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आपराधिक कानून

आकस्मिक एवं गंभीर प्रकोपन

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 28-May-2024

मनदीप बनाम हरियाणा राज्य

घटना के समय लगे घावों की संख्या निर्णायक कारक नहीं है, घटना आकस्मिक एवं पूर्व-निर्धारित होनी चाहिये”।

न्यायमूर्ति गुरविंदर सिंह गिल और न्यायमूर्ति एन. एस. शेखावत  

स्रोत: पंजाब  एवं हरियाणा उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने माना कि घटना के समय लगे घावों की संख्या निर्णायक कारक नहीं है, परंतु अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि घटना आकस्मिक एवं बिना सोचे-समझे हुई होगी तथा अपराधी ने आवेश में आकर ऐसा किया होगा।

मनदीप बनाम हरियाणा राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में शिकायत मोहिंदर सिंह के पिता मांगे राम ने की थी।
  • शिकायतकर्त्ता के अनुसार 25 मार्च 2010 को उसका बेटा खेत में पानी देने के लिये गया था।
  • उसके पिता उसके पीछे आ रहे थे, मोहिंदर खेत से सटे बिजली के खंभे के पास पहुँच गया।
  • मनदीप ने मोहिंदर को वहाँ जाने के लिये कहा तो उसने उत्तर दिया कि वह पौधों को पानी देकर आएगा।
  • मोहिंदर और मनदीप एक दूसरे से हाथापाई करने लगे। मनदीप के भाई सोमपाल व रोहताश तथा मनदीप के पिता करम सिंह (करमू) भी खेत में आ गए।
  • मोहिंदर खुद को बचाने के लिये भागा, लेकिन सभी आरोपियों ने उसे पकड़ लिया तथा मंदीप ने उसके पेट में चाकू घोंप दिया।
  • शिकायतकर्त्ता (मोहिंदर के पिता) भी अपने बेटे को बचाने के लिये घटनास्थल पर पहुँचे, परंतु सोमपाल ने उन पर लाठी से हमला कर दिया।
  • वहाँ मौजूद शिकायतकर्त्ता का पोता तथा सभी ग्रामीण घटनास्थल की ओर आए, परंतु सभी आरोपी भाग गए थे।
  • शिकायतकर्त्ता ने ग्रामीणों की सहायता से मोहिंदर को अपने घर पहुँचाया। वह गंभीर रूप से घायल था, घर पहुँचते ही चाकू से लगे घावों के कारण उसकी मृत्यु हो जाती है।
  • शिकायतकर्त्ता के बयान पर प्राथमिकी (FIR) दर्ज की गई। जाँच के दौरान सोमपाल, करमू और मनदीप को अभिरक्षा में ले लिया गया तथा मनदीप के कब्ज़े से एक चाकू प्राप्त किया गया।
  • ट्रायल कोर्ट ने मंदीप (अपीलकर्त्ता) और अन्य आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 34 के साथ पठित धारा 302 के तहत आरोप तय किया।
  • अपीलकर्त्ता का प्रतिवाद यह था कि अपीलकर्त्ता और मोहिंदर घनिष्ठ मित्र थे तथा भोजन करने के लिये एक साथ बैठते थे। घटना के दिन अचानक मोबाइल फोन को लेकर हाथापाई हो गई और अपीलकर्त्ता ने उससे मोबाइल वापस करने के लिये कहा, मोहिंदर ने अपीलकर्त्ता को चोटें पहुँचाईं तथा अकस्मात् ही अपीलकर्त्ता ने चाकू से एक वार किया।
  • उसका तर्क था कि यह आपराधिक मानव वध का मामला है जो हत्या के तुल्य नही है तथा जो IPC की धारा 304 के भाग II के अधीन दण्डनीय है क्योंकि अपीलकर्त्ता का मामला IPC की धारा 300 के अपवाद संख्या 4 के अंतर्गत आता है।
  • ट्रायल कोर्ट ने एक निर्णय दिया तथा अपीलकर्त्ता को IPC की धारा 302 के अधीन दण्डनीय अपराध के लिये दोषी ठहराया तथा आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई। वहीं दो अन्य आरोपियों (सोमपाल और करमू) को संदेह का लाभ प्राप्त होने पर दोषमुक्त कर दिया।
  • इसके उपरांत, अपीलकर्त्ता ने ट्रायल कोर्ट के आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील दायर की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्च न्यायालय ने माना कि झगड़े का कारण प्रासंगिक नहीं है, न ही यह प्रासंगिक है कि किस व्यक्ति ने प्रकोपन किया अथवा किसने पहले हमला किया। परंतु यह प्रासंगिक है कि अपराधी ने कोई अनुचित लाभ नहीं उठाया हो अथवा क्रूरता से काम न किया हो।
  • न्यायालय ने कहा कि दोनों पक्षों के बीच दुश्मनी का कोई इतिहास नहीं है। यह स्पष्ट है कि चाकू (रसोई में सब्ज़ी आदि काटने के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले) से चोट पहुँचाकर, अपीलकर्त्ता का मोहिंदर की हत्या करने का कोई आशय नहीं था।
  • हालाँकि इस चाकू का प्रयोग इतनी ज़ोर से किया गया था कि व्यक्ति की मृत्यु हो गई थी। अतः अपीलकर्त्ता पर संज्ञान का नियम आरोपित करना होगा तथा उस स्थिति में, वर्तमान मामला IPC की धारा 304 के भाग II में आएगा।
  • न्यायालय ने माना कि अपीलकर्त्ता ने स्वीकार किया है कि उसने क्रूर अथवा असामान्य तरीके से हमला नहीं तथा यह झगडा आवेश में हुआ था। सुरक्षित रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अपीलकर्त्ता ने IPC की धारा 304 भाग-II के तहत अपराध किया था, न कि IPC की धारा 302 के तहत।
  • उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय को रद्द कर दिया।

इस मामले में क्या विधिक प्रावधान शामिल है?

  • आपराधिक मानव वध जो हत्या के तुल्य नहीं है, के लिये दण्ड IPC की धारा 304 और भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 103 में उल्लिखित है: जो कोई भी, आपराधिक मानव वध जो हत्या के तुल्य नही है जैसा अपराध कारित करेगा, उसे आजीवन कारावास अथवा किसी एक अवधि के लिये कारावास, जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, से दण्डित किया जाएगा तथा वह अर्थदण्ड के लिये भी उत्तरदायी होगा, यदि वह कार्य जिसके कारण मृत्यु हुई है, मृत्यु कारित करने के इरादे से अथवा ऐसी शारीरिक चोट कारित करने के इरादे से जिससे मृत्यु होने की संभावना हो, किया गया हो।

या किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, या अर्थदण्ड, या दोनों से दण्डित किया जा सकता है, यदि कार्य इस ज्ञान के साथ किया गया है कि इससे मृत्यु होने की संभावना है, परंतु मृत्यु कारित करने के किसी इरादे के बिना किया गया है, अथवा ऐसी शारीरिक चोट पहुँचाने के इरादे से किया गया है जिससे मृत्यु होने की संभावना हो।

'आकस्मिक एवं गंभीर प्रकोपन' से संबंधित विधि क्या है?

  • परिचय:
    • IPC की धारा 300, का अपवाद 1 हत्या के मामले में प्रतिवाद प्रदान करती है।
    • 'प्रकोपन' शब्द का अर्थ जानबूझकर कुछ ऐसा करना या कहना है जिससे कोई क्रोधित हो जाए।
    • जब व्यक्ति ऐसे प्रकोपन से अपना नियंत्रण खो देता है और प्रकोपन करने वाले व्यक्ति अथवा किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनता है, तो वह आपराधिक मानव वध जो हत्या के तुल्य नही है, के लिये उत्तरदायी होगा।
    • मामला तय करने में 'आशय' अहम भूमिका निभाता है, चाहे मामला IPC की धारा 300 के अपवाद के अंतर्गत आता हो अथवा नहीं।
    • आकस्मिक एवं गंभीर प्रकोपन के मामले में, आशय पूर्व-निर्धारित नहीं होना चाहिये।
  • आवश्यक तत्त्व:
    • अभियुक्त को प्रकोपित किया गया हो,
    • प्रकोपन, गंभीर एवं आकस्मिक हो
    • अभियुक्त अपना संयम खो दे
    • इसी क्रोध के कारण अभियुक्त ने एक व्यक्ति की हत्या कारित कर दी, जिस समय अभियुक्त ने हत्या की उस समय से पूर्व उसका क्रोध शांत नहीं हो पाया था।
    • अभियुक्त का इरादा हत्या का नहीं होना चाहिये; हालाँकि, ज्ञान हो सकता है।
  • निर्णयज विधियाँ:
    • के. एम. नानावती बनाम महाराष्ट्र राज्य (1961)
      • इसमें उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अपवाद के अधीन 'गंभीर एवं आकस्मिक’ प्रकोपन का परीक्षण यह होना चाहिये कि अभियुक्त के जैसे ही समाज के उसी वर्ग के एक युक्तियुक्त व्यक्ति को, अभियुक्त के समान स्थिति में रखा जाए तथा इतना प्रकोपित किया जाए कि वह अपना आत्मसंयम खो बैठे।
      • अभियुक्त के आचरण से साफ पता चलता है कि हत्या जानबूझकर और सोच-समझकर की गई थी।
      • केवल यह तथ्य कि गोली मारने से पूर्व आरोपी ने मृतक को गाली दी थी, तथा मृतक ने गाली का समान प्रत्युत्तर दिया था, हत्या के लिये प्रकोपन नहीं माना जा सकता।
      • आकस्मिक एवं गंभीर प्रकोपन करने वाले व्यक्ति पर घातक प्रहार तत्काल होना चाहिये जब अभियुक्त को प्रकोपित किया गया हो, परंतु अभियुक्त के शांत होने के लिये पर्याप्त समय के उपरांत नहीं।
  • बैटर्ड वाइफ सिंड्रोम:
    • बैटर्ड वाइफ सिंड्रोम उन पत्नियों की मानसिक स्थिति है जो लंबे समय तक प्रताड़ित होती हैं, तथा ऐसी यातना के कारण अपने उत्पीड़न करने वालों को मार देती हैं, उन्हें आकस्मिक एवं गंभीर प्रकोपन का प्रतिवाद प्राप्त होगा।
    • यह परीक्षण आर. वी. डफी (1949) मामले में लॉर्ड डेवलिन द्वारा निर्धारित किया गया था।
    • यदि प्रकोपन और हत्या के बीच समय का अंतराल हो तो 'आकस्मिक एवं गंभीर प्रकोपन' का प्रतिवाद, उचित नहीं है।
    • आर बनाम अहलूवालिया (1992) के मामले में अदालत ने प्रकोपन के प्रतिवाद को खारिज कर दिया क्योंकि प्रकोपन और हत्या के बीच समय का अंतराल था।
    • हालाँकि न्यायालय ने तत्काल संयम खोने वाली स्थिति के स्थान पर धीमी गति से होने वाली प्रतिक्रिया को मान्यता दी।

इस मामले में उद्धृत ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?

  • सुखबीर सिंह बनाम हरियाणा राज्य (2002)
    • माननीय उच्चतम न्यायालय ने माना कि IPC की धारा 300 के अपवाद संख्या 4 के प्रयोजनों के लिये सभी घातक चोटों के परिणामस्वरूप मृत्यु को, क्रूर या असामान्य नहीं कहा जा सकता है।
    • ऐसे मामलों में, जहाँ घायल के गिरने के बाद, अपीलकर्त्ता ने घायल के असहाय स्थिति में होने के कारण कोई और चोट नहीं पहुँचाई, यह संकेत देता है कि उसने क्रूर या असामान्य तरीके से कार्य नहीं किया था।
  • एलिस्टर एंथोनी परेरा बनाम महाराष्ट्र राज्य (2012)
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि IPC की धारा 304 भाग I के अधीन दण्ड के लिये अभियोजन पक्ष को यह सिद्ध करना होगा कि संबंधित व्यक्ति की मृत्यु अभियुक्त के कृत्य के कारण हुई थी तथा अभियुक्त का आशय ऐसे कृत्य से मृत्यु कारित करने अथवा ऐसी शारीरिक चोट पहुँचाने का था जिससे मृत्यु कारित होने की संभावना हो।
    • IPC की धारा 304 भाग II के लिये दण्ड के संबंध में, अभियोजन पक्ष को सिद्ध करना होगा कि संबंधित व्यक्ति की मृत्यु, अभियुक्त के कृत्य के कारण हुई थी तथा अभियुक्त जानता था कि उसके ऐसे कृत्य से मृत्यु होने की संभावना है।