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व्यवहार विधि
परक्राम्य लिखत अधिनियम की कार्यवाही का त्वरित विचारण
« »19-Oct-2023
रामधारी पाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 2 अन्य अनावश्यक तकनीकी जटिलताओं से बचते हुए, परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI Act) द्वारा शासित कार्यवाही को शीघ्र हल किया जाना चाहिये। इलाहाबाद उच्च न्यायालय |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय (तटस्थ उद्धरण संख्या - 2023: AHC:198523)
चर्चा में क्यों?
इलाहाबाद उच्च न्यायालय (HC) ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि रामधारी पाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 2 अन्य के मामले में अनावश्यक तकनीकी जटिलताओं से बचते हुए, परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI act) द्वारा शासित कार्यवाही को शीघ्र हल किया जाना चाहिये।
राम धारी पाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 2 अन्य मामले की पृष्ठभूमि
- वर्तमान आवेदन परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI act) की धारा 138 के तहत शिकायत मामले की सुनवाई समाप्त करने के लिये अपर सिविल न्यायाधीश/न्यायिक मजिस्ट्रेट, जनपद जौनपुर को निर्धारित अवधि के भीतर ट्रायल खत्म करने का निर्देश देने के लिये दायर किया गया है।
- आवेदक के वकील का तर्क यह है कि यद्यपि परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI act) के तहत यह शिकायत वर्ष 2022 में दायर की गई थी, लेकिन मुकदमा अभी तक समाप्त नहीं हो सका है।
- यह आगे प्रस्तुत किया गया कि परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 143(2) के अनुसार, अपराध के लिये मुकदमा दिन-प्रतिदिन के आधार पर आयोजित किया जाना चाहिये और धारा 143(3) के तहत यह प्रावधान है कि शिकायत दर्ज करने की तारीख से छह माह के भीतर मुकदमा समाप्त किया जाना चाहिये।
- इंडियन बैंक एसोसिएशन और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (2014) मामले पर भरोसा किया गया था, जिसमें उच्चतम न्यायालय (SC) ने परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 के तहत मामलों के शीघ्र निपटान के लिये निर्देश जारी किया था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- उच्च न्यायालय ने परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के तहत मामलों की शीघ्र सुनवाई के मामले (2021) में उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित निम्नलिखित दिशानिर्देशों पर ध्यान दिया:
1) उच्च न्यायालयों से अनुरोध है, कि इस अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायतों की सुनवाई को संक्षिप्त सुनवाई से समन सुनवाई में बदलने से पहले कारण दर्ज करने के लिये मजिस्ट्रेटों को प्रैक्टिस संबंधी निर्देश जारी करें।
2) आरोपी के खिलाफ आगे बढ़ने के लिये पर्याप्त आधार पर पहुँचने के लिये अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायत प्राप्त होने पर जाँच की जाएगी, जब ऐसा आरोपी न्यायालय के क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र से बाहर रहता है।
3) संहिता की धारा 202 के तहत जाँच के संचालन के लिये, शिकायतकर्त्ता की ओर से गवाहों के साक्ष्य को शपथ पत्र पर लेने की अनुमति दी जाएगी। उपयुक्त मामलों में, मजिस्ट्रेट गवाहों की जाँच पर ज़ोर दिये बिना जाँच को दस्तावेजों की जाँच तक सीमित कर सकता है।
4) हम अनुशंसा करते हैं कि संहिता की धारा 219 में प्रतिबंध के बावजूद, 12 माह की अवधि के भीतर किये गए अधिनियम की धारा 138 के तहत एक व्यक्ति के खिलाफ कई अपराधों के लिये एक मुकदमे के प्रावधान के लिये अधिनियम में उपयुक्त संशोधन किये जाएँ।
5) उच्च न्यायालयों से अनुरोध है कि वे धारा 138 के तहत एक शिकायत में समन की तामील को संव्यवहार का हिस्सा मानने के लिये ट्रायल कोर्ट को निर्देश जारी करें, जो कि चेक के अनादरण से संबंधित एक ही न्यायालय के समक्ष दायर सभी शिकायतों के संबंध में दिये गए निर्देश माने जाए।
6) अदालत प्रसाद (सुप्रा) और सुब्रमण्यम सेथुरमन (सुप्रा) में इस न्यायालय के निर्णयों ने कानून की सही व्याख्या की है और हम दोहराते हैं कि समन के मुद्दे की समीक्षा करने या वापस लेने की ट्रायल कोर्ट की कोई अंतर्निहित शक्ति नहीं है। इससे संहिता की धारा 322 के तहत ट्रायल कोर्ट की प्रक्रिया जारी करने के आदेश पर दोबारा विचार करने की शक्ति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, यदि यह न्यायालय के ध्यान में लाया जाता है कि उसके पास शिकायत की सुनवाई करने का क्षेत्राधिकार नहीं है।
7) संहिता की धारा 258 अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायतों पर लागू नहीं होती है और मीटर और उपकरण (सुप्रा) में इसके विपरीत निष्कर्ष उचित विधि का निर्माण नहीं करते हैं। इस पहलू से निर्णायक रूप से निपटने के लिये, धारा 138 के तहत शिकायतों के संबंध में ट्रायल कोर्ट को पुनर्विचार/वापसी करने का अधिकार देने वाले अधिनियम में संशोधन पर इस न्यायालय के दिनांक 10.03.2021 के आदेश द्वारा गठित समिति द्वारा विचार किया जाएगा।
8) अन्य सभी बिंदु, जो न्यायालय मित्र द्वारा अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट और लिखित प्रस्तुतिकरण में उठाए गए हैं और जिन पर यहाँ विचार नहीं किया गया है, उपरोक्त समिति द्वारा विचार-विमर्श का विषय होगा। इस अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायतों के शीघ्र निपटान से संबंधित किसी अन्य मुद्दे पर भी समिति द्वारा विचार किया जाएगा।
- उच्चतम न्यायालय के उपर्युक्त निदेशों को ध्यान में रखते हुए उच्च न्यायालय ने अपर सिविल जज/न्यायिक मजिस्ट्रेट, जौनपुर को परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 143(2) और 143(3) के वैधानिक प्रावधान के अनुसार शिकायत मामले की सुनवाई शीघ्रता से अधिमानतः छह माह के भीतर समाप्त करने का निर्देश दिया।
शामिल कानूनी प्रावधान शामिल
परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI act)
बातों में अपर्याप्त निश्चियों आदि के कारण चेक का अनावरण जहाँ किसी व्यक्ति द्वारा किसी ऋण या अन्य दायित्व के पूर्णतः या भागतः उन्मोचन के लिये किसी बैंककार के पास अपने द्वारा रखे गए खाते में से किसी अन्य व्यक्ति को किसी धनराशि के संदाय के लिये लिखा गया कोई चेक बैंक द्वारा संदाय किये बिना या तो इस कारण लौटा दिया जाता है कि उस खाते में जमा धनराशि उस चेक का आदरण करने के लिये अपर्याप्त है या वह उस रकम से अधिक है जिसका बैंक के साथ किये गए कराकर द्वारा उस खाते में से संदाय करने करने का ठहराव किया गया है, वहाँ ऐसे व्यक्ति के बारे में यह समझा जाएगा कि उसने अपराध किया है और वह, इस अधिनियम के किसी अन्य उपबंध पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, कारावास से, जिसकी अवधि [दो वर्ष तक की हो सकेगी या ज़ुर्माने से, जो चेक की रकम का दुगुना तक हो सकेगा, या दोनों से, दंडनीय होगा।
परंतु इस धारा में अंतर्विष्ट कोई बात तब तक लागू नहीं होगी जब तक-
(क) वह चेक जिसके लिखे जाने की तारीख से छह माह की अवधि के भीतर या उसकी विधिमान्यता की अवधि के भीतर जो भी पूर्वतर हो, बैंक को प्रस्तुत न किया गया हो.
(ख) चेक का पाने वाला या धारक, सम्यक् अनुक्रम में चेक के लेखीवाल को, असंदत्त चेक के लौटाए जाने की बाबत बैंक से उसे सूचना की प्राप्ति के तीस दिन के भीतर, लिखित रूप में सूचना देकर उक्त धनराशि के संदाय के लिये मांग नहीं करता है; और
(ग) ऐसे चेक का लेखीवाल, चेक के पाने वाले को या धारक को उक्त सूचना की प्राप्ति के पंद्रह दिन के भीतर उक्त धनराशि का संदाय सम्यक् अनुक्रम में करने में सफल रहता है।
स्पष्टीकरण - इस धारा के प्रयोजनों के लिये, "ऋण या अन्य दायित्व" से विधितः प्रवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व अभिप्रेत है।
धारा 143 - न्यायालय के मामलों का संक्षिप्त विचारण करने की शक्ति (1) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में किसी बात के होते हुए भी, इस अध्याय के अधीन सभी अपराधों का विचारण प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट या महानगर मजिस्ट्रेट द्वारा किया जाएगा और उक्त संहिता की धारा 262 से धारा 265 के उपबंध (दोनों धाराओं को सम्मिलित करते हुए), जहाँ तक हो सके, ऐसे विचारणों को लागू होंगे;
परंतु इस धारा के अधीन संक्षिप्त विचारण में किसी दोषसिद्धि की दशा में मजिस्ट्रेट के लिये ऐसे कारावास का, जिसकी अवधि एक वर्ष से अधिक नहीं होगी और ऐसे ज़ुर्माने का जिसकी रकम पाँच हजार रुपए से अधिक नहीं होगी, दंडादेश पारित करना विधिपूर्ण होगा;
परंतु यह और कि इस धारा के अधीन संक्षिप्त विचारण के प्रारंभ पर या उसके दौरान जब मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि मामले की प्रकृति ऐसी है कि एक वर्ष से अधिक अवधि के कारावास का दंडादेश पारित किया जा सकता है या यह कि किसी अन्य कारण से मामले का संक्षिप्त रूप में विचारण किया जाना अवांछनीय है तो मजिस्ट्रेट पक्षकारों को सुनने के पश्चात्, उस आशय का आदेश अभिलिखित करेगा और तत्पश्चात् ऐसे किसी साक्षी को वापस बुलाएगा जिसका परीक्षण किया जा चुका है और उक्त संहिता में उपबंधित रीति से मामले को सुनने वा पुनः सुनने के लिये अग्रसर होगा।
(2) इस धारा के अधीन किसी मामले का विचारण, यथासाध्य, अविरोध न्याय के हित में उसके समापन तक दिन प्रतिदिन जारी रखा जाएगा। जब तक कि न्यायालय लेखबद्ध किये जाने वाले कारणों से विचारण का अगले दिन से परे के लिये स्थगित किया जाना आवश्यक नहीं समझता है।
(3) इस धारा के अधीन प्रत्येक विचारण यथासंभव शीघ्रता से संचालित किया जाएगा और विचारण को परिवाद फाइल करने की तारीख से छह माह के भीतर समाप्त करने का प्रयास किया जाएगा।