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पारिवारिक कानून

बालक का संरक्षकत्व

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 12-Jul-2024

अमित शर्मा बनाम सुगंधा शर्मा

"अप्राप्तवय बच्चे के संरक्षकत्व के मामलों में, न्यायालय को बच्चे के सर्वोत्तम हित को ध्यान में रखना होगा।"

न्यायमूर्ति अमित बंसल एवं न्यायमूर्ति राजीव शकधर

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति अमित बंसल एवं न्यायमूर्ति राजीव शकधर की पीठ ने कहा कि संरक्षकत्व के मामलों में, बच्चे के संरक्षकत्व के बिना माता-पिता को अपने बच्चे से मिलने का अधिकार है, ताकि वे अपने बच्चे के साथ संबंध बनाए रख सकें।

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने अमित शर्मा बनाम सुगंधा शर्मा मामले में यह निर्णय दिया।

अमित शर्मा बनाम सुगंधा शर्मा मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • वर्तमान मामले में अपीलकर्त्ता (पति) एवं प्रतिवादी (पत्नी) विवाहित थे तथा उनका एक बेटा था। बाद में उनका विवाह हो गया।
  • पारिवारिक न्यायालय ने निर्देश दिया कि अपीलकर्त्ता को प्रत्येक महीने के पहले एवं तीसरे शनिवार को दोपहर 3 बजे से शाम 4 बजे तक द्वारका न्यायालय के निर्दिष्ट कमरे में बच्चे से मिलने की अनुमति दी जाएगी।
  • प्रतिवादी ने इस पर आपत्ति जताई लेकिन इसे खारिज कर दिया गया तथा न्यायालय ने एक परामर्शदाता की उपस्थिति में कमरे में बच्चों के संग बैठकें आयोजित करने का निर्देश दिया।
  • अपीलकर्त्ता ने अपनी शिकायत व्यक्त की कि विभिन्न तिथियों पर परामर्शदाता की अनुपस्थिति के कारण उपरोक्त बैठकें नहीं हो सकीं।
  • इस शिकायत का समाधान इस न्यायालय द्वारा संबंधित कुटुंब न्यायाधीश को यह सुनिश्चित करने का निर्देश देकर किया गया कि बच्चे एवं अपीलकर्त्ता के मध्य ऐसी सभी वार्तालाप में एक परामर्शदाता उपस्थित रहे।
  • पारिवारिक न्यायालय परामर्शदाता द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में यह पाया गया कि बच्चा पिता से मिलने के लिये तैयार नहीं था तथा आशंकित था।
  • एक स्वतंत्र NGO द्वारा एक अंतरिम रिपोर्ट भी प्रस्तुत की गई थी जिसमें कहा गया था कि बच्चे ने अपनी वार्तालाप में कहा था कि वह अपने पिता से मिलना या नियमित रूप से न्यायालय जाना पसंद नहीं करता क्योंकि इससे उसे असहजता महसूस होती है।
  • न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या अपीलकर्त्ता को बच्चे का अंतरिम संरक्षकत्व दी जानी चाहिये।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि विधि की यह स्थापित स्थिति है कि संरक्षकत्व के मामलों में न्यायालय को बच्चे के सर्वोत्तम हितों को ध्यान में रखना चाहिये।
    • बच्चे के सर्वोत्तम हित का निर्धारण सभी प्रासंगिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिये।
  • इस तथ्य पर भी विवाद नहीं किया जा सकता कि अप्राप्तवय बच्चे को अपने माता-पिता दोनों के प्यार एवं स्नेह की आवश्यकता होती है।
  • इसलिये, भले ही बच्चे का संरक्षकत्व एक माता-पिता के पास हो, लेकिन दूसरे माता-पिता के पास बच्चे से मिलने-जुलने का अधिकार होना चाहिये, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि बच्चा दूसरे माता-पिता के साथ संपर्क बनाए रखे।
  • न्यायालय ने कहा कि संयुक्त पालन-पोषण आदर्श है तथा यदि न्यायालय इससे विरत रहता है, तो उसे इसके लिये स्पष्ट कारण उल्लिखित करने चाहिये। न्यायालय ने कहा कि यह स्पष्ट है कि अपीलकर्त्ता की उपस्थिति में बच्चा असहज था।
  • बच्चे की कम उम्र को देखते हुए न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्त्ता को बच्चे की अंतरिम संरक्षकत्व नहीं दी जानी चाहिये।

बच्चे की अंतरिम संरक्षकत्व  से संबंधित विधियाँ क्या है?

संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 12

  • यह धारा अप्राप्तवय को प्रस्तुत करने तथा उसके शरीर एवं संपत्ति की अंतरिम सुरक्षा के लिये अंतरिम आदेश देने की शक्ति से संबंधित है।
  • इस धारा की उपधारा (1) में यह प्रावधान है कि न्यायालय यह निर्देश दे सकता है कि अप्राप्तवय का संरक्षकत्व प्राप्त करने वाला व्यक्ति, यदि कोई हो, उसे ऐसे स्थान एवं समय पर तथा ऐसे व्यक्ति के समक्ष प्रस्तुत करेगा या प्रस्तुत कराएगा जिसे वह नियुक्त करे, तथा अप्राप्तवय के शरीर या संपत्ति का अस्थायी संरक्षकत्व एवं सुरक्षा के लिये ऐसा आदेश दे सकता है जिसे वह उचित समझे।
  • इस धारा की उपधारा (2) में यह प्रावधान है कि यदि अप्राप्तवय महिला है, जिसे सार्वजनिक रूप से उपस्थित होने के लिये बाध्य नहीं किया जाना चाहिय, तो उपधारा (1) के अधीन उसे प्रस्तुत करने के निर्देश में उसे देश की प्रथाओं एवं रीति-रिवाजों के अनुसार प्रस्तुत करने की अपेक्षा की जाएगी।
  • उपधारा (3) में यह प्रावधान है कि इस धारा का कोई भी प्रावधान निम्नलिखित को अधिकृत नहीं करेगी-
    • न्यायालय द्वारा किसी अप्राप्तवय लड़की को ऐसे व्यक्ति की अस्थायी संरक्षकत्व में रखना जो उसका पति होने के आधार पर उसका अभिभावक होने का दावा करता है, जब तक कि वह अपने माता-पिता, यदि कोई हो, की सहमति से पहले से ही उसकी संरक्षकत्व में न हो, या
    • कोई भी व्यक्ति, जिसे किसी अवयस्क की संपत्ति का अस्थायी संरक्षकत्व एवं संरक्षण सौंपा गया है, वह विधि के सम्यक् अनुक्रम के अतिरिक्त किसी अन्य तरीके से उस संपत्ति पर कब्ज़ा रखने वाले किसी भी व्यक्ति को बेदखल कर सकता है।

बाल कल्याण का सिद्धांत क्या है?

  • हिंदू अप्राप्तवयता एवं संरक्षकता अधिनियम, 1956 (HMGA) की धारा 13
    • इस धारा में यह प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति को हिंदू अवयस्क का संरक्षक नियुक्त या घोषित करते समय अवयस्क का कल्याण सर्वोपरि माना जाएगा।
  • संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 17
    • यह धारा संरक्षक नियुक्त करते समय विचार किये जाने वाले मामलों का प्रावधान करती है।
    • धारा 17 (1) में यह प्रावधान है कि किसी अप्राप्तवय के संरक्षक की नियुक्ति या घोषणा करते समय न्यायालय, इस धारा के प्रावधानों के अधीन रहते हुए, इस बात से निर्देशित होगा कि अप्राप्तवय जिस विधि के अधीन है, उसके अनुरूप परिस्थितियों में अप्राप्तवय के कल्याण के लिये क्या प्रतीत होता है।
    • धारा 17 (2) में यह प्रावधान है कि अप्राप्तवय के कल्याण के विषय में विचार करते समय न्यायालय को अप्राप्तवय की आयु, लिंग एवं धर्म, प्रस्तावित अभिभावक के चरित्र व क्षमता तथा अप्राप्तवय से उसके संबंधियों की निकटता, मृतक माता-पिता की इच्छाएँ, यदि कोई हों और प्रस्तावित अभिभावक के अप्राप्तवय या उसकी संपत्ति के साथ मौजूदा या पिछले संबंधों को ध्यान में रखना होगा।
    • धारा 17 (3) में प्रावधान है कि यदि अप्राप्तवय इतना वयस्क है कि वह बुद्धिमानी से अपनी पसंद बना सके, तो न्यायालय उस पसंद पर विचार कर सकता है।
    • धारा 17 (5) में प्रावधान है कि न्यायालय किसी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध अभिभावक नियुक्त या घोषित नहीं करेगा।

बच्चे के संरक्षकत्व से संबंधित मामले क्या हैं?

  • शाजिया अमन खान एवं अन्य बनाम उड़ीसा राज्य (2024):
    • बच्चे की प्रतिभा और व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिये बच्चे की स्थिरता एवं सुरक्षा एक आवश्यक घटक है।
    • विधि का एक और सिद्धांत जो बच्चे की संरक्षकत्व के संदर्भ में तय किया गया है, वह है बच्चे की इच्छा, अगर वह सक्षम है।
    • न्यायालय ने कहा कि बच्चे के कल्याण को देखा जाना चाहिये न कि पक्षों के अधिकारों को।
  • आशीष रंजन बनाम अनुपम टंडन (2010):
    • यह एक सुस्थापित सिद्धांत है कि संरक्षकत्व के प्रश्न का निर्धारण करते समय बच्चे के कल्याण को सर्वोच्च महत्त्व दिया जाना चाहिये , न कि विधि के अधीन माता-पिता के अधिकारों को।
    • बच्चे के कल्याण पर विचार करते समय, "बच्चे के नैतिक कल्याण के साथ-साथ उसकी शारीरिक हित को भी न्यायालय द्वारा परीक्षण किया जाना चाहिये"।
    • बच्चे को संपत्ति या वस्तु के रूप में नहीं माना जा सकता है तथा इसलिये, ऐसे मुद्दों को न्यायालय द्वारा प्रेम, स्नेह एवं भावनाओं के साथ मानवीय स्पर्श के साथ सावधानी एवं सतर्कता के साथ संभाला जाना चाहिये।
  • कर्नल रमनीश पाल सिंह बनाम सुगंधी अग्रवाल (2024):
    • न्यायालय ने कहा कि संरक्षकत्व के विषय पर निर्णय निम्नलिखित कारकों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिये:
      • अप्राप्तवय बच्चों को उपलब्ध कराए जाने वाले सामाजिक-आर्थिक एवं शैक्षिक अवसर;
      • बच्चों की स्वास्थ्य सेवा एवं समग्र कल्याण बढ़ते किशोरों के लिये अनुकूल भौतिक परिवेश प्रदान करने की क्षमता, लेकिन अप्राप्तवय बच्चों की प्राथमिकता को भी ध्यान में रखना चाहिये।