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सिविल कानून

उपभोक्ता संरक्षण अ धिनियम, 2019 के अंतर्गत अधिवक्ताओं को उत्तरदायित्व से मुक्ति

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 15-May-2024

बार ऑफ इंडियन लॉयर्स बनाम डी.के.गांधी

“विधिक व्यवसाय करने वाले अधिवक्ताओं के विरुद्ध "सेवा में कमी" का आरोप लगाने वाली शिकायत, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के अंतर्गत क्षतिपूर्ति योग्य नहीं मानी जाएगी”।

न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी एवं पंकज मिथल

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी एवं पंकज मिथल की खंडपीठ ने कहा कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के अंतर्गत सेवाओं में कमी के लिये अधिवक्ताओं को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता।

  • उच्चतम न्यायालय ने यह टिप्पणी बार ऑफ इंडियन लॉयर्स बनाम डी.के. गांधी के मामले में दी।

बार ऑफ इंडियन लॉयर्स बनाम डी.के. गांधी मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • प्रारंभ:
    • श्री डी. के. गांधी ने 20,000 रुपए का चेक बाउंस होने पर श्री कमल शर्मा के विरुद्ध परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 (NI अधिनियम) की धारा 138 के अंतर्गत मामला दर्ज करने के लिये एक अधिवक्ता की सेवाएँ लीं।
    • न्यायालयी कार्यवाही के दौरान श्री कमल शर्मा, श्री डी. के. गांधी को बाउंस हुए चेक के लिये 20,000 रुपए तथा न्यायालयी व्यय के रूप में 5000 रुपए देने पर सहमत हुए।
    • श्री कमल शर्मा ने अधिवक्ता को श्री डी. के. गांधी की ओर से 20,000 रुपए का डीडी/पे ऑर्डर तथा 5000 रुपए का एक अकाउंट पेयी चेक दिया।
    • हालाँकि अधिवक्ता ने इन्हें श्री डी. के. गांधी को नहीं दिया, इसके बजाय अधिवक्ता ने श्री डी. के. गांधी से अपनी फीस के रूप में 5000 रुपए नकद की मांग की।
    • अधिवक्ता ने श्री डी. के. गांधी से फीस के रूप में 5,000/- रूपए के लिये लघु वाद न्यायालय में वाद दायर किया।
    • बाद में, अधिवक्ता ने श्री डी. के. गांधी को डीडी एवं चेक दिया, लेकिन श्री कमल शर्मा ने अधिवक्ता के कहने पर 5,000/- के चेक का राशि-भुगतान रोक दिया।
  • सेवा में कमी की शिकायत:
    • डी. के. गांधी ने सेवा में कमी का आरोप लगाते हुए ज़िला उपभोक्ता विवाद निवारण फोरम के समक्ष अधिवक्ता के विरुद्ध उपभोक्ता शिकायत दायर की तथा मुआवज़े की मांग की।
  • उपभोक्ता फोरम का निर्णय:
    • ज़िला फोरम ने डी. के. गांधी की शिकायत को स्वीकार कर लिया, लेकिन राज्य आयोग ने अधिवक्ताओं की अपील को यह कहते हुए अनुमति दे दी कि अधिवक्ताओं की सेवाएँ उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 में "सेवा" की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आती हैं।
    • हालाँकि राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (NCDRC) ने डी. के. गांधी की पुनरीक्षण याचिका को यह कहते हुए अनुमति दे दी कि अधिवक्ताओं की सेवाओं में कमी का आरोप लगाने वाली शिकायतें उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत सुनवाई योग्य होंगी।
  • उच्चतम न्यायालय में अपील:
    • इससे व्यथित होकर बार ऑफ इंडियन लॉयर्स, दिल्ली हाई कोर्ट बार एसोसिएशन, बार काउंसिल ऑफ इंडिया एवं स्वयं उस अधिवक्ता द्वारा उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई थी।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम का विधायी आशय एवं उद्देश्य:
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि वर्ष 2019 में पुनः अधिनियमित उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 का उद्देश्य केवल उपभोक्ताओं को अनुचित व्यापारिक प्रथाओं एवं अनैतिक व्यापार प्रथाओं से बचाना था।
    • यह सुझाव देने के लिये रिकॉर्ड पर कुछ भी नहीं है कि विधायिका का आशय, पेशेवरों द्वारा प्रदान किये गए व्यवसायों या सेवाओं को अधिनियम के दायरे में शामिल करना था।

  • विधिक व्यवसाय सुई जेनेरिस है:
    • न्यायालय ने कहा कि विधिक व्यवसाय सुई जेनरिस अर्थात् प्रकृति में अद्वितीय है तथा इसकी तुलना किसी अन्य व्यवसाय से नहीं की जा सकती।
    • पेशेवरों के रूप में अधिवक्ताओं की भूमिका, स्थिति एवं कर्त्तव्यों को ध्यान में रखते हुए, विधिक व्यवसाय की तुलना, किसी अन्य पारंपरिक व्यवसाय से नहीं की जा सकती है।
    • न्यायालय ने कहा कि यह प्रकृति में वाणिज्यिक नहीं है, बल्कि मूल रूप से एक सेवा-उन्मुख, महान व्यवसाय है।
  • अधिवक्ताओं की सेवाएँ ‘व्यक्तिगत सेवा संविदा’ के अंतर्गत आती हैं:
    • न्यायालय ने माना कि किसी अधिवक्ता को किराये पर ली गई या ली गई सेवा "व्यक्तिगत सेवा के संविदा" के अंतर्गत एक सेवा होगी तथा इसलिये इसे उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 2(42) के अंतर्गत "सेवा" की परिभाषा से बाहर रखा जाएगा।
    • ऐसा इसलिये है, क्योंकि एक अधिवक्ता रोज़गार के दौरान सेवाएँ कैसे प्रदान करता है, इस पर ग्राहक द्वारा सीमा से परे प्रत्यक्ष नियंत्रण का प्रयोग किया जाता है।
  • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत अधिवक्ताओं के विरुद्ध शिकायतें सुनवाई योग्य नहीं:
    • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि विधिक व्यवसाय करने वाले अधिवक्ताओं के विरुद्ध "सेवा में कमी" का आरोप लगाने वाली शिकायत उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के अंतर्गत सुनवाई योग्य नहीं होगी।
    • न्यायालय ने NCDRC के उस निर्णय को रद्द कर दिया, जो इंडियन मेडिकल एसोसिएशन बनाम वी.पी. शांता एवं अन्य (1996) मामले के आधार पर था जिसका उद्देश्य अधिवक्ताओं को अधिनियम के दायरे में लाना था।
      • न्यायालय ने इंडियन मेडिकल एसोसिएशन मामले को एक बड़ी पीठ के पास विचार के लिये भेज दिया क्योंकि यह पुनः विचार करने योग्य है।

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के अंतर्गत सेवा क्या है?

  • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 की धारा 2(1)(o) और उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019 की धारा 2(42) के अंतर्गत "सेवा" की परिभाषा का उल्लेख किया गया है।
    • इससे तात्पर्य संभावित उपयोगकर्त्ताओं को उपलब्ध कराई गई किसी भी विवरण की सेवा है।
    • इसमें बैंकिंग, बीमा, परिवहन आदि से संबंधित सुविधाओं का प्रावधान शामिल है।
    • नि:शुल्क या व्यक्तिगत सेवा के संविदा के अंतर्गत कोई भी सेवा प्रदान करना शामिल नहीं है।

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के अंतर्गत ‘सेवाओं की कमी’ क्या है?

  • परिभाषा:
    • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 2 (1) (g) और उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 2 (11) "कमी" को गुणवत्ता, प्रकृति एवं तरीके में किसी भी प्रकार की गलती, अपूर्णता, कमी या अपर्याप्तता के रूप में परिभाषित करती है। किसी भी विधि के अंतर्गत बनाए रखने के लिये आवश्यक प्रदर्शन या किसी संविदा के अंतर्गत या अन्यथा किसी सेवा के संबंध में किसी व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला प्रदर्शन इसमें शामिल है:
      • सेवा प्रदाता द्वारा किया गया कोई भी लापरवाही या चूक या कमीशन, जिससे उपभोक्ता को हानि या चोट पहुँचती है।
      • सेवा प्रदाता द्वारा जानबूझकर उपभोक्ता से प्रासंगिक जानकारी छिपाना।
  • अवधारणा:
    • "सेवाओं की कमी" की अवधारणा में उपभोक्ताओं को प्रदान की जाने वाली सेवाओं के अपेक्षित मानक में कोई विफलता, कमी या चूक सम्मिलित है।
    • इसमें ऐसे उदाहरण शामिल हैं जहाँ प्रदान की गई सेवा विधिक आवश्यकताओं, संविदात्मक दायित्वों या उपभोक्ता की उचित अपेक्षाओं से कम है।
    • सेवा प्रदाता द्वारा लापरवाही या जानबूझकर किये गए कार्यों या चूक के कारण कमी उत्पन्न हो सकती है, जिससे उपभोक्ता में असंतोष, असुविधा या हानि हो सकता है।
  • शिकायत:
    • यदि किसी उपभोक्ता को प्रदान की गई सेवाओं में कमी का सामना करना पड़ता है, तो वे अधिनियम के अंतर्गत स्थापित उचित उपभोक्ता फोरम में शिकायत दर्ज कर सकते हैं।
    • शिकायत में शिकायतकर्त्ता, सेवा प्रदाता, मामले के तथ्य, कथित कमी, मांगी गई राहत एवं सहायक दस्तावेज़ का विवरण शामिल होना चाहिये।
  • निवारण तंत्र:
    • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 उपभोक्ता शिकायतों के निवारण के लिये एक त्रि-स्तरीय अर्ध-न्यायिक तंत्र स्थापित करता है:
      • ज़िला उपभोक्ता विवाद निवारण फोरम: एक करोड़ रुपए तक के दावों के लिये।
      • राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग: एक करोड़ से लेकर दस करोड़ के दावों के लिये।
      • NCDRC: दस करोड़ रुपए से अधिक के दावों के लिये।

इस मामले में उद्धृत महत्त्वपूर्ण मामले क्या हैं?

  • धारंगधरा केमिकल वर्क्स लिमिटेड बनाम सौराष्ट्र राज्य एवं अन्य (1957):
  • न्यायालय ने 'सेवा के संविदा’ को 'सेवाओं के संविदा’ से निश्चित रूप से अलग करने में कठिनाई को पहचाना तथा निम्नलिखित परीक्षण निर्धारित किया:
    • "इसलिये, दृष्टिकोण का सही तरीका यह विचार करना होगा कि क्या कार्य की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए नियोक्ता द्वारा उचित नियंत्रण एवं पर्यवेक्षण किया गया था"।
  • बायरम पेस्टनजी गरीवाला बनाम यूनियन बैंक ऑफ इंडिया एवं अन्य (1992):
    • इसमें सामान्य विधिक परंपराओं में निहित भारतीय विधिक प्रणाली की अनूठी प्रकृति पर चर्चा की गई।
  • उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य विधि अधिकारी संघ एवं अन्य (1994):
    • इसने विधिक व्यवसाय को अनिवार्य रूप से एक सेवा-उन्मुख, महान व्यवसाय के रूप में मान्यता दी।
  • इंडियन मेडिकल एसोसिएशन बनाम वी. पी. शांता एवं अन्य (1996):
    • यह माना गया कि CP अधिनियम के अंतर्गत 'सेवा' की व्यापक परिभाषा में चिकित्सकों द्वारा प्रदान की गई चिकित्सकीय सेवाएँ शामिल होंगी (यह मामला एक बड़ी पीठ द्वारा पुनर्विचार के लिये भेजा गया था)।
  • हिमालयन कोऑपरेटिव ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी बनाम बलवान सिंह एवं अन्य (2015):
    • इसमें अधिवक्ता -ग्राहक संबंध एवं अधिवक्ता पर ग्राहक द्वारा प्रयोग किये जाने वाले नियंत्रण पर चर्चा की गई।