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आपराधिक कानून

महिलाओं के विरुद्ध अपराध

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 09-Oct-2023

बलवीर सिंह बनाम उत्तराखंड राज्य

न्यायिक प्रणाली न्याय सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, विशेषकर महिलाओं के विरुद्ध हिंसा संबंधित मामलों में।

उच्चतम न्यायालय

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय (SC) ने एक ऐसे पति की दोषसिद्धि की पुन: पुष्टि की है, जिसे अपनी पत्नी की हत्या और उसके विरुद्ध घरेलू क्रूरता के कृत्यों से जुड़े मामले में सजा सुनाई गयी थी।

  • न्यायालय ने बलवीर सिंह बनाम उत्तराखंड राज्य के मामले में, विशेष रूप से महिलाओं के विरुद्ध हिंसा संबंधित मामलों में, न्याय सुनिश्चित करने में न्यायिक प्रणाली की महत्त्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित किया।

बलवीर सिंह बनाम उत्तराखंड राज्य मामले की पृष्ठभूमि

  • मृतक का विवाह वर्ष 1997 में अपीलकर्त्ता (बलवीर सिंह) से हुई थी।
  • जिसमें यह आरोप लगाया गया कि उसके विवाह के तुरंत बाद, अपीलकर्त्ता ने अपनी माँ के साथ मिलकर मृतक को विभिन्न प्रकार से प्रताड़ित करना शुरू कर दिया और निरंतर रूप से दहेज की मांग शुरू कर दी।
  • उत्पीड़न के बाद उसकी पत्नी को संदिग्ध परिस्थितियों में मृत पाया गया और उसके गले पर लाल रंग के निशान मौज़ूद थे।
  • मृतक के पिता ने अपनी बेटी की मृत्यु के संबंध में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने के लिये दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 156 (3) के तहत न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी (JMFC) के न्यायालय में एक आवेदन दायर किया।
    • न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी (JMFC) के आदेश के अनुसार, भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 34 के साथ पठित धारा 302, 498a और दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की क्रमशः धारा 3 और 4 के तहत दंडनीय अपराध के लिये प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी।
  • प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज होने के बाद जाँच अधिकारी द्वारा सीआरपीसी की धारा 161 के तहत विभिन्न साक्षियों के बयान दर्ज किये गये।
  • ट्रायल कोर्ट (विचारण हेतु न्यायालय) और साथ ही उच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 302 और भारतीय दंड संहिता की धारा 498-a के तहत पति की सजा को बरकरार रखा और भारतीय दंड संहिता की धारा 498-a के तहत उसकी माँ की सजा की भी पुष्टि की गई।
  • इसलिये, वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय में की गई थी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायालय ने मामलों का संज्ञान लिया:
    • धरम दास वाधवानी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1975) जिसमें उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि “उचित संदेह के लाभ के नियम का अर्थ यह नहीं है, कि एक कमज़ोर डाली आसानी से हर किसी के आगे झुक जाएगी। न्यायाधीश कठोर प्रकृति के होते हैं और उन्हें साक्ष्य, परिस्थितिजन्य या प्रत्यक्ष स्थितियों से निकलने वाले वैध निष्कर्षों का व्यावहारिक दृष्टिकोण रखना चाहिये" जिसका अर्थ है कि उचित संदेह के लाभ के सिद्धांत से तात्पर्य अत्यधिक संकोच या अनिर्णायक होना नहीं है, ऐसे मामलों में A साक्ष्यों के अनुकूल व्यावहारिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखा जाना चाहिये।
    • शंभू नाथ मेहरा बनाम अज़मेर राज्य (वर्ष 1956) मामले, उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 में "विशेष रूप से" शब्द उन तथ्यों को रेखांकित करता है, जो आरोपी के ज्ञान में पूर्व-प्रतिष्ठित या असाधारण रूप से हैं।
    • नागेंद्र शाह बनाम बिहार राज्य (वर्ष 2021) उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर भरोसा करने वाले मामलों में, एक आरोपी की उचित स्पष्टीकरण देने में असमर्थता, जैसा कि धारा 106 द्वारा अनिवार्य है, घटनाओं के अनुक्रम में एक अतिरिक्त तत्व का गठन कर सकता है।
  • इसलिये, उच्चतम न्यायालय ने वर्तमान मामले में भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 106 को लागू करने की अनुमति दी, जिससे आरोपी पति पर अपनी पत्नी की मौत के आसपास की घटनाओं को समझाने का बोझ डाला गया।
    • उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि न्यायालयों को साक्ष्यों का मूल्यांकन करते समय व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिये, ऐसे मामलों में संवेदनशीलता के महत्त्व पर भी ज़ोर दिया गया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि न्याय हो और अनुचित कृत्य करने वालों को जवाबदेह ठहराया जाए।
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 उन मामलों पर लागू होगी जहाँ अभियोजन पक्ष उन तथ्यों को स्थापित करने में सफल रहा है, जिनसे कुछ अन्य तथ्यों के अस्तित्व के बारे में उचित निष्कर्ष निकाला जा सकता है, जो अभियुक्त के संज्ञान में है, जब अभियुक्त उक्त अन्य तथ्यों के अस्तित्व के बारे में उचित स्पष्टीकरण देने में विफल रहता है, तो न्यायालय सदैव उचित निष्कर्ष निकालता है।
    • इस प्रकार, सभी तथ्यों और साक्ष्यों पर विचार करने के बाद, न्यायाधीश जे.बी. पारदीवाला और न्यायाधीश प्रशांत मिश्रा ने क्रमशः अपीलकर्त्ता (पति) को धारा 302 और 498-a भारतीय दंड संहिता के तहत और आरोपी की माँ को आईपीसी धारा 498-a के तहत दोषी ठहराए जाने की पुष्टि की।

शामिल कानूनी प्रावधान

  • आपराधिक विधि में साक्ष्यों का बोझ:
    • आपराधिक मामलों के अधिकांश मामलों में साक्ष्यों का बोझ अभियोजन पक्ष पर होता है।
    • इसका अर्थ यह है कि यह अभियोजन पक्ष की ज़िम्मेदारी है कि वह उचित संदेह से परे साबित करे कि प्रतिवादी कथित अपराध का दोषी है।
    • दोषी साबित होने तक प्रतिवादी को निर्दोष माना जाता है, और अभियोजन पक्ष को न्यायाधीश या जूरी को प्रतिवादी के अपराध को समझाने के लिये पर्याप्त साक्ष्य और तर्क प्रस्तुत करने होंगे।
    • यदि अभियोजन इस बोझ को पूरा करने में विफल रहता है, तो प्रतिवादी संदेह का लाभ पाने का हकदार है, जिसमें आमतौर पर बरी कर दिया जाता है।
    • यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि आपराधिक मामलों में साक्ष्य का बोझ नागरिक मामलों में साक्ष्य के बोझ से कहीं अधिक है, जहाँ संभावना की प्रबलता प्रायः मानक होती है।
  • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973:
    • एक बार एफआईआर दर्ज होने के बाद जाँच शुरू हो जाती है, सीआरपीसी की धारा 161 पुलिस को जाँच के दौरान गवाहों से पूछताछ करने का अधिकार देती है।
    • धारा 161 - पुलिस द्वारा गवाहों की संपरीक्षा - (1) कोई पुलिस अधिकारी, जो इस अध्याय के अधीन अन्वेषण कर रहा है या ऐसे अधिकारी की अपेक्षा पर कार्य करने वाला कोई पुलिस अधिकारी की अपेक्षा पर कार्य करने वाला कोई निम्नतर पंक्ति का नहीं है जिसे राज्य सरकार साधारण या विशेष आदेश द्वारा इस निमित्त विहित करे, मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से परिचित समझे जाने वाले किसी व्यक्ति की मौखिक संपरीक्षा कर सकता है।
      (2) ऐसा व्यक्ति उन प्रश्नों से बचता है, जिनके उत्तरों की प्रवृति उसे आपराधिक आरोप या शास्ति या समपहरण की आशंका में डालने की है, वह ऐसे मामले से संबंधित उन सब प्रश्नों का सही-सही उत्तर देने के लिये आबद्ध होगा जो अधिकारी उससे पूछता है।
      (3) पुलिस अधिकारी इस धारा के अधीन संपरीक्षा के दौरान उसके समक्ष किये गये किसी भी कथन को लेखबद्ध कर सकता है और यदि वह ऐसा करता है, तो वह प्रत्येक ऐसे व्यक्ति के कथन को पृथक और सही अभिलेख बनाएगा, जिसका कथन वह अभिलिखित करता है।
    • परंतु यह कि इस उपधारा के अधीन किया गया कथन ऑडियो-विडियो इलेक्ट्राॅनिक साधनों से भी अभिलिखित किया जा सकेगा।
    • परंतु यह और कि किसी ऐसी स्त्री का कथन, जिसके विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 354, धारा 354क, धारा 354ख, धारा 354ग, धारा 354घ, धारा 376, धारा 376क, धारा 376ख, धारा 376ग, धारा 376घ, धारा 376ड या धारा 509 के अधीन किसी अपराध के किये जाने का प्रयत्न किये जाने का अभिकथन किया गया है, किसी महिला पुलिस अधिकारी या किसी महिला द्वारा अभिलिखित किया जाएगा।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872:

  • धारा 106 - तथ्य को विशेष रूप से साक्ष्यों को साबित करने का बोझ - जब कोई तथ्य विशेष रूप से किसी व्यक्ति की जानकारी में हो, तो उस तथ्य को साबित करने का बोझ उस पर होता है।
  • यह प्रावधान साक्ष्यों का बोझ उस व्यक्ति पर डालता है, जिसके पास किसी विशेष तथ्य के बारे में विशिष्ट या विशेष ज्ञान है। यदि ऐसे तथ्य हैं जिनके बारे में केवल एक विशेष व्यक्ति ही जानता है, तो उन तथ्यों को साबित करना उस व्यक्ति की ज़िम्मेदारी है। ऐसा न करने पर उनके मामले पर असर पड़ सकता है।
  • उदाहरण - यदि A पर बिना टिकट रेलवे में यात्रा करने का आरोप है। यह साबित करने का बोझ कि उनके पास टिकट है, उन पर है।
  • यह प्रावधान अभियोजन पक्ष को आपराधिक मामलों में उचित संदेह से परे अपना मामला साबित करने से अनुतोष प्रदान नहीं करता है।
  • इसके बजाय, यह उन स्थितियों से निपटता है जहाँ कुछ तथ्य मुख्य रूप से किसी विशेष व्यक्ति को ज्ञात होते हैं, और ऐसे मामलों में कानून उन तथ्यों को साबित करने की ज़िम्मेदारी उस व्यक्ति पर डालता है।