Drishti IAS द्वारा संचालित Drishti Judiciary में आपका स्वागत है










होम / करेंट अफेयर्स

सिविल कानून

परिसीमन विधि के अंतर्गत विलंब (विहित काल) हेतु क्षमा

    «    »
 05-Jun-2024

दिल्ली विकास प्राधिकरण बनाम तेजपाल एवं अन्य

यदि विधि के उत्तरगामी परिवर्तन को, विलंब के लिये क्षमा हेतु एक वैध आधार के रूप में अनुमति दी जाती है, तो यह अनेक समस्याओं के लिये द्वार खोल देगा, जहाँ बाद में अस्वीकृत किये गए सभी मामलों में  न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया जाएगा तथा विधि की नई व्याख्या के आधार पर राहत की माँग की जाएगी

न्यायमूर्ति सूर्यकांत, दीपांकर दत्ता और उज्ज्वल भुइयाँ

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?    

न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ की पीठ ने कहा कि “यदि विधि के उत्तरगामी परिवर्तन को, विलंब (विहित काल) के लिये क्षमा हेतु एक वैध आधार के रूप में अनुमति दी जाती है, तो यह अनेक समस्याओं के लिये द्वार खोल देगा, जहाँ बाद में अस्वीकृत किये गए सभी मामलों में न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया जाएगा तथा विधि की नई व्याख्या के आधार पर राहत की माँग की जाएगी”।

  • उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिल्ली विकास प्राधिकरण बनाम तेजपाल एवं अन्य के मामले में दिया।

दिल्ली विकास प्राधिकरण बनाम तेजपाल एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • ये अपीलें दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेशों के विरुद्ध दायर की गई थीं, जिसमें भूमि अधिग्रहण पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013 में उचित क्षतिपूर्ति और पारदर्शिता के अधिकार की धारा 24(2) के अंतर्गत, अधिग्रहण की कार्यवाही को समाप्त घोषित कर दिया गया था।
  • आवासीय योजनाओं, औद्योगिक क्षेत्रों, फ्लाईओवरों तथा दिल्ली मेट्रो जैसी विभिन्न सार्वजनिक परियोजनाओं के लिये भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 के अंतर्गत अधिग्रहण की कार्यवाही प्रारंभ की गई थी।
  • हालाँकि कुछ मामलों में क्षतिपूर्ति नहीं दी गई अथवा निर्धारित समय-सीमा के भीतर कब्ज़ा नहीं लिया गया।
  • 2013 अधिनियम के अधिनियमन और उसके बाद के न्यायिक निर्णयों के फलस्वरूप उच्च न्यायालय ने इन अधिग्रहणों को निरसित कर दिया।
  • सरकारी प्राधिकारियों ने इन आदेशों के विरुद्ध अपील, समीक्षा याचिकाएँ और विविध आवेदन दायर किये, जिनमें भूमि मालिकों द्वारा तथ्यों को छिपाने, उच्चतम न्यायालय द्वारा धारा 24(2) की व्याख्या में बाद में किये गए परिवर्तन और कोविड-19 महामारी के प्रभाव सहित विभिन्न आधारों पर विलंब के लिये क्षमा मांगी गई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने विलंब की क्षमा हेतु विभिन्न आधारों का विश्लेषण किया और निम्नलिखित निर्देश पारित किये:
  • भूस्वामियों द्वारा तथ्यों को छिपाने का आरोप:
    • जिन मामलों में भूस्वामियों द्वारा तथ्यों को छिपाने के आरोप लगाए गए थे, उनमें उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेशों को रद्द कर दिया तथा संबंधित रिट याचिकाओं को पुनर्जीवित कर दिया।
    • उच्च न्यायालय को क्षतिपूर्ति के लिये उचित दावेदार का निर्धारण करने हेतु जाँच करने का निर्देश दिया गया।
  • जनहित एवं न्याय:
    • सार्वजनिक अवसंरचना परियोजनाओं को होने वाले नुकसान तथा भूस्वामियों पर न्यूनतम तुलनात्मक प्रभाव को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय ने व्यापक जनहित में विलंब को क्षमा कर दिया।
  • कोविड-19 महामारी:
    • अदालत ने उन मामलों में विलंब को क्षमा कर दिया, जिनमें महामारी के कारण सीमा अवधि 15 मार्च 2020 और 28 फरवरी 2022 के बीच समाप्त हो गई थी।
  • क्षतिपूर्ति न देने या कब्ज़ा न लेने से जुड़े मामले:
    • जिन मामलों में क्षतिपूर्ति नहीं दी गई अथवा कब्ज़ा नहीं लिया गया, उनमें न्यायालय ने भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत अपनी शक्तियों का प्रयोग किया।
    • इसने नए अधिग्रहण की कार्यवाही प्रारंभ करने की समय-सीमा बढ़ा दी, 2013 अधिनियम की कुछ प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं को समाप्त कर दिया तथा क्षतिपूर्ति और पुनर्वास उपायों के निर्धारण के लिये दिशा-निर्देश प्रदान किये।

विलंब हेतु क्षमा पर विधियाँ क्या हैं?

  • 5 अक्टूबर 1963 को अधिनियमित तथा 1 जनवरी 1964 से प्रभावी, परिसीमा अधिनियम, 1963 का उद्देश्य समयावधि निर्धारित करना है जिसके भीतर प्रदत्त अधिकारों को न्यायालयों में लागू किया जा सके।
  • यह अधिनियम लैटिन सूत्र "विजिलेंटिबस, नॉन डॉरमेंटिबस ज्यूरा सुवेन्यूट" पर आधारित है, जिसका अर्थ है कि विधि सतर्क लोगों की सहायता करती है, न कि उन लोगों की जो अपने अधिकारों की अवहेलना करते हैं।
  • हालाँकि अधिनियम यह मानता है कि ऐसी परिस्थितियाँ भी हो सकती हैं जो वादी के नियंत्रण से परे हों तथा जो उसे निर्धारित समय-सीमा के भीतर वाद या अपील दायर करने से रोकती हों।
  • यहीं पर "विलंब हेतु क्षमा" की अवधारणा सामने आती है।

विलंब हेतु क्षमा क्या है?

  • परिचय:
    • विलंब हेतु क्षमा न्यायालयों द्वारा प्रयोग किया जाने वाला एक विवेकाधीन उपाय है, जिसमें किसी पक्ष द्वारा किये गए आवेदन पर, जो निर्धारित अवधि के उपरांत अपील या आवेदन स्वीकार करना चाहता है, न्यायालय विलंब को क्षमा कर सकता है यदि पक्ष "पर्याप्त कारण" प्रदान करता है जिसके कारण समय पर अपील अथवा आवेदन दायर करने में बाधा हुई।
    • यदि न्यायालय पर्याप्त कारण से संतुष्ट है, तो वह विलंब को क्षमा कर सकता है तथा अपील या आवेदन को स्वीकार कर सकता है, जैसे कि कोई देरी हुई ही नहीं थी, जिससे मामले को केवल तकनीकी आधार पर अस्वीकृत करने के स्थान पर गुण-दोष के आधार पर आगे बढ़ने दिया जा सके।
  • परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5:
    • परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5 में विलंब की क्षमा का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है। इसमें कहा गया है:
    • "सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश XXI के किसी भी प्रावधान के अंतर्गत आवेदन के अतिरिक्त कोई भी अपील या कोई भी आवेदन, निर्धारित अवधि के उपरांत स्वीकार किया जा सकता है यदि अपीलकर्त्ता या आवेदक अदालत को संतुष्ट करता है कि उसके पास ऐसी अवधि के भीतर अपील या आवेदन न करने के लिये पर्याप्त कारण था"।
    • धारा 5 के स्पष्टीकरण में आगे स्पष्ट किया गया है कि यदि अपीलकर्त्ता या आवेदक निर्धारित अवधि का पता लगाने या उसकी गणना करने में उच्च न्यायालय के किसी आदेश, प्रथा या निर्णय की अवहेलना कर देता है, तो यह बिंदु इस धारा के अर्थ के भीतर पर्याप्त कारण बन सकता है।
  • "पर्याप्त कारण" की व्याख्या:
    • "पर्याप्त कारण" शब्द को परिसीमा अधिनियम, 1963 में परिभाषित नहीं किया गया है, जिससे न्यायालयों को इसकी व्याख्या में व्यापक विवेकाधिकार प्राप्त हैं।
  • विलंब हेतु क्षमा प्रदान करने के लिये पर्याप्त कारण:
    • विधि में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन
    • आवेदक की गंभीर बीमारी
    • आवेदक का कारावास
    • आवेदक एक पर्दानशीं महिला (एकांत में रहने वाली) है
    • अधिकारियों से प्रतियाँ प्राप्त करने में देरी, बशर्ते आवेदक ने उन्हें प्राप्त करने के लिये सतर्कतापूर्वक प्रयास किये हों
    • आवेदक के अधिवक्ता की कार्यवाही अथवा निष्क्रियता के कारण हुई देरी
  • विशेष विधियों पर प्रयोज्यता:
    • परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5 के प्रावधान उन विशेष विधानों अथवा विधियों पर लागू नहीं होंगे जिनमें विलंब हेतु क्षमा के लिये, अपने स्वयं के प्रावधान हैं।
    • उदाहरण के लिये, उच्चतम न्यायालय ने कई मामलों में माना है कि मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A&C अधिनियम) की धारा 34 (3), जो मध्यस्थता पंचाट को रद्द करने से संबंधित है, "परंतु उसके उपरांत नहीं" वाक्यांश का उपयोग करके परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5 की प्रयोज्यता को स्पष्ट रूप से बाहर कर देती है।

विलंब हेतु क्षमा पर ऐतिहासिक निर्णयज विधियाँ क्या हैं?

  • कृष्णा बनाम चट्टप्पन (1889):
    • प्रिवी काउंसिल ने "पर्याप्त कारण" की व्याख्या के लिये दो नियम निर्धारित किये:
      • कारण अपीलकर्त्ता पक्ष के नियंत्रण से बाहर होना चाहिये, और
      • पक्षों में सद्भावना की कमी नहीं होनी चाहिये, या वे लापरवाह या निष्क्रिय नहीं होने चाहिये।
  • रामलाल बनाम रीवा कोलफील्ड्स लिमिटेड (1962):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि स्पष्टीकरण की आवश्यकता वाला विलंब, समय समाप्त होने की तिथि से लेकर अपील या आवेदन दाखिल करने की तिथि तक है तथा समय-सीमा की अंतिम तिथि तक तत्परता की कमी किसी व्यक्ति को विलंब हेतु क्षमा के लिये आवेदन करने से अयोग्य नहीं ठहराएगी।
  • वेस्ट बंगाल राज्य बनाम हावड़ा नगर पालिका (1972):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पर्याप्त न्याय के लिये "पर्याप्त कारण" की व्याख्या उदारतापूर्वक की जानी चाहिये।
  • न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम श्रीमती शांति मिश्रा (1976):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5 द्वारा प्रदत्त विवेकाधिकार की व्याख्या इस प्रकार नहीं की जा सकती कि वह विवेकाधीन उपाय को कठोर नियम में परिवर्तित कर दे तथा "पर्याप्त कारण" शब्द को कठोर नियमों द्वारा परिभाषित नहीं किया जा सकता।
  • कलेक्टर भूमि अधिग्रहण बनाम मिस्टर कातिजी एवं अन्य (1987):
    • उच्चतम न्यायालय ने विलंब हेतु क्षमा के सिद्धांत को लागू करने के लिये दिशा-निर्देश निर्धारित किये तथा इस बात पर बल दिया कि तकनीकी कारणों की अपेक्षा पर्याप्त न्याय को प्राथमिकता दी जानी चाहिये तथा यह अनुमान नहीं लगाया जाना चाहिये कि विलंब जानबूझकर किया गया है।
  • वेदाबाई उर्फ ​​वैजयंतबाई बाबूराव पाटिल बनाम शांताराम बाबूराव पाटिल एवं अन्य (2001):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि धारा 5 के अंतर्गत विवेकाधिकार का प्रयोग करते समय न्यायालयों को व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिये, अत्यधिक देरी और अपेक्षाकृत कम देरी के बीच अंतर करना चाहिये तथा यह ध्यान में रखना चाहिये कि पर्याप्त न्याय प्रदान करने का सिद्धांत सर्वोपरि है।