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आपराधिक कानून
बच्चे के नैसर्गिक अभिभावक के रूप में पिता की पात्रता
« »05-Sep-2023
मो. इरशाद और अन्य. बनाम नदीम "पहली पत्नी की मृत्यु के बाद पिता की दूसरी शादी उसे बच्चे का नैसर्गिक अभिभावक होने से अयोग्य नहीं ठहराती"। न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत और नीना बंसल कृष्णा |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में दिल्ली उच्चतम न्यायालय ने मोहम्मद इरशाद और अन्य. बनाम नदीम मामले में माना कि पहली पत्नी की मृत्यु के बाद पिता की दूसरी शादी उसे अपने बच्चे का नैसर्गिक अभिभावक बनने के लिये अयोग्य नहीं ठहराती।
पृष्ठभूमि
- अपीलकर्ता की बेटी और प्रतिवादी की 2007 में शादी हो गई और 2008 में बच्चे का जन्म हुआ।
- अपीलकर्ताओं (नाना-नानी) के अनुसार, शादी के 7 साल के भीतर यानी 22 जनवरी, 2010 को दहेज की मांग और उत्पीड़न के कारण प्रतिवादी ने उनकी बेटी की हत्या कर दी।
- भारतीय दंड संहिता, 1860 (Indian Penal Code, 1860 (IPC) की धारा 304B के तहत प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) प्रतिवादी और उसके माता-पिता के खिलाफ दर्ज की गई थी।
- इसके बाद, प्रतिवादी और उसके माता-पिता को जेल भेज दिया गया।
- बच्चे को 30 सितंबर, 2010 को अपीलकर्ताओं को सौंप दिया गया था और तब से बच्चा लगातार उनकी अभिरक्षा में है।
- नवंबर 2012 को प्रतिवादी और उसके माता-पिता को आपराधिक मामले से बरी कर दिया गया।
- प्रतिवादी ने इस आधार पर अपीलकर्ताओं से बच्चे की अंतरिम अभिरक्षा की मांग करते हुए एक आवेदन दायर किया कि उसे और उसके परिवार के सदस्यों को एक आपराधिक मामले में बरी कर दिया गया है जिसे बाद में खारिज कर दिया गया था।
- अपीलकर्ताओं ने फैमिली कोर्ट में याचिका दायर की कि उन्हें बच्चे का अभिभावक नियुक्त किया जाए क्योंकि पिता ने दूसरी शादी कर ली है, लेकिन बाद में याचिका खारिज कर दी गई।
- इसके बाद अपीलकर्ताओं द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की गई।
- नाबालिग के अभिभावक की नियुक्ति की याचिका खारिज करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि आपराधिक मुकदमे के अलावा पति की अयोग्यता के लिये रिकॉर्ड पर कोई अन्य कारक नहीं था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत और नीना बंसल कृष्णा की खंडपीठ ने कहा कि पहली पत्नी को खोने के बाद पिता की दूसरी शादी को उसके बच्चे का नैसर्गिक अभिभावक बने रहने के लिये अयोग्य नहीं माना जा सकता है। यहाँ तक कि वित्तीय स्थिति में असमानता भी किसी बच्चे की कस्टडी नैसर्गिक माता-पिता को देने से इनकार करने के लिये एक प्रासंगिक कारक नहीं हो सकती है।
- पीठ ने आगे कहा कि नैसर्गिक माता-पिता के स्नेह का कोई विकल्प नहीं हो सकता। इसमें कहा गया है कि हालाँकि नाना-नानी के मन में बच्चे के प्रति अत्यधिक प्यार और स्नेह हो सकता है, लेकिन यह नैसर्गिक माता-पिता के प्यार और स्नेह का स्थान नहीं ले सकता।
- पीठ ने शुरू में पिता को सीमित मुलाक़ात का अधिकार देना उचित समझा, जिस पर उसके आवेदन के माध्यम से एक वर्ष के बाद फिर से विचार किया जा सकता है, यदि परिस्थितियाँ उचित हों।
कानूनी प्रावधान
हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 (Hindu Minority and Guardianship Act, 1956)
- यह अधिनियम वर्ष 1956 में हिंदुओं के बीच अप्राप्तवयता और संरक्षकता (Minority and Guardianship) से संबंधित कानून को संशोधित और संहिताबद्ध करने के उद्देश्य से अधिनियमित किया गया था।
हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 (Hindu Minority and Guardianship Act, 1956) की धारा 6, इस अधिनियम की धारा 6 एक हिंदू नाबालिग के नैसर्गिक संरक्षक के प्रावधानों से संबंधित है। यह प्रकट करता है की –
6. हिन्दू अप्राप्तवय के नैसर्गिक संरक्षक - हिन्दू अप्राप्तवय के नैसर्गिक संरक्षक अप्राप्तवय के शरीर के बारे में और (अविभक्त कुटुम्ब की सम्पत्ति में उसके अविभक्त हित को छोड़कर) उसकी सम्पति के बारे में भी, निम्नलिखित हैं -
(क) किसी लड़के या अविवाहिता लड़की की दशा में पिता और उसके पश्चात् माता; परन्तु जिस अप्राप्तवय ने पाँच वर्ष की आयु पूरी न कर ली हो उसकी अभिरक्षा मामूली तौर पर माता के हाथ में होगी;
(ख) अधर्मज लड़के तथा अधर्मज अविवाहिता लड़की की दशा में माता और उसके पश्चात् पिता;
(ग) विवाहिता लड़की की दशा में पति;
परन्तु जो भी व्यक्ति यदि —
(क) वह हिन्दू नहीं रह गया है; या
(ख) वह वानप्रस्थ या यति या संन्यासी होकर संसार को पूर्णत: और अन्तिम रूप से त्याग चुका है, तो इस धारा के उपबन्धों के अधीन अप्राप्तवय के नैसर्गिक संरक्षक के रूप में कार्य करने का हकदार न होगा ।
स्पष्टीकरण - इस धारा में 'पिता' और 'माता' पदों के अन्तर्गत सौतेला पिता और सौतेली माता नहीं आते।
- जाजाभाई बनाम पठानखान (1971) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि माँ को एक नाबालिग लड़की का नैसर्गिक अभिभावक माना जा सकता है क्योंकि वह अपनी माँ की देखभाल और संरक्षण में थी।
भारतीय दंड संहिता की धारा 304
यह धारा दहेज हत्या से संबंधित है। यह प्रकट करता है की -
(1) जहाँ किसी महिला की मृत्यु उसके विवाह के सात साल के भीतर किसी जलने या शारीरिक चोट के कारण हुई हो या सामान्य परिस्थितियों के अलावा किसी अन्य कारण से हुई हो और यह दिखाया गया हो कि उसकी मृत्यु से ठीक पहले उसके पति द्वारा उसके साथ क्रूरता या उत्पीड़न किया गया था या दहेज की मांग के लिये या उसके संबंध में उसके पति के किसी भी रिश्तेदार की मृत्यु को "दहेज मृत्यु" कहा जाएगा और ऐसे पति या रिश्तेदार को उसकी मृत्यु का कारण माना जाएगा।
स्पष्टीकरण -इस उपधारा के प्रयोजनों के लिये, दहेज का वही अर्थ होगा जो दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 2 में है।
(2) जो कोई भी दहेज हत्या करेगा उसे कारावास से दंडित किया जाएगा जिसकी अवधि सात वर्ष से कम नहीं होगी, लेकिन जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है।