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पारिवारिक कानून
हिंदू अविभाजित परिवार का कर्ता
« »08-Dec-2023
मनु गुप्ता बनाम सुजाता शर्मा एवं अन्य। "हिंदू कानून किसी महिला के हिंदू अविभाजित परिवार के कर्त्ता होने के अधिकार को सीमित नहीं करता है।" न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत और नीना बंसल कृष्णा |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में मनु गुप्ता बनाम सुजाता शर्मा और अन्य के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना है कि हिंदू विधि किसी महिला के हिंदू अविभाजित परिवार (Hindu Undivided Family- HUF) के कर्त्ता होने के अधिकार को सीमित नहीं करती है।
मनु गुप्ता बनाम सुजाता शर्मा एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में अपीलकर्त्ता व प्रतिवादी, हिंदू होने के नाते और मिताक्षरा कानून द्वारा शासित, स्वर्गीय श्री.आर. गुप्ता के वंशज हैं, जिन्होंने HUF का गठन किया था।
- दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील, अपीलकर्त्ता/मनु गुप्ता द्वारा एकल न्यायाधीश के आदेश के खिलाफ दायर की गई है, जिसके तहत प्रतिवादी/सुजाता शर्मा को स्वर्गीय श्री डी.आर.गुप्ता एंड संस, HUF के कर्त्ता के रूप में घोषित करने के लिये घोषणा पत्र की अनुमति दी गई है, चूँकि वह सबसे बड़ी महिला सहदायिक थी।
- अपील को खारिज़ करते हुए, उच्च न्यायालय ने कहा कि कानून में HUF की सबसे बड़ी महिला सहदायिक को उसका कर्त्ता बनने से रोकने वाला कोई प्रतिबंध नहीं है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत और नीना बंसल कृष्णा की खंडपीठ ने कहा कि न तो विधायिका और न ही पारंपरिक हिंदू कानून, किसी भी तरह से एक महिला के HUF के कर्त्ता होने के अधिकार को सीमित करता है।
पीठ ने फैसला सुनाया कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (HSA) की धारा 6 की भाषा यह स्पष्ट करती है कि हालाँकि प्रस्तावना में संदर्भ विरासत का हो सकता है, लेकिन समान अधिकार प्रदान करने में अन्य सभी अधिकार शामिल होंगे जो एक सहदायिक के पास हैं, इसमें एक महिला का कर्त्ता होने का अधिकार शामिल है।
न्यायालय ने कहा कि सहदायिक में सदस्यों के अधिकार तब भी अप्रभावित रहते हैं, जब एक महिला सहदायिक उसकी कर्त्ता के रूप में कार्य करती है। इसमें कहा गया है कि सहदायिकों को उन्हीं अधिकारों और हितों का आनंद मिलता रहेगा जो अन्यथा उनके पास हैं तथा सहदायिक के रूप में उनके अधिकार किसी भी तरह से बाधित नहीं होते हैं।
इसमें क्या विधिक प्रावधान शामिल हैं?
कर्त्ता:
- कर्त्ता परिवार का मुखिया होता है जिसे परिवार और उसके अनुरूप धन का प्रबंधन करने के लिये कई प्रणालियों के साथ नियुक्त किया जाता है।
- वह एक प्रबंधक के समकक्ष है जो परिवार के संपत्ति संबंधी मामलों को संभालने का प्रभारी है।
- कर्त्ता की अवधारणा को हमेशा पुरुष प्रधान अवधारणा के रूप में देखा गया क्योंकि प्राचीन समाज पुरुष प्रधान था। इसके परिणामस्वरूप HUF परिवारों में केवल पुरुष ही कर्त्ता के रूप में सफल हुए और यह प्रवृत्ति स्वतंत्रता के बाद के युग में भी जारी रही।
- हालाँकि वर्ष 2005 में HSA की धारा 6 में संशोधन के साथ, महिलाओं को सहदायिक के रूप में अनुमति दी गई है जो उन्हें परिवार की कर्त्ता बनने के लिये भी योग्य बनाती है, बशर्ते कि वे सबसे वरिष्ठ सदस्य हों।
HSA की धारा 6
यह धारा सहदायिकी सम्पत्ति में के हित का न्यागमन से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि -
(1) हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारंभ से ही मिताक्षरा विधि द्वारा शासित किसी संयुक्त हिंदू कुटुम्ब में किसी सहदायिक की पुत्री, -
(a) जन्म से ही अपने स्वयं के अधिकार से उसी रीति से सहदायिक बन जाएगी जैसे पुत्र होता है;
(b) सहदायिकी संपत्ति में उसे वही अधिकार प्राप्त होंगे जो उसे तब प्राप्त हुए होते जब वह पुत्र होती;
(c) उक्त सहदायिकी संपत्ति के संबंध में पुत्र के समान ही दायित्वों के अधीन होगी, और हिंदू मिताक्षरा सहदायिक के प्रति किसी निर्देश से यह समझा जाएगा कि उसमें सहदायिक की पुत्री के प्रति कोई निर्देश सम्मलित है :
परंतु इस उपधारा की कोई बात किसी व्ययन या अन्यसंक्रामण को, जिसके अंतर्गत संपत्ति का ऐसा कोई विभाजन या वसीयती व्यय भी है, जो 20 दिसम्बर, 2004 से पूर्व किया गया था, प्रभावित या अविधिमान्य नहीं करेगी ।
(2) कोई संपत्ति, जिसके लिये कोई हिन्दू नारी उपधारा (1) के आधार पर हकदार बन जाती है, उसके द्वारा सहदायिकी स्वामित्व की प्रसंगतियों सहित धारित की जाएगी और, इस अधिनियम या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी वसीयती व्ययन द्वारा उसके द्वारा किये जाने योग्य संपत्ति के रूप में समझी जाएगी।
(3) जहाँ किसी हिंदू की, हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारंभ के पश्चात् मृत्यु हो जाती है, वहाँ मिताक्षरा विधि द्वारा शासित किसी संयुक्त हिंदू कुटुम्ब की संपत्ति में उसका हित, यथास्थिति, इस अधिनियम के अधीन वसीयती या निर्वसीयती उत्तराधिकार द्वारा न्यागत हो जाएगा परंतु उत्तरजीविता के आधार पर नहीं और सहदायिकी संपत्ति इस प्रकार विभाजित की गई समझी जाएगी, मानो विभाजन हो चुका था, और-
(a) पुत्री को वही अंश आबंटित होगा जो पुत्र को आबंटित किया गया है;
(b) पूर्व मृत पुत्र या किसी पूर्व मृत पुत्री का अंश, जो उन्हें तब प्राप्त हुआ होता यदि वे विभाजन के समय जीवित होते, ऐसे पूर्व मृत पुत्र या ऐसी पूर्व मृत पुत्री की उत्तरजीवी संतान को आबंटित किया जाएगा; और
(c) किसी पूर्व मृत पुत्र या किसी पूर्व मृत पुत्री की पूर्व मृत संतान का अंश जो उस संतान ने उस रूप में प्राप्त किया होता यदि वह विभाजन के समय जीवित होती, यथास्थिति, पूर्व मृत पुत्र या किसी पूर्व मृत पुत्री की पूर्व मृत संतान की संतान को आबंटित किया जाएगा ।
स्पष्टीकरण: इस धारा के प्रयोजनों के लिये हिंदू मिताक्षरा सहदायिक का हित संपत्ति में का वह अंश समझा जाएगा जो उसे आबंटित किया गया होता यदि उसकी अपनी मृत्यु से अव्यवहित पूर्व संपत्ति का विभाजन किया गया होता, इस बात का विचार किये बिना कि वह विभाजन का दावा करने का हकदार था या नहीं।
(4) हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारंभ के पश्चात् कोई न्यायालय किसी पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के विरुद्ध उसके पिता, पितामह, या प्रपितामह से शोध्य किसी ऋण की वसूली के लिये हिंदू विधि के अधीन पवित्र बाध्यता के आधार पर ही ऐसे किसी ऋण को चुकाने के लिये ऐसे पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के विरुद्ध कार्यवाही करने के किसी अधिकार को मान्यता नहीं देगा :
परन्तु हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारंभ से पूर्व लिये गए ऋण की दशा में इस उपधारा में अन्तर्विष्ट कोई बात निम्नलिखित को प्रभावित नहीं करेगी, -
(a) यथास्थिति, पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिये किसी ऋणदाता का अधिकार ; या
(b) किसी ऐसे ऋण के संबंध में या उसके चुकाए जाने के लिये किया गया कोई संक्रामण और कोई ऐसा अधिकार या संक्रामण पवित्र बाध्यता के नियम के अधीन वैसी ही रीति में और उसी सीमा तक प्रवर्तनीय होगा जैसा कि उस समय प्रवर्तनीय होता जबकि हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 अधिनियमित न किया गया होता ।
स्पष्टीकरण: खंड (a) के प्रयोजनों के लिये, "पुत्र", "पौत्र" या "प्रपौत्र" पद से यह समझा जाएगा कि वह, यथास्थिति, ऐसे पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के प्रति निर्देश है, जो हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारंभ के पूर्व पैदा हुआ था दत्तक ग्रहण किया गया था ।
(5) इस धारा में अन्तर्विष्ट कोई बात ऐसे विभाजन को लागू नहीं होगी जो 20 दिसम्बर, 2004 से पूर्व किया गया है।
स्पष्टीकरण: इस धारा के प्रयोजनों के लिये "विभाजन" से रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1908 (1908 के 16) अधीन सम्यक् रूप से रजिस्ट्रीकृत किसी विभाजन विलेख के निष्पादन द्वारा किया गया कोई विभाजन या किसी न्यायालय की किसी डिक्री द्वारा किया गया विभाजन अभिप्रेत है ।