पंकज मिथल की पीठ ने कहा कि कोई मजिस्ट्रेट अपने न्यायिक विवेक का प्रयोग करते हुए दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 156(3) के अधीन जाँच का निर्देश देता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि उसने किसी अपराध को संज्ञान में लिया है। यह केवल तभी संभव है जब मजिस्ट्रेट अपने विवेक का प्रयोग करते हुए धारा 200 का सहारा लेकर CrPC के अध्याय XV के अधीन प्रक्रिया का पालन करता है, तभी यह कहा जा सकता है कि उसने अपराध का संज्ञान लिया है।

इसमें शामिल विधिक प्रावधान क्या हैं?

CrPC की धारा 156(3)

परिचय:

  • CrPC की धारा 156(3) में कहा गया है कि एक मजिस्ट्रेट जिसे संहिता की धारा 190 के अधीन संज्ञान लेने का अधिकार है, वह संज्ञेय अपराध के लिये जाँच का आदेश दे सकता है।
  • CrPC की धारा 156(3) के अधीन एक आवेदन में संज्ञेय अपराध का प्रकटन होता है, तो संबंधित मजिस्ट्रेट का यह कर्त्तव्य है कि वह FIR दर्ज करने का निर्देश दे, जिसकी जाँच विधि के अनुसार जाँच एजेंसी द्वारा की जानी है।
  • यदि प्राप्त सूचना से स्पष्टतः संज्ञेय अपराध का प्रकटन नहीं होता है, किंतु जाँच की आवश्यकता का संकेत मिलता है, तो यह पता लगाने के लिये प्रारंभिक जाँच की जा सकती है कि संज्ञेय अपराध का प्रकटन हुआ है या नहीं।
  • कोई भी न्यायिक मजिस्ट्रेट अपराध का संज्ञान लेने से पहले CrPC की धारा 156(3) के अधीन जाँच का आदेश दे सकता है।

आवश्यक तत्त्व:

  • धारा 156 (3) के अधीन पुलिस जाँच का आदेश देने की शक्ति अपराध के पूर्व-संज्ञान में प्रयोग योग्य है।
  • धारा 156 (3) के अधीन शक्ति का प्रयोग मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध का संज्ञान लेने से पहले किया जा सकता है।
  • धारा 156 की उपधारा (3) के अंतर्गत किया गया आदेश पुलिस को जाँच की अपनी पूर्ण शक्तियों का प्रयोग करने के लिये एक अनिवार्य चेतावनी अथवा सूचना की प्रकृति का होता है।

निर्णयज विधियाँ:

  • हर प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2006) में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि धारा 156(3) CrPC के अधीन आवेदन संज्ञेय अपराध का प्रकटन करता है तथा धारा 156(3) CrPC के चरण में, जो संज्ञेय चरण है, एक बार जब आवेदन के माध्यम से संज्ञेय अपराध का प्रकटन हो जाता है, तो संबंधित न्यायालय का यह कर्त्तव्य है कि वह अपराध के पंजीकरण तथा जाँच के लिये आदेश दे, क्योंकि अपराध का पता लगाना और अपराध की रोकथाम पुलिस का सबसे महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य है, न कि न्यायालय का।
  • ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (2014) में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि प्राप्त सूचना से संज्ञेय अपराध का प्रकटन नहीं होता है, परंतु जाँच की आवश्यकता का संकेत मिलता है, तो प्रारंभिक जाँच केवल यह पता लगाने के लिये की जा सकती है कि संज्ञेय अपराध का प्रकटन हुआ है अथवा नहीं।
  • प्रियंका श्रीवास्तव एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2015) में उच्चतम न्यायालय ने माना कि इस देश में ऐसी स्थिति आ गई है जहाँ दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के आवेदनों को आवेदक द्वारा विधिवत शपथ-पत्र द्वारा प्रस्तुत करना पड़ेगा यदि वह मजिस्ट्रेट के न्यायिक अधिकार क्षेत्र का आह्वान करना चाहता है।

CrPC की धारा 200:

परिचय:

  • CrPC की धारा 200 शिकायतकर्त्ता की जाँच से संबंधित है।

विधिक प्रावधान:

  • शिकायत पर अपराध का संज्ञान लेने वाला मजिस्ट्रेट, शिकायतकर्त्ता और उपस्थित गवाह की शपथ पर जाँच करेगा तथा ऐसी जाँच का सार लिखित रूप में रखा जाएगा एवं उस पर शिकायतकर्त्ता, गवाहों व मजिस्ट्रेट द्वारा हस्ताक्षर किये जाएंगे।
  • परंतु जब शिकायत लिखित रूप में की जाती है तो मजिस्ट्रेट को शिकायतकर्त्ता और गवाहों की परीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है-
    (a) यदि किसी लोक सेवक ने अपने पदीय कर्त्तव्यों के निर्वहन में कार्य करते हुए अथवा कार्य करने के उद्देश्य में किसी न्यायालय में शिकयत की है; या
    (b) यदि मजिस्ट्रेट धारा 192 के अंतर्गत जाँच या परीक्षण के लिये मामला किसी अन्य मजिस्ट्रेट को सौंप देता है।