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 20-Oct-2023

नवीन @ अजय बनाम मध्य प्रदेश राज्य

तीन माह के शिशु के अपहरण, बलात्कार और हत्या के आरोप में एक व्यक्ति की दोषसिद्धि और मौत की सजा को पलट दिया गया क्योंकि आरोपी को अपना बचाव करने का उचित मौका नहीं दिया गया है।

उच्चतम न्यायालय

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय (SC) ने नवीन @ अजय बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले में तीन माह के शिशु के अपहरण, बलात्कार और हत्या के आरोप में एक व्यक्ति की दोषसिद्धि और मौत की सजा को पलट दिया है।

नवीन @ अजय बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि

  • शिकायतकर्त्ता (सुनील) और उसकी पत्नी इंदौर में गुब्बारे बेचने का व्यवसाय करते थे, उनकी तीन माह और चार दिन की एक बेटी (मृतक) थी।
  • वे एक रेलवे प्लेटफॉर्म पर सो रहे थे और जब वे उठे तो उन्होंने मृतिका को उस स्थान पर नहीं पाया जहाँ वह सो रही थी।
  • शिकायतकर्त्ता द्वारा मृतिका के संबंध में गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई गई थी, बाद में एक व्यक्ति ने पुलिस स्टेशन एमजी रोड, इंदौर (एमपी) को सूचित किया कि लगभग तीन माह की लड़की का शव मिला है।
  • इसके बाद सुनील मौके पर गया और मृतक की पहचान अपनी बेटी के रूप में की।
  • सीसीटीवी फुटेज से साक्ष्य एकत्र करने, आपत्तिजनक वस्तुओं की बरामदगी, रासायनिक विश्लेषण रिपोर्ट आदि सहित जाँच पूरी करने के बाद, आरोप पत्र दायर किया गया था।
  • मुकदमे के दौरान रिकॉर्ड पर लाए गए साक्ष्यों के आधार पर, जिसमें अभियोजन पक्ष ने 29 गवाहों की परीक्षा की और विशेषज्ञ राय/रासायनिक रिपोर्ट/एफएसएल रिपोर्ट सहित 78 दस्तावेजों को भी साबित किया, ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ता को भारतीय दंड संहिता,1860 (3 महीने की बच्ची के साथ बलात्कार और हत्या करने के लिये) की धारा 363, 366-a, 376(a), 376(2)(i), 376(2)(j), 376(2)(k), 2 376(2)(m), 302 और 201, धारा 5 (m), 5 (i) और लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) की धारा 6 के तहत सजा सुनाई।
  • सत्र न्यायालय ने मौत की सजा की पुष्टि के लिये दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPc) की धारा 396 के तहत उच्च न्यायालय को संदर्भ भेजा।
  • उच्च न्यायालय ने मौत की सजा की पुष्टि की और परिणामस्वरूप अपीलकर्त्ता द्वारा उच्चतम न्यायालय में आपराधिक अपील दायर की गई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायालय ने बशीरा बनाम उत्तर प्रदेश (1968) मामले पर ध्यान दिया जिसमें सुनवाई 13 दिनों में की गई थी, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "हमारी राय में, वकील की नियुक्ति और मुकदमे की शुरुआत के बीच जो समय बीतना चाहिये उसके बारे में कोई कठोर नियम नहीं बनाया जा सकता है लेकिन प्रत्येक मामले की परिस्थितियों पर, सत्र न्यायालय को यह सुनिश्चित करना होगा कि वकील को दिया गया समय बचाव की तैयारी के लिये पर्याप्त है।
  • न्यायमूर्ति बी. आर. गवई, पी. एस. नरसिम्हा और प्रशांत कुमार मिश्रा की न्यायपीठ ने माना कि आरोपी को अपना बचाव करने का 'उचित मौका' नहीं दिया गया क्योंकि मुकदमा 23 दिनों में समाप्त हो गया था।

निष्पक्ष सुनवाई

  • निष्पक्ष सुनवाई की अवधारणा कानूनी प्रणाली में एक मौलिक सिद्धांत है क्योंकि यह सुनिश्चित करता है कि अपराध के आरोपी व्यक्तियों को उसके अपराध या निर्दोषिता का निर्धारण करने के लिये एक उचित और निष्पक्ष प्रक्रिया प्रदान की जाती है। निष्पक्ष सुनवाई के कई प्रमुख घटकों में शामिल हैं:
    • निष्पक्ष न्यायाधीश और जूरी: मुकदमे की अध्यक्षता ऐसे न्यायाधीश द्वारा की जानी चाहिये जो निष्पक्ष और पक्षपात रहित हो।
    • कानूनी प्रतिनिधित्व: अभियुक्त को कानूनी प्रतिनिधित्व का अधिकार है, और यदि वह एक वकील का खर्च वहन नहीं कर सकता है, तो उसे एक वकील उपलब्ध कराया जाना चाहिये। निःशुल्क कानूनी सहायता की अवधारणा भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 39A के तहत प्रदान की गई है।
    • निर्दोषिता का अनुमान: दोषी साबित होने तक आरोपी को निर्दोष माना जाता है। उचित संदेह से परे प्रतिवादी के अपराध को स्थापित करने के लिये साक्ष्य का भार अभियोजन पक्ष पर है।
    • मौन रहने का अधिकार: आरोपी को मौन रहने और स्वयं को दोषी न ठहराने का अधिकार है। उसे अपनी इच्छा के विरुद्ध गवाही देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता। आत्म-अभिशंसन नहीं (No Self-incrimination) के विरुद्ध अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(3) द्वारा प्रदान किया गया है।
    • खुला ट्रायल: अधिकतर मामलों में, सुनवाई खुले न्यायालय में होती है, जिसमें जनता और मीडिया को भाग लेने की अनुमति मिलती है। यह पारदर्शिता यह सुनिश्चित करने में मदद करती है कि न्याय निष्पक्ष रूप से दिया जाये।
    • त्वरित सुनवाई का अधिकार: अभियुक्त को कानूनी प्रक्रिया में अनुचित विलंब का सामना नहीं करना चाहिये।
  • हुसैनारा खातून बनाम गृह सचिव, बिहार राज्य (1979) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि त्वरित सुनवाई का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक मौलिक अधिकार है।
    • अपील का अधिकार: यदि दोषी ठहराया जाता है, तो आरोपी को आमतौर पर फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील करने का अधिकार होता है। अपील करने का अधिकार एक नैसर्गिक अधिकार नहीं बल्कि एक वैधानिक अधिकार है।
    • दोहरे ख़तरे से सुरक्षा: अभियुक्त पर एक ही अपराध के लिये दो बार मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, जिससे उसे दोहरे ख़तरे से बचाया जा सके।
  • दोहरे खतरे की अवधारणा भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(2) और दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 300 के तहत प्रदान की गई है।