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आपराधिक कानून
उत्पाद शुल्क मामले में आरोपी को न्यायिक हिरासत
« »18-Aug-2023
चर्चा में क्यों ?
- दिल्ली की एक अदालत ने दिल्ली उत्पाद शुल्क नीति मामले (Delhi excise policy case) में एक व्यवसायी को 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया है।
- प्रवर्तन निदेशालय (ED) ने आरोपी की रिमांड अवधि के अंत में उसे अदालत में पेश किया।
पृष्ठभूमि
- प्रवर्तन निदेशालय (ED) ने आरोपी 6 जुलाई, 2023 को गिरफ्तार किया था।
- आरोपी के वकील ने तर्क दिया कि चूंकि आरोपी सीबीआई मामले में सरकारी गवाह था, इसलिये उसे अन्य सह-अभियुक्तों के आवास वाली जेल की कोठरी में नहीं रखा जाना चाहिये।
- प्रवर्तन निदेशालय (ED) के प्रतिनिधियों ने अदालत को बताया कि हिरासत के दौरान उनसे पूछताछ की गई थी।
- प्रवर्तन निदेशालय (ED) के प्रतिनिधि द्वारा यह भी खुलासा किया गया कि आरोपी ने कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का खुलासा किया है, जिन पर एनसीआर (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) में कार्रवाई की जा रही है और उससे आगे की पूछताछ की आवश्यकता नहीं है, लेकिन उसने दावा किया कि अगर आरोपी की इस वक्त रिहा किया जाता है, तो वह सबूतों के साथ छेड़छाड़ कर सकता है, गवाहों को प्रभावित कर सकता है, या न्याय से भाग सकता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- अदालत ने जेल अधिकारियों को आरोपियों को एक ऐसी अलग जेल में रखने का निर्देश देते हुये सुनवाई की अगली तारीख 25 जुलाई 2023 रखी है, जहाँ जहाँ अन्य आरोपी मौजूद नहीं हो।
कानूनी प्रावधान
- हिरासत (Custody) - इसका मतलब सुरक्षात्मक देखभाल के लिये किसी को पकड़ना।
- पुलिस हिरासत (Police Custody) - यह किसी संदिग्ध को हिरासत में लेने के लिये जेल में पुलिस के पास किसी संदिग्ध की हिरासत होती है। मामले के प्रभारी अधिकारी को 24 घंटे के भीतर संदिग्ध को उचित न्यायाधीश के समक्ष पेश करना आवश्यक है, इस समय अवधि में पुलिस स्टेशन से अदालत तक जाने में लगने वाला समय शामिल नहीं है।
- न्यायिक हिरासत (Judicial Custody) - इसके तहत आरोपी संबंधित मजिस्ट्रेट की हिरासत में होता है और जेल में बंद होता है।
आपराधिक कानून पहलू (Criminal Law Aspect)
- पुलिस रिमांड की अवधारणा दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CRPC) की धारा 167 के तहत प्रदान की गई है।
सीआरपीसी की धारा 167 :- जब चौबीस घण्टे के अन्दर अन्वेषण पूरा न किया जा सके तब प्रक्रिया —
जब कभी कोई व्यक्ति गिरफ्तार किया गया है और अभिरक्षा में निरुद्ध है और यह प्रतीत हो कि अन्वेषण धारा 57 द्वारा नियत चौबीस घण्टे की अवधि के अन्दर पूरा नहीं किया जा सकता और यह विश्वास करने के लिये आधार है कि अभियोग या इत्तिला दृढ़ आधार पर है तब पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी या यदि अन्वेषण करने वाला पुलिस अधिकारी उपनिरीक्षक से निम्नतर पंक्ति का नहीं है तो वह, निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट को इसमें इसके पश्चात् विहित डायरी की मामले से संबंधित प्रविष्टियों की एक प्रतिलिपि भेजेगा और साथ ही अभियुक्त व्यक्ति को भी उस मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा।
- धारा 167(1) के तहत रिमांड आवेदन पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी या जांच करने वाले व्यक्ति द्वारा किया जाता है, यदि वह उप निरीक्षक के पद से नीचे का नहीं है।
- धारा 167(2) के अनुसार न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा पुलिस हिरासत की अधिकतम अवधि 15 दिन दी जा सकती है।
- रिमांड के पीछे का उद्देश्य आरोपी को ऐसी जगह से स्थानांतरित करना है जहां उसकी गिरफ्तारी हुई है, जहां उस पर मुकदमा चलाया जाना है।
- राम दोस बनाम तमिलनाडु राज्य (1992) मामले में, अदालत द्वारा यह माना गया था कि धारा 167 के तहत रिमांड देने से पहले, मजिस्ट्रेट को यह ध्यान में रखना चाहिये:
- 24 घंटे बाद भी आरोपी को हिरासत में रखने का कारण और किस आधार पर आरोपी को पुलिस हिरासत में रखा जाना है।
- क्या रिपोर्ट में संज्ञेय अपराध मौजूद है।
- क्या मामला दर्ज करके ही जांच की गयी है।
- सीआरपीसी की धारा 167 के तहत आरोपी की रिमांड के समय उसकी शारीरिक या वर्चुअल उपस्थिति एक अनिवार्य आवश्यकता है।
- जिगर उर्फ जिमी प्रवीणचंद्र अदातिया बनाम गुजरात राज्य (2022) मामले में उच्चतम न्यायालय (SC) ने माना है कि जांच के लिये समय बढ़ाने के आवेदन पर विचार करते समय अदालत के समक्ष आरोपी को पेश करने में विफलता उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
- सीआरपीसी की धारा 167(2) के अनुसार न्यायिक हिरासत निम्नलिखित के लिये दी जा सकती है:
- नब्बे दिन, जहां जांच किसी ऐसे दंडनीय अपराध से संबंधित है जिसमें मौत, आजीवन कारावास या कम से कम दस साल की अवधि का कारावास भी हो सकता है;
- साठ दिन, जहां जांच किसी अन्य अपराध से संबंधित हो।
- जैसा भी मामला हो, नब्बे दिन या साठ दिन की उक्त अवधि की समाप्ति पर, आरोपी व्यक्ति को जमानत पर रिहा कर दिया जायेगा, ऐसा तभी किया जायेगा जब वह जमानत देने के लिये तैयार है और जमानत जमा करता है।
- कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा हिरासत - धारा 167(2क) के अनुसार यदि आरोपी को कार्यकारी मजिस्ट्रेट के पास भेजा जाता है, और उसके बाद ऐसे कार्यकारी मजिस्ट्रेट, लिखित रूप में दर्ज किये जाने वाले कारणों के लिये, आरोपी व्यक्ति को उतने दिन की हिरासत में रखने के लिये अधिकृत करें, जितने दिन वह उचित समझे, कुल मिलाकर यह समय सात दिन से अधिक नहीं होना चाहिये।
अनुमोदक (Approver)
- अनुमोदक वह व्यक्ति होता है जिस पर किसी अपराध का आरोप लगाया गया हो लेकिन बाद में वह अपराध कबूल कर लेता है और अभियोजन पक्ष के लिये गवाही देने के लिये सहमत हो जाता है।
- ऐसे व्यक्ति को आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 306 के तहत अपराध के लिये दोषी अन्य पक्षों के खिलाफ व्यक्ति के साक्ष्य प्राप्त करने के इरादे से क्षमा प्रदान की जाती है।
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 133 के अनुसार अनुमोदक का साक्ष्य मूल्य सहयोगी साक्ष्य की श्रेणी में आता है और एक सहयोगी सह-अभियुक्त के खिलाफ एक सक्षम गवाह माना जाता है।
संवैधानिक कानून पहलू
- भारत के संविधान, 1950 का अनुच्छेद 22 गिरफ्तार व्यक्ति को दोहरी सुरक्षा देता है:
- अनुच्छेद 22(1) यह सुनिश्चित करता है कि गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को ऐसी गिरफ्तारी के कारणों के बारे में सूचित किया जाना चाहिये और उसे अपनी पसंद के कानूनी व्यवसायी से परामर्श करने और बचाव करने का अधिकार है।
- अनुच्छेद 22(2) यह सुनिश्चित करता है कि गिरफ्तार और हिरासत में लिये गये प्रत्येक व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाना चाहिये,और बिना मजिस्ट्रेट के अधिकार के उस अवधि से अधिक व्यक्ति को हिरासत में नहीं रखा जा सकता है।
प्रवर्तन निदेशालय
- प्रवर्तन निदेशालय (ED) एक घरेलू कानून प्रवर्तन और आर्थिक खुफिया एजेंसी है जो भारत में आर्थिक कानूनों को लागू करने और आर्थिक अपराध से लड़ने के लिये जिम्मेदार है।
- यह भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के राजस्व विभाग का हिस्सा है।
- प्रवर्तन निदेशालय मनी लॉन्ड्रिंग, विदेशी मुद्रा उल्लंघन और आर्थिक अपराधों से संबंधित मामलों की जांच और मुकदमा चलाने पर ध्यान केंद्रित करता है।
- इसका प्राथमिक उद्देश्य काले धन के प्रसार पर अंकुश लगाना और वि