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भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत IRP लोक सेवक नहीं है

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 20-Dec-2023

डॉ. अरुण मोहन बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो

"एक दिवाला समाधान पेशेवर (IRP) भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 2 (c) के तहत 'लोक सेवक' के अर्थ में नहीं आता है।"

जस्टिस तुषार राव गेडेला

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति तुषार राव गेडेला ने कहा है कि एक दिवाला समाधान पेशेवर (IRP) भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 2 (c) के तहत 'लोक सेवक' के अर्थ में नहीं आता है।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह फैसला डॉ. अरुण मोहन बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो के मामले में दिया।

डॉ. अरुण मोहन बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • इस मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट (First Information Report- FIR) भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7 और 7A, भारतीय दंड संहिता, 1860 (Indian Penal Code- IPC) की धारा 120B के तहत दर्ज की गई थी।
  • एक दिवाला पेशेवर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 2 की उप-धारा (c) के किसी भी खंड में उल्लिखित 'लोक सेवक' के अर्थ में नहीं आता है।
  • इसलिये प्रतिवादी संख्या 1/CBI द्वारा दर्ज की गई FIR को रद्द कर दिया गया है।
  • न्यायालय ने कहा कि भले ही IRP को सौंपी गई भूमिकाएँ और कर्तव्य 'लोक कर्तव्यों' की सीमा पर हों या उसके अंतर्गत आते हों, फिर भी यह 'लोक स्वरूप' (Public Character) को ग्रहण नहीं करेंगे।
  • दिवाला और दिवालियापन संहिता, 2016 (Insolvency and Bankruptcy Code- IBC) की धारा 232 में IP को शामिल करने की चूक अनजाने में नहीं हुई है, बल्कि विधायिका द्वारा सोच-समझकर और जानबूझकर की गई है तथा विधि न्यायालय को इसकी व्याख्या करने का अधिकार होने के कारण, कानून नहीं बनाना चाहिये या कैसस ओमिसस की आपूर्ति नहीं करनी चाहिये, जो किसी भी मामले में निषिद्ध है।
  • IBC या PC अधिनियम 1988 या IPC, 1860 की धारा 21 के अनुसार IP 'लोक सेवक' है या नहीं, यह पूरी तरह से विधायिका का क्षेत्र है और यदि आवश्यक हो तो विधायिका विधानों में आवश्यक संशोधन कर सकती है।

न्यायालय की टिप्पणी क्या थी?

  • यह आवश्यक नहीं है कि सभी कर्तव्य, जिन्हें प्राय: 'लोक कर्तव्य' के रूप में परिभाषित किया गया है, अपने आप में 'लोक स्वरूप' को शामिल करेंगे।
  • केवल इसलिये कि IP को कुछ भूमिकाएँ, ज़िम्मेदारियाँ और कर्तव्य सौंपे गए हैं जो 'लोक कर्तव्यों' की प्रकृति में शामिल हो सकते हैं, यह एक आवश्यक निष्कर्ष या निश्चित निष्कर्ष नहीं है कि इन्हें 'लोक स्वरूप' की प्रकृति में निर्वहन किया जा रहा है।

इसमें क्या विधिक प्रावधान शामिल हैं?

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988:

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भारत की संसद का एक अधिनियम है जो भारत में सरकारी एजेंसियों और सार्वजनिक क्षेत्र के व्यवसायों में भ्रष्टाचार से निपटने के लिये बनाया गया है।

धारा 2(c): “लोक सेवक” से अभिप्रेत है, -

(i) कोई व्यक्ति जो सरकार की सेवा या उसके वेतन पर है या किसी लोक कर्तव्य के पालन के लिये सरकार से फीस या कमीशन के रूप में पारिश्रमिक पाता है;

(ii) कोई व्यक्ति जो किसी लोक प्राधिकरण की सेवा या उसके वेतन पर है;

(iii) कोई व्यक्ति जो किसी केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम द्वारा या उसके अधीन स्थापित निगम या सरकार के स्वामित्व या नियंत्रण के अधीन या सरकार से सहायता प्राप्त किसी प्राधिकरण या निकाय या कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) की धारा 617 में यथापरिभाषित किसी सरकारी कंपनी की सेवा या उसके वेतन पर है;

(iv) कोई न्यायाधीश, जिसके अंतर्गत ऐसा कोई व्यक्ति है जो किन्हीं न्यायनिर्णयन कृत्यों का, चाहे स्वयं या किसी व्यक्ति के निकाय के सदस्य के रूप में, निर्वहन करने के लिये विधि द्वारा सशक्त किया गया है;

(v) कोई व्यक्ति जो न्याय प्रशासन के संबंध में किसी कर्तव्य का पालन करने के लिये न्यायालय द्वारा प्राधिकृत किया गया है, जिसके अंतर्गत किसी ऐसे न्यायालय द्वारा नियुक्त किया गया परिसमापक, रिसीवर या आयुक्त भी है;

(vi) कोई मध्यस्थ या अन्य व्यक्ति जिसको किसी न्यायालय द्वारा या किसी सक्षम लोक प्राधिकरण द्वारा कोई मामला या विषय विनिश्चय या रिपोर्ट के लिये निर्देशित किया गया है;

(vii) कोई व्यक्ति जो किसी ऐसे पद को धारण करता है जिसके आधार पर वह निर्वाचक सूची तैयार करने, प्रकाशित करने, बनाए रखने या पुनरीक्षित करने अथवा निर्वाचन या निर्वाचन के भाग का संचालन करने के लिये सशक्त है;

(viii) कोई व्यक्ति जो किसी ऐसे पद को धारण करता है जिसके आधार पर वह किसी लोक कर्तव्य का पालन करने के लिये प्राधिकृत या अपेक्षित है;

(ix) कोई व्यक्ति जो कृषि, उद्योग, व्यापार या बैंककारी में लगी हुई किसी ऐसी रजिस्ट्रीकृत सोसाइटी का अध्यक्ष, सचिव या अन्य पदधारी है जो केंद्रीय सरकार या किसी राज्य सरकार या किसी केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम द्वारा या उसके अधीन स्थापित किसी निगम से या सरकार के स्वामित्व या नियंत्रण के अधीन या सरकार से सहायता प्राप्त किसी प्राधिकरण या निकाय से या कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) की धारा 617 में यथापरिभाषित किसी सरकारी कंपनी से कोई वित्तीय सहायता प्राप्त कर रही है या कर चुकी है;

(x) कोई व्यक्ति जो किसी सेवा आयोग या बोर्ड का, चाहे वह किसी भी नाम से ज्ञात हो, अध्यक्ष, सदस्य या कर्मचारी या ऐसे आयोग या बोर्ड की ओर से किसी परीक्षा का संचालन करने के लिये या उसके द्वारा चयन करने के लिये नियुक्त की गई किसी चयन समिति का सदस्य है;

(xi) कोई व्यक्ति जो किसी विश्वविद्यालय का कुलपति, उसके किसी शासी निकाय का सदस्य, आचार्य, उपाचार्य, प्राध्यापक या कोई अन्य शिक्षक या कर्मचारी है, चाहे वह किसी भी पदाभिधान से ज्ञात हो और कोई व्यक्ति जिसकी सेवाओं का लाभ विश्वविद्यालय द्वारा या किसी अन्य लोक निकाय द्वारा परीक्षाओं के आयोजन या संचालन के संबंध में लिया गया है;

(xii) कोई व्यक्ति जो किसी भी रीति में स्थापित किसी शैक्षिक, वैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या अन्य संस्था का, जो केंद्रीय सरकार या किसी राज्य सरकार या किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकरण से वित्तीय सहायता प्राप्त कर रही है या कर चुकी है, पदधारी या कर्मचारी है।

धारा 7: लोक सेवक द्वारा पदीय कार्य के लिये वैध पारिश्रमिक से भिन्न परितोषण लिया जाना:

जो कोई लोक सेवक,

(a) किसी व्यक्ति से अनुचित लाभ प्राप्त करता है या स्वीकार करता है या प्राप्त करने का प्रयास करता है, इस आशय से कि वह लोक कर्तव्य को अनुचित तरीके से या बेईमानी से निभाए या प्रदर्शन कराए या स्वयं या किसी अन्य लोक सेवक द्वारा ऐसे कर्तव्य का पालन करने से मना करे ; या

(b) किसी लोक कर्तव्य के अनुचित या बेईमान प्रदर्शन के लिये या स्वयं या किसी अन्य लोक सेवक द्वारा ऐसे कर्तव्य को करने से मना करने के लिये भुगतान के रूप में किसी व्यक्ति से अनुचित लाभ प्राप्त करता है या स्वीकार करता है या प्राप्त करने का प्रयास करता है; या

(c) किसी अन्य लोक सेवक को अनुचित या बेईमानी से लोक कर्तव्य करने के लिये निष्पादित करना या प्रेरित करना या किसी व्यक्ति से अनुचित लाभ स्वीकार करने की प्रत्याशा में या उसके परिणामस्वरूप ऐसे कर्तव्य का पालन करना दंडनीय होगा, जो कम से कम तीन वर्ष की अवधि के लिये कारावास से दंडनीय होगा लेकिन जिसे सात वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है और ज़ुर्माना भी लगाया जाएगा।

स्पष्टीकरण 1: इस धारा के प्रयोजन के लिये, अनुचित लाभ प्राप्त करना, स्वीकार करना या प्राप्त करने का प्रयास स्वयं एक अपराध होगा, भले ही लोक सेवक द्वारा लोक कर्तव्य का प्रदर्शन अनुचित न हो या न हुआ हो।

दृष्टांत: एक लोक सेवक, 'S' एक व्यक्ति, 'P' से उसके नियमित राशन कार्ड आवेदन को समय पर संसाधित करने के लिये पाँच हज़ार रुपए की राशि देने के लिये कहता है। इस धारा के अंतर्गत 'S' अपराध का दोषी है।

स्पष्टीकरण 2: इस धारा के प्रयोजन के लिये वह—

(i) अभिव्यक्ति "प्राप्त करता है" या "स्वीकार करता है" या "प्राप्त करने का प्रयास करता है", उन मामलों को कवर करेगा जहाँ एक व्यक्ति एक लोक सेवक होने के नाते, अपने लिये या किसी अन्य व्यक्ति के लिये कोई अनुचित लाभ प्राप्त करता है या "स्वीकार करता है" या प्राप्त करने का प्रयास करता है। एक लोक सेवक के रूप में अपने पद का दुरुपयोग करना या किसी अन्य लोक सेवक पर अपने व्यक्तिगत प्रभाव का उपयोग करना; या किसी अन्य भ्रष्ट या अवैध तरीके से;

(ii) यह महत्त्वहीन होगा कि क्या ऐसा व्यक्ति लोक सेवक होने के नाते सीधे या किसी तीसरे पक्ष के माध्यम से अनुचित लाभ प्राप्त करता है या स्वीकार करता है या प्राप्त करने का प्रयास करता है।

  • धारा 7A 'भ्रष्ट या अवैध तरीकों से या व्यक्तिगत प्रभाव के प्रयोग से लोक सेवक को प्रभावित करने के लिये अनुचित लाभ लेने' से संबंधित है।
  • धारा 232 IBC 'बोर्ड के सदस्यों, अधिकारियों और कर्मचारियों से लेकर लोक सेवक' तक से संबंधित है।
    • बोर्ड के अध्यक्ष, सदस्य, अधिकारी और अन्य कर्मचारी, जब इस संहिता के किसी भी प्रावधान के अनुसरण में कार्य कर रहे हों या कार्य करने का इरादा रखते हों, IPC की धारा 21 के अर्थ के तहत लोक सेवक माने जाएंगे।
  • IPC की धारा 120B 'आपराधिक षड़यंत्र के लिये सज़ा' से संबंधित है।
  • IPC की धारा 21 'लोक सेवक' का अर्थ प्रदान करती है।