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आपराधिक कानून

आपराधिक मुकदमे में प्रकटीकरण निजता के अधिकार का अतिक्रमण नहीं कर सकते

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 30-Oct-2023

इंद्रकुमार बनाम छत्तीसगढ़ राज्य

आपराधिक मुकदमों में प्रकटीकरण की आवश्यकताएँ निजता के मौलिक अधिकार पर अनुचित रूप से अतिक्रमण नहीं कर सकते।

न्यायमूर्ति अभय एस ओका और संजय करोल

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, इंद्रकुमार बनाम छत्तीसगढ़ राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि यद्यपि कानून द्वारा किसी आपराधिक मामले में निर्णय लेने के लिये आवश्यक पहलुओं का प्रकटीकरण करने की आवश्यकता है, लेकिन ऐसा कर्त्तव्य अनुचित रूप से और अनावश्यक रूप से भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 21 के तहत प्रतिष्ठापित निजता के मौलिक अधिकार से आगे नहीं बढ़ सकता है।

इंद्रकुमार बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अपीलकर्ता के सह-ग्रामीण नामत: बैगा गोंड के साथ संबंध थे, जिसके परिणामस्वरूप उसने एक बच्चे को जन्म दिया।
  • जन्म देने पर उसने कथित तौर पर इस बच्चे की हत्या कर दी और लाश को एक छोटे तालाब में फेंक दिया।
  • इसके बाद उस पर भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) की धारा 302 के तहत दंडनीय अपराध करने का आरोप लगाया गया।
  • ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ता को दोषी ठहराया।
  • इसके बाद, छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा।
  • इसके बाद, उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक अपील दायर की गई।
  • अपील की अनुमति देते हुए, उच्चतम न्यायालय ने अपीलकर्ता को सभी आरोपों से बरी कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 313 के संदर्भ में न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति संजय करोल की पीठ ने कहा कि हालांकि किसी आपराधिक मामले में फैसला सुनाने के लिये आवश्यक पहलुओं का प्रकटीकरण करने के लिये कानून की आवश्यकता होती है। लेकिन निजता के मौलिक अधिकार पर अकारण और अनुचित तरीके से हमला नहीं किया जा सकता।
  • न्यायालय ने माना कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 313 के तहत एक बयान में, आरोपी संलिप्तता या किसी आपत्तिजनक परिस्थिति को स्वीकार कर भी सकता है और नहीं भी, या घटनाओं या व्याख्या का वैकल्पिक संस्करण भी पेश कर सकता है। किसी भी चूक या अपर्याप्त पूछताछ से आरोपी पर पूर्वाग्रह नहीं डाला जा सकता।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि शारीरिक और मनोवैज्ञानिक अखंडता के निजी मामलों के संबंध में एक महिला के समानता और गोपनीयता के मौलिक अधिकार का सार अपने शरीर और प्रजनन विकल्पों के बारे में स्वायत्त निर्णय लेने की क्षमता है।

इसमें कौन-से कानूनी प्रावधान शामिल हैं?

सीआरपीसी की धारा 313

  • यह धारा अभियुक्त की परीक्षा करने की शक्ति से संबंधित है।
  • अभियुक्त की परीक्षा करने की शक्ति-(1) प्रत्येक जाँच या विचारण में, इस प्रयोजन से कि अभियुक्त अपने विरुद्ध साक्ष्य में प्रकट होने वाली किन्हीं परिस्थितियों का स्वयं स्पष्टीकरण कर सके, न्यायालय-
  • किसी प्रक्रम में, अभियुक्त को पहले से चेतावनी दिये बिना, उससे ऐसे प्रश्न कर सकता है जो न्यायालय आवश्यक समझे ;
  • अभियोजन के साक्षियों की परीक्षा किये जाने के पश्चात् और अभियुक्त से अपनी प्रतिरक्षा करने की अपेक्षा किये जाने के पूर्व उस मामले के बारे में उससे साधारणतया प्रश्न करेगा :
  • परन्तु किसी समन-मामले में, जहाँ न्यायालय ने अभियुक्त को वैयक्तिक हाजिरी से अभिमुक्ति दे दी है, वहाँ वह खंड (ख) के अधीन उसकी परीक्षा से भी अभिमुक्ति दे सकता है ।
    (2) जब अभियुक्त की उपधारा (1) के अधीन परीक्षा की जाती है तब उसे कोई शपथ न दिलाई जायेगी।
    (3) अभियुक्त ऐसे प्रश्नों के उत्तर देने से इंकार करने से या उसके मिथ्या उत्तर देने से दंडनीय न हो जायेगा ।
    (4) अभियुक्त द्वारा दिये गए उत्तरों पर उस जाँच या विचारण में विचार किया जा सकता है और किसी अन्य ऐसे अपराध की, जिसका उसके द्वारा किया जाना दर्शाने की उन उत्तरों की प्रवृत्ति हो, किसी अन्य जाँच या विचारण में ऐसे उत्तरों को उसके पक्ष में या उसके विरुद्ध साक्ष्य के तौर पर रखा जा सकता है।
    (5) न्यायालय ऐसे सुसंगत प्रश्न तैयार करने में, जो अभियुक्त से पूछे जाने हैं, अभियोजक और प्रतिरक्षा कौंसिल की सहायता ले सकेगा और न्यायालय इस धारा के पर्याप्त अनुपालन के रूप में अभियुक्त द्वारा लिखित कथन फाइल किये जाने की अनुज्ञा दे सकेगा।
  • इस धारा का उद्देश्य न्यायालय और अभियुक्त के बीच संवाद स्थापित करना है क्योंकि इस प्रक्रिया से अभियुक्त को लाभ होता है और न्यायालय को अंतिम फैसले पर पहुँचने में सहायता मिलती है।
  • इस धारा में निहित प्रक्रिया प्रक्रियात्मक औपचारिकता का मामला नहीं है बल्कि प्राकृतिक न्याय के प्रमुख सिद्धांत पर आधारित है।
  • सैमसुल हक बनाम असम राज्य (2019) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने सीआरपीसी की धारा 313 के तहत निहित अभियुक्तों के अधिकारों पर विचार किया और कहा कि आरोपित सामग्री को अभियुक्तों के सामने रखा जाना चाहिये ताकि अभियुक्त को खुद का बचाव करने का उचित मौका मिल सके।

निजता का अधिकार

  • निजता का अधिकार समकालीन समय में सबसे महत्वपूर्ण मानवाधिकारों में से एक माना जाता है।
  • निजता का अधिकार भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के आंतरिक भाग के रूप में संरक्षित है।
  • गोपनीयता व्यक्ति के लिये निजी स्थान के आरक्षण को दर्शाती है, जिसे अकेले रहने के अधिकार के रूप में वर्णित किया गया है। यह अवधारणा व्यक्ति की स्वायत्तता पर आधारित है।
  • के.एस. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ (2017) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि निजता ही स्वतंत्रता की नींव है क्योंकि निजता में ही व्यक्ति यह तय कर सकता है कि स्वतंत्रता का सबसे अच्छा उपयोग कैसे किया जाये।
  • निजता व्यक्ति को उसके जीवन से जुड़े व्यक्तिगत मामलों में प्रचार की खोजी चकाचौंध से बचाती है। व्यक्ति की निजता गरिमा का एक अनिवार्य पहलू है।