दण्ड के निलंबन के प्रति उदार दृष्टिकोण
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दण्ड के निलंबन के प्रति उदार दृष्टिकोण

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 05-Jul-2024

भेरूलाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य

“विधि में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यदि ट्रायल कोर्ट द्वारा दिया गया दण्ड निश्चित अवधि के लिये है, तो सामान्यतः अपीलीय न्यायालय को सज़ा के निलंबन की याचिका पर उदारतापूर्वक विचार करना चाहिये”।

न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुयान

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भेरूलाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने निर्णय देते समय विवेक का प्रयोग नहीं किया है तथा इसलिये उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के विरुद्ध नोटिस जारी किया तथा याचिकाकर्त्ता को ट्रायल कोर्ट द्वारा लगाई गई शर्तों के अधीन ज़मानत भी प्रदान की।

भेरूलाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता 70 वर्षीय व्यक्ति था, जिसकी दृष्टि 90% तक चली गई थी तथा उसे ट्रायल कोर्ट ने भारतीय दण्ड संहिता ( IPC) की धाराओं 420, 467, 468, 471, 120-B एवं 201 के अधीन दोषी ठहराया था।
  • याचिकाकर्त्ता को दी गई 4 वर्ष की सश्रम कारावास की सज़ा में से दो वर्ष की सज़ा वह पहले ही काट चुका है।
  • याचिकाकर्त्ता ने अपनी सज़ा के निलंबन के लिये एक आवेदन किया था, जिसे मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने याचिका को खारिज करने के पीछे कोई पर्याप्त कारण बताए बिना खारिज कर दिया था।
  • इसके बाद याचिकाकर्त्ता ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के विवादित निर्णय के विरुद्ध अपील दायर की।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय ने निर्णय पारित करते समय अपने विवेक का प्रयोग नहीं किया है।
  • यह स्पष्ट विधि है कि ट्रायल कोर्ट द्वारा एक निश्चित अवधि के लिये लगाई गई सज़ा को अपीलीय न्यायालय द्वारा उदार दृष्टिकोण के साथ लिया जाना चाहिये, जब तक कि दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 389 के अनुसार असाधारण परिस्थितियों से अन्यथा निष्कर्ष न निकल जाए।
  • उच्चतम न्यायालय ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण की कड़ी आलोचना की तथा कहा कि यदि उच्च न्यायालय ने अपना विवेक लगाया होता, तो इस अभियोजन को आसानी से टाला जा सकता था।
  • याचिकाकर्त्ता की अक्षमता को ध्यान में रखते हुए उच्चतम न्यायालय ने माना कि उसकी रिहाई न्याय के साथ विरोधाभास नहीं होगी तथा उसे ज़मानत दे दी और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के विरुद्ध नोटिस जारी किया।

सज़ा के निलंबन के लिये क्या कारक हो सकते हैं?

  • भारत के उच्चतम न्यायालय ने सही कहा है कि सज़ा का निलंबन अधिकार नहीं बल्कि उपचार है।
  • यह भी देखा गया है कि निलंबन केवल दुर्लभतम मामलों में ही दिया जाएगा, जिसमें मामले दर मामले कारकों एवं परिस्थितियों पर विचार किया जाएगा
  • विभिन्न मामलों से निम्नलिखित कारकों का अनुमान लगाया जा सकता है:
    • सज़ा के निलंबन की अनुमति देते समय दोषी के आपराधिक इतिहास एवं पृष्ठभूमि पर विचार किया जा सकता है।
    • उस अपराध की महत्त्व एवं गंभीरता जिसके लिये वह निलंबन की दलील दे रहा है।
    • ऐसे मामले जहाँ सज़ा के निलंबन की अनुमति न दिये जाने पर दोषी को हुई क्षति अपरिवर्तनीय है तथा इस अनुमति से किसी को कोई हानि नहीं होगी।

भेरूलाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले से संबंधित भारतीय न्याय सुरक्षा संहिता के प्रावधान क्या हैं?

  • धारा 430: अपील लंबित रहने तक सज़ा का निलंबन; अपीलकर्त्ता को ज़मानत पर रिहा करना।
    • किसी दोषी व्यक्ति द्वारा की गई अपील के लंबित रहने तक, अपील न्यायालय, उसके द्वारा लिखित में दर्ज किये जाने वाले कारणों से, यह आदेश दे सकता है कि जिस सज़ा या आदेश के विरुद्ध अपील की गई है उसका निष्पादन निलंबित कर दिया जाए तथा साथ ही, यदि वह कारावास में है, तो उसे ज़मानत पर या अपने स्वयं के बाॅण्ड या ज़मानत बाॅण्ड पर रिहा कर दिया जाए: बशर्ते कि अपील न्यायालय, किसी ऐसे दोषी व्यक्ति को, जो मृत्युदण्ड या आजीवन कारावास या कम-से-कम दस वर्ष की अवधि के कारावास से दण्डनीय किसी अपराध के लिये दोषी ठहराया गया हो, अपने स्वयं के बाॅण्ड या ज़मानत बाॅण्ड पर रिहा करने से पहले, लोक अभियोजक को ऐसी रिहाई के विरुद्ध लिखित में कारण बताने का अवसर देगा: आगे यह भी प्रावधान है कि ऐसे मामलों में जहाँ किसी दोषी व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा किया जाता है, लोक अभियोजक को जमानत रद्द करने के लिये आवेदन दायर करने की स्वतंत्रता होगी।
    • इस धारा द्वारा अपीलीय न्यायालय को प्रदत्त शक्ति का प्रयोग उच्च न्यायालय द्वारा भी किसी सिद्धदोष व्यक्ति द्वारा अपने अधीनस्थ न्यायालय में की गई अपील के मामले में किया जा सकता है।
    • जहाँ सिद्धदोष व्यक्ति उस न्यायालय को, जिसके द्वारा उसे सिद्धदोष ठहराया गया है, संतुष्ट कर देता है कि वह अपील प्रस्तुत करने का आशय रखता है, वहाँ न्यायालय—
      • जहाँ ऐसे व्यक्ति को ज़मानत पर रहते हुए तीन वर्ष से अधिक अवधि के कारावास की सज़ा दी गई हो, या
      • जहाँ वह अपराध, जिसके लिये ऐसे व्यक्ति को दोषसिद्ध किया गया है, ज़मानतीय है तथा वह ज़मानत पर है, वहाँ आदेश दे सकेगी कि दोषसिद्ध व्यक्ति को, जब तक कि ज़मानत देने से मना करने के लिये विशेष कारण न हों, ज़मानत पर ऐसी अवधि के लिये रिहा किया जाए जो अपील प्रस्तुत करने एवं उपधारा (1) के अधीन अपील न्यायालय के आदेश प्राप्त करने के लिये पर्याप्त समय दे सके, तथा कारावास का दण्डादेश, जब तक वह इस प्रकार ज़मानत पर रिहा रहता है, निलम्बित समझा जाएगा।
    • जब अपीलकर्त्ता को अंततः एक अवधि के लिये कारावास या आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाती है, तो जिस अवधि के दौरान उसे रिहा किया जाता है, उसे उस अवधि की गणना में शामिल नहीं किया जाएगा जिसके लिये उसे सज़ा सुनाई गई है।
    • यह खण्ड पहले दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 389 के अधीन आता था।