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लिव इन रिलेशनशिप

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 13-Mar-2024

रक्षा एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य

कोई व्यक्ति, जिसका जीवनसाथी जीवित है, वह कानून के प्रावधानों का उल्लंघन करते हुए विवाहेत्तर संबंध और लिव-इन रिलेशनशिप में नहीं रह सकता है।

न्यायमूर्ति रेनू अग्रवाल

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रक्षा एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य के मामले में माना है कि हिंदू विधि के अनुसार, कोई व्यक्ति, जिसका जीवनसाथी जीवित है, वह कानून के प्रावधानों का उल्लंघन करते हुए विवाहेत्तर संबंध और लिव-इन रिलेशनशिप में नहीं रह सकता है।

रक्षा एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, याचिकाकर्त्ताओं (याचिकाकर्त्ता संख्या 1 और संख्या 2) ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष एक याचिका दायर की है जिसमें पुलिस अधिकारियों को प्रतिवादी (याचिकाकर्त्ता संख्या 1 के कथित पति) और उसके परिवार के सदस्यों के विरुद्ध पुलिस सुरक्षा प्रदान करने के लिये पुलिस अधिकारियों को निर्देश देने की मांग की गई है।
  • याचिकाकर्त्ताओं के संबंधित वकील द्वारा प्रस्तुत किया गया था कि याचिकाकर्त्ता नंबर 1 के माता-पिता ने उसका विवाह प्रतिवादी के साथ तब किया था जब याचिकाकर्त्ता नंबर 1 की आयु 13 वर्ष थी और वह अवयस्क थी। याचिकाकर्त्ता नंबर 1 का कथित विवाह अमान्य है और इसलिये वह स्वेच्छा से याचिकाकर्त्ता नंबर 2 के साथ लिव-इन-रिलेशनशिप में रह रही है।
  • स्थायी परामर्शी ने प्रस्तुत किया है कि याचिकाकर्त्ता संख्या 1 पहले से ही विवाहित है, और उसके विवाह को किसी भी सक्षम न्यायालय द्वारा शून्य घोषित नहीं किया गया है तथा वह याचिकाकर्त्ता संख्या 2 के साथ लिव-इन-रिलेशनशिप में है और इस प्रकार के संबंध का न्यायालय द्वारा समर्थन नहीं किया जा सकता है।
  • याचिका खारिज़ करते हुए उच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायालय लिव-इन रिलेशनशिप के विरुद्ध नहीं है बल्कि अवैध संबंधों के विरुद्ध है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति रेनू अग्रवाल ने कहा कि न्यायालय ऐसे संबंध की रक्षा नहीं कर सकता जो विधि द्वारा समर्थित नहीं है। यदि न्यायालय इस प्रकार के मामलों में लिप्त होगा और अवैध संबंधों को संरक्षण देगा, तो इससे समाज में अराजकता उत्पन्न होगी, इसलिये इस प्रकार के संबंधों का न्यायालय द्वारा समर्थन नहीं किया जा सकता है।
  • आगे यह माना गया कि विधि का पालन करने वाला कोई भी नागरिक जो हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत पहले से ही शादीशुदा है, विवाहेत्तर संबंध के लिये इस न्यायालय से सुरक्षा की मांग नहीं कर सकता है, जो इस देश के सामाजिक रूढ़ियों के दायरे में नहीं है। विवाह की पवित्रता के संदर्भ में विवाह-विच्छेद पहले से निहित है। यदि उसका अपने पति के साथ कोई मतभेद है, तो उसे सबसे पहले समुदाय पर लागू कानून के अनुसार अपने जीवनसाथी से अलग होने के लिये आवश्यक कदम उठाने होंगे यदि हिंदू विधि उस पर लागू नहीं होती है।

लिव इन रिलेशनशिप के संबंध में विधिक प्रावधान क्या हैं?

परिचय:

  • विशेष रूप से लिव-इन रिलेशनशिप को संबोधित करने वाली कोई विधि नहीं है, लेकिन भारतीय न्यायपालिका ने पिछले कुछ वर्षों में निर्णयों की एक शृंखला के माध्यम से न्यायशास्त्र विकसित किया है।
  • बद्री प्रसाद बनाम उप निदेशक समेकन (1978) मामले में, उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अनुसार, भारत में लिव-इन रिलेशनशिप विधिक हैं, लेकिन विवाह की आयु, सहमति और मानसिक स्वस्थता जैसी चेतावनियों के अधीन हैं।
  • लिव-इन रिलेशनशिप की वैधता भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 19 (a)- भाषण तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार और अनुच्छेद 21- जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की सुरक्षा से उपजी है।
  • उच्चतम न्यायालय ने लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2006) मामले में, निर्णय सुनाया कि विपरीत लिंग के दो व्यक्ति एक साथ रहकर कुछ भी अविधिक नहीं कर रहे हैं।
  • वेलुसामी बनाम डी. पचैमल (2010) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने लिव-इन रिलेशनशिप को वैध बनाने के लिये मानदण्ड निर्धारित किये।
    • दंपति को स्वयं को जीवनसाथी के समान समाज के समक्ष प्रस्तुत करना चाहिये।
    • उनकी विवाह करने की आयु वैध होनी चाहिये।
    • उन्हें अविवाहित होने सहित, विधिक विवाह में प्रवेश करने के लिये अन्यथा योग्य होना चाहिये।
    • उन्हें स्वेच्छा से एक साथ रहना होगा और एक महत्त्वपूर्ण अवधि के लिये जीवनसाथी के समान होने के नाते स्वयं को विश्व के समक्ष प्रस्तुत होना होगा।

निर्णयज विधि:

  • इंद्रा शर्मा बनाम वी. के. वी. शर्मा (2013) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि लिव-इन रिलेशनशिप में महिला साथी को घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 (PWDV) के तहत संरक्षित किया गया है।
  • कट्टुकंडी एडाथिल कृष्णन एवं अन्य बनाम कट्टुकंडी एडाथिल वाल्सन एवं अन्य (2022) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि लिव-इन रिलेशनशिप में पार्टनर से पैदा हुए बच्चों को धर्मज माना जा सकता है। ऐसे बच्चे पारिवारिक उत्तराधिकारी बन सकते हैं।