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आपराधिक कानून

फरलो (प्रावकाश)

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 09-Aug-2024

प्रहलाद फेकू गुप्ता बनाम महाराष्ट्र राज्य 

“केवल दोषी की अविवाहित स्थिति के आधार पर फरलो देने से प्रतिषेध करना, प्रतिषेध करने का अपर्याप्त आधार है”।

न्यायमूर्ति विभा कंकनवाड़ी और न्यायमूर्ति वृषाली जोशी    

स्रोत:  बॉम्बे उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर पीठ ने निर्णय दिया कि जेल अधिकारी किसी अपराधी को केवल उसकी युवावस्था और वैवाहिक स्थिति के आधार पर फरलो या पैरोल देने से प्रतिषेध नहीं कर सकते। न्यायालय ने जेल के विशेष महानिरीक्षक को फरलो के लिये प्रहलाद गुप्ता के आवेदन पर पुनर्विचार करने का निर्देश दिया। इस निर्णय में इस धारणा को चुनौती दी गई है कि युवा, अविवाहित व्यक्तियों के भागने की संभावना अधिक होती है और इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि ऐसी धारणाओं को पैरोल पात्रता निर्धारित नहीं करनी चाहिये ।

  • न्यायमूर्ति विभा कंकनवाड़ी और न्यायमूर्ति वृषाली जोशी ने प्रह्लाद फेकू गुप्ता बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में यह व्यवस्था दी।

प्रहलाद फेकू गुप्ता बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • याचिकाकर्त्ता प्रहलाद गुप्ता भारतीय दण्ड संहिता, 1860 के अधीन हत्या, घर में जबरन प्रवेश और साक्ष्य नष्ट करने जैसे अपराधों के लिये आजीवन कारावास का दण्ड भोग रहा है।
  • लगभग 4 वर्ष और 5 महीने का दण्ड भुगतने के बाद, गुप्ता ने 8 मई, 2023 को 28 दिनों के फरलो के लिये आवेदन किया।
  • नागपुर के विशेष जेल महानिरीक्षक ने 11 सितंबर, 2023 को फरलो आवेदन को अस्वीकार कर दिया।
  • नागपुर के विशेष जेल महानिरीक्षक ने 11 सितंबर, 2023 को फरलो आवेदन को अस्वीकार कर दिया।
  • रिपोर्ट में गुप्ता की आयु (26 वर्ष) और अविवाहित स्थिति को फरार होने के जोखिम का संकेत देने वाले कारक बताया गया है।
  • गुप्ता ने भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 226 और 227 के अंतर्गत बॉम्बे उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ के समक्ष एक रिट याचिका दायर की।
  • याचिका में विशेष जेल महानिरीक्षक के उस आदेश को चुनौती दी गई थी जिसमें फरलो देने से इनकार कर दिया गया था।
  • गुप्ता ने उक्त आदेश को रद्द करने की मांग की तथा न्यायालय से अनुरोध किया कि वह प्राधिकारियों को उन्हें फरलो देने का निर्देश दे।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • बॉम्बे उच्च न्यायालय, नागपुर पीठ ने निर्णय दिया कि किसी दोषी की अविवाहित स्थिति और युवावस्था ही फरलो देने से प्रतिषेध करने के लिये पर्याप्त आधार नहीं हैं तथा इस बात पर ज़ोर दिया कि जेल प्राधिकारियों को पुलिस रिपोर्ट से परे फरलो आवेदनों का स्वतंत्र रूप से मूल्यांकन करना चाहिये ।
  • न्यायालय ने पारिवारिक संपर्क बनाए रखने और पुनर्वास में सहायता के लिये फरलो के महत्त्व पर ज़ोर दिया तथा कहा कि परिवार से संपर्क के बिना लंबे समय तक कारावास में रहना कैदी और समाज दोनों के लिये हानिकारक है।
  • पीठ ने विशेष कारागार महानिरीक्षक के फरलो देने से इनकार करने के आदेश को रद्द कर दिया तथा आवेदन पर नए सिरे से विचार करने का निर्देश दिया, जिसमें कहा गया कि उपयुक्त शर्तों के माध्यम से फरार होने के जोखिम को कम किया जा सकता है।
  • निर्णय में फरलो को दोषियों का विधिक अधिकार (वैधानिक शर्तों के अधीन) माना गया तथा तीन सप्ताह के भीतर फरलो प्रदान करने का आदेश दिया गया तथा इस प्रकार के निर्णयों में प्राधिकारियों द्वारा विवेक का प्रयोग करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया।
  • ये निर्णय सार्वजनिक सुरक्षा और सुधारात्मक प्रणाली के पुनर्वास लक्ष्यों के बीच संतुलन पर प्रकाश डालते हैं तथा फरलो संबंधी निर्णयों के लिये अधिक सूक्ष्म दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं।

फरलो (Furlough) क्या है?

  • फरलो किसी कैदी को अभिरक्षा से अस्थायी रूप से रिहा करना है, जो विशिष्ट उद्देश्यों के लिये दिया जाता है, जैसे पारिवारिक संबंध बनाए रखना या तत्काल व्यक्तिगत मामलों को निपटाना।
  • इसे सामान्यतः पात्र कैदियों के लिये अधिकार का मामला माना जाता है, जो कुछ शर्तों और नियमों के अधीन है, जबकि पैरोल अधिक विवेकाधीन है।
  • फरलो का प्राथमिक उद्देश्य कैदियों को सामाजिक संपर्क और पारिवारिक रिश्ते बनाए रखने में सक्षम बनाना है, जिससे उनके पुनर्वास तथा समाज में पुनः एकीकरण में सहायता मिल सके।
  • फरलो के लिये पात्रता के लिये सामान्यतः यह आवश्यक है कि कैदी ने अपनी दण्ड अवधि का न्यूनतम भाग पूरा कर लिया हो तथा अच्छा आचरण बनाए रखा हो, हालाँकि विशिष्ट मानदण्ड क्षेत्राधिकार के अनुसार अलग-अलग हो सकते हैं।
  • फरलो विशिष्ट शर्तों के तहत दी जाती है, जिसमें स्थानीय पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट करना, आवागमन पर प्रतिबंध तथा निर्दिष्ट समय पर जेल लौटने की आवश्यकता शामिल हो सकती है।

फरलो से संबंधित विधिक प्रावधान क्या हैं?

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS):
    • धारा 473: दण्डादेश को निलंबित या क्षमा करने की शक्ति।
    • किसी व्यक्ति को किसी अपराध के लिये दण्ड दिये जाने के उपरांत, किसी भी समय, समुचित सरकार को, शर्त सहित या बिना शर्त, सज़ा को निलंबित करने या क्षमा करने का अधिकार है।
    • निलंबन या क्षमा के लिये आवेदन पर विचार करते समय, सरकार उस पीठासीन न्यायाधीश की राय ले सकती है जिसने दोषी ठहराया था या दोषसिद्धि की पुष्टि की थी, साथ ही कारणों और प्रासंगिक परीक्षण रिकॉर्ड भी ले सकती है।
    • यदि शर्तें पूरी नहीं होती हैं तो सरकार निलंबन या क्षमा को रद्द कर सकती है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति को दण्ड का शेष भाग पूरा करने के लिये पुनः गिरफ्तार किया जा सकता है।
    • 18 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्तियों के लिये निलंबन या क्षमा (ज़ुर्माने को छोड़कर) के लिये याचिका, उस व्यक्ति के जेल में रहते हुए ही, प्रभारी अधिकारी के माध्यम से या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा कारावास की घोषणा के साथ प्रस्तुत की जानी चाहिये।
    • ये प्रावधान स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने या दायित्व लगाने वाले सभी आदेशों पर लागू होते हैं, जिसमें "उपयुक्त सरकार" या तो संघीय मामलों के लिये केंद्र सरकार होगी या अन्य मामलों के लिये राज्य सरकार होगी।
  • कारागार अधिनियम 1894:
    • जेल अधिनियम 1894 की धारा 59 के अनुसरण में बनाए गए फरलो और पैरोल नियम।
    • फरलो की स्वीकृति मुख्य रूप से जेल नियमों के नियम 3 और नियम 4 द्वारा विनियमित होती है।
    • नियम 3 में कैदियों को उनकी कारावास अवधि के आधार पर फरलो दिये जाने के लिये पात्रता मानदंड की रूपरेखा दी गई है।
    • नियम 4 फरलो देने पर सीमाएँ आरोपित करता है।
    • नियम 3 में "रिहा किया जा सकता है" शब्द से संकेत मिलता है कि फरलो कैदियों का पूर्ण अधिकार नहीं है।
    • नियम 17 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ये नियम कैदियों को फरलो पर रिहाई का दावा करने का विधिक अधिकार नहीं देते हैं।
    • नियम 3 और 4 में उल्लिखित शर्तों के अधीन, फरलो प्रदान करना एक विवेकाधीन उपाय है।
    • उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि फरलो कैदियों का विधिक अधिकार नहीं है।

पैरोल क्या है?

  • यह दण्ड को निलंबित करके कैदी को रिहा करने की प्रणाली है।
    • यह रिहाई सशर्त होती है, जो आमतौर पर कैदी के अच्छे व्यवहार पर निर्भर होती है, तथा इसके लिये एक निश्चित अवधि तक प्राधिकारियों को समय-समय पर रिपोर्ट करना आवश्यक होता है।
  • पैरोल कोई अधिकार नहीं है तथा यह किसी कैदी को किसी विशिष्ट कारण से दिया जाता है, जैसे परिवार में मृत्यु हो जाना या किसी रक्त संबंधी का विवाह होना।
  • किसी कैदी को पर्याप्त कारण बताने के बाद भी उसे रिहा करने से इनकार किया जा सकता है, यदि सक्षम प्राधिकारी इस बात से संतुष्ट हो कि दोषी को रिहा करना समाज के हित में नहीं होगा।

पैरोल और फरलो के बीच अंतर?

  • रिहाई की प्रकृति:
    • पैरोल और फरलो दोनों ही कारावास से एक अस्थायी सशर्त रिहाई के रूप हैं। हालाँकि पैरोल विशिष्ट उद्देश्यों के लिये दी जाती है, जबकि फरलो एक आवधिक रिहाई है जिसके लिये किसी विशेष कारण की आवश्यकता नहीं होती है। (महाराष्ट्र राज्य बनाम सुरेश पांडुरंग दरवाकर, 2006)
  •  उद्देश्य:
    • पैरोल का उद्देश्य विशिष्ट आवश्यकताओं या कारणों को संबोधित करना है, जबकि फरलो का उद्देश्य कैदी के परिवार और सामाजिक संबंधों को बनाए रखना और लंबे समय तक कारावास में रहने के प्रतिकूल प्रभावों को कम करना है। (महाराष्ट्र राज्य बनाम सुरेश पांडुरंग दरवाकर, 2006; असफाक बनाम राजस्थान राज्य, 2017)
  • योग्यता:
    • नियम 3 के अनुसार फरलो की पात्रता न्यूनतम निर्धारित दण्ड अवधि पूरी करने के आधार पर निर्धारित की जाती है, जबकि पैरोल दर्शाए गए विशिष्ट कारण के आधार पर दी जा सकती है। (महाराष्ट्र राज्य बनाम सुरेश पांडुरंग दरवाकर, 2006)
  • कारण की आवश्यकता:
    • पैरोल देने के लिये नियम 19 के अनुसार स्पष्ट रूप से कारण बताना होगा। इसके विपरीत, फरलो के लिये विशिष्ट कारणों का प्रावधान आवश्यक नहीं है। (महाराष्ट्र राज्य बनाम सुरेश पांडुरंग दर्वाकर, 2006)
  • विवेकाधीन प्रकृति:
    • फरलो पर रिहाई कैदी का पूर्ण अधिकार नहीं है और यह नियम 4(4) और 6 में उल्लिखित शर्तों के अधीन है। समाज के हित में इसे अस्वीकार किया जा सकता है। हालाँकि पैरोल केवल तभी दी जानी चाहिये जब पर्याप्त कारण प्रदर्शित किये गए हो। (महाराष्ट्र राज्य बनाम सुरेश पांडुरंग दर्वाकर, 2006)
  • दण्ड अवधि की गणना:
    • फरलो पर बिताई गई अवधि को कारावास में बिताई गई अवधि माना जाता है और इसे कुल दण्डाविधि में गिना जाता है। इसके विपरीत, पैरोल की अवधि को सज़ा में क्षमा के रूप में नहीं गिना जाता है। (महाराष्ट्र राज्य बनाम सुरेश पांडुरंग दरवाकर, 2006 हरियाणा राज्य बनाम मोहिंदर सिंह, 2000)
  • अवधि एवं आवृत्ति:
    • पैरोल एक महीने तक बढ़ाया जा सकता है, जबकि फरलो अधिकतम चौदह दिनों तक सीमित है। पैरोल कई बार दी जा सकती है, जबकि फरलो सीमाओं के अधीन है। (असफाक बनाम राजस्थान राज्य, 2017)
  • अनुमति प्रदाता अधिकारी:
    • पैरोल संभागीय आयुक्त द्वारा दी जाती है, जबकि फरलो जेल उप महानिरीक्षक द्वारा दी जाती है। (असफाक बनाम राजस्थान राज्य, 2017)
  • दण्डावधि पर प्रयोज्यता:
    • अल्पावधि कारावास के मामलों में पैरोल पर विचार किया जा सकता है, जबकि फरलो आमतौर पर लंबी अवधि के कारावास के लिये दी जाती है। (असफाक बनाम राजस्थान राज्य, 2017)
  • विधिक लक्षण वर्णन:
    • पैरोल को सशर्त क्षमा या दण्ड के निलंबन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिससे दण्ड की अवधि यथावत् रहती है। इसके विपरीत, फरलो को अच्छे आचरण के लिये क्षमा के रूप में दिया जाता है। (असफाक बनाम राजस्थान राज्य, 2017)