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आपराधिक कानून

CrPC की धारा 313 के अधीन अभियुक्त की परीक्षा

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 10-Jul-2024

नरेश कुमार बनाम दिल्ली राज्य

“जब समान आशय का निष्कर्ष दोहरी अपराधजनक परिस्थितियों पर आधारित था और जब उन्हें धारा 313, CrPC के अधीन अपीलकर्त्ता के समक्ष नहीं रखा गया था, तो केवल यह माना जा सकता है कि अपीलकर्त्ता सार-रूप से पूर्वाग्रह से ग्रसित था तथा इसके परिणामस्वरूप न्याय की स्पष्ट विफलता हुई”।

न्यायमूर्ति सी. टी. रविकुमार और न्यायमूर्ति संदीप मेहता

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति सी. टी. रविकुमार और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि अभियुक्त की दोषसिद्धि यथावत् नहीं रखी जा सकती, क्योंकि उससे दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 313 के अधीन परीक्षा नहीं की गई तथा इसके परिणामस्वरूप अभियुक्त के प्रति पूर्वाग्रह उत्पन्न हुआ।

नरेश कुमार बनाम दिल्ली राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • अपीलकर्त्ता अभियुक्त की पत्नी मीना ने लक्ष्मी के एक कृत्य से क्रोधित होकर उसे अपशब्द कहे।
  • अपीलकर्त्ता ने भी उसे अपशब्द कहना आरंभ कर दिया और मृतक अरुण कुमार ने उसे दुर्व्यवहार न करने के लिये कहा।
  • अपीलकर्त्ता ने अपने भाई महिंदर कुमार को उकसाया कि वह बाहर आकर उसे खत्म कर दे।
  • महिंदर चाकू लेकर बाहर आया और अपीलकर्त्ता ने मृतक को पकड़ लिया तथा महिंदर ने चाकू से उसकी छाती पर बार-बार वार किया।
  • अपीलकर्त्ता ने भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 और आईपीसी की धारा 34 के तहत अपनी दोषसिद्धि की पुष्टि को चुनौती दी है।
  • अपीलकर्त्ता का मामला यह था कि CrPC की धारा 313 का अनुपालन नहीं किया गया, जिससे अपीलकर्त्ता को हानि हुई है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि CrPC की धारा 313 प्राकृतिक न्याय के हितकारी सिद्धांत अर्थात् ऑडी अल्टरम पार्टम को मूर्त रूप देती है।
  • यह सुस्थापित है कि CrPC की धारा 313 के अधीन अभियुक्त की गैर-परीक्षा या अपर्याप्त जाँच से दोषी के वाद पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा, जब तक कि इससे अभियुक्त के प्रति सार-रूप में पूर्वाग्रह उत्पन्न न हो या न्याय में चूक न हो।
  • इस प्रकार, न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या अभियुक्त के प्रति सार-रूप कोई में पूर्वाग्रह उत्पन्न हुआ था।
  • दो अपराधजनक परिस्थितियाँ थीं जिन पर CrPC की धारा 313 के अधीन कोई परीक्षा नहीं की गई थी:
    • अपीलकर्त्ता ने अरुण कुमार और अन्य को जान से मारने के लिये उकसाया था।
    • अपीलकर्त्ता ने मृतक को पकड़ लिया ताकि महिंदर कुमार उसकी छाती पर बार-बार चाकू से वार कर सके।
  • न्यायालय ने माना कि इसमें सार-रूप में पूर्वाग्रह और न्याय की स्पष्ट विफलता थी क्योंकि:
    • अपीलकर्त्ता ने कहा कि सामान्य आशय दो अपराधजनक परिस्थितियों पर आधारित था, जो अपीलकर्त्ता के समक्ष CrPC की धारा 313 के अधीन नहीं रखी गई थी।
    • अंततः सुनवाई के परिणामस्वरूप धारा 302 के अधीन दोषसिद्धि हुई तथा धारा 34 की सहायता से अपीलकर्त्ता को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई।
  • न्यायालय ने अंततः माना कि घटना 29 वर्ष से अधिक पहले घटित हुई थी तथा अपीलकर्त्ता पहले ही 12 वर्ष से अधिक समय तक कारावास में रह चुका है, अतः यदि उसे पुनः CrPC की धारा 313 के अधीन परीक्षा के लिये रखा जाता है, तो इससे सके प्रति और अधिक पूर्वाग्रह उत्पन्न होगा।
  • अत: यह माना गया कि अपीलकर्त्ता की दोषसिद्धि यथावत् नहीं रखी जा सकती।

दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 313 के अंतर्गत अभियुक्त की परीक्षा क्या है?

  • CrPC की धारा 313(1) में प्रावधान है कि प्रत्येक जाँच या परीक्षण में, अभियुक्त को उसके विरुद्ध साक्ष्य में प्रदर्शित किसी भी परिस्थिति को व्यक्तिगत रूप से स्पष्ट करने में सक्षम बनाने के उद्देश्य से, न्यायालय-
    • किसी भी स्तर पर, बिना पूर्व चेतावनी के, अभियुक्त से ऐसे प्रश्न पूछ सकता है जिन्हें न्यायालय आवश्यक समझे।
    • अभियोजन पक्ष के साक्षियों की जाँच हो जाने के बाद तथा बचाव पक्ष के साक्षी को बुलाए जाने से पहले, उससे मामले के संबंध में सामान्य प्रश्न पूछे जाएंगे
  • परंतु यह कि किसी समन मामले में, जहाँ न्यायालय ने अभियुक्त को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने से छूट दे दी है, वहाँ वह खंड (ख) के अधीन उसकी परीक्षा से भी छूट दे सकता है।
  • धारा 313 (2) में प्रावधान है कि उपधारा (1) के अंतर्गत अभियुक्त की परीक्षा किये जाने पर उसे शपथ नहीं दिलाई जाएगी।
  • खंड (3) में प्रावधान है कि अभियुक्त ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने से प्रतिषेध कर या उनका गलत उत्तर देकर स्वयं को दण्ड का भागी नहीं बनाएगा।
  • खंड (4) में यह प्रावधान है कि अभियुक्त द्वारा दिये गए उत्तरों को ऐसी जाँच या परीक्षण में ध्यान में लिया जा सकता है तथा किसी अन्य जाँच या परीक्षण में उसके पक्ष में या उसके विरुद्ध साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है, किसी अन्य अपराध के लिये, जिसके विषय में ऐसे उत्तरों से यह पता चलता हो कि उसने अपराध किया है।
  • खंड (5) में प्रावधान है कि न्यायालय, अभियुक्त से पूछे जाने वाले प्रासंगिक प्रश्नों को तैयार करने में अभियोजन और बचाव पक्ष के अधिवक्ता की सहायता ले सकता है तथा न्यायालय, इस धारा के पर्याप्त अनुपालन के रूप में अभियुक्त द्वारा लिखित बयान दाखिल करने की अनुमति दे सकता है।
  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 351 में इसका प्रावधान है।

CrPC की धारा 313 पर ऐतिहासिक निर्णयज विधियाँ क्या हैं?

  • राज कुमार @ सुमन बनाम राज्य (NCT दिल्ली) (2023):
    • इस मामले में CrPC की धारा 313 के अधीन विधि का सारांश इस प्रकार दिया गया है:
      • ट्रायल कोर्ट का यह कर्त्तव्य है कि वह अभियुक्त के विरुद्ध साक्ष्य में आने वाली प्रत्येक भौतिक परिस्थिति को अलग-अलग, विशिष्ट रूप से और विशिष्ट रूप से प्रस्तुत करे।
      • भौतिक परिस्थिति वह परिस्थिति है जिसके आधार पर अभियोजन पक्ष दोषसिद्धि की मांग कर रहा है।
      • इसका उद्देश्य अभियुक्त को उसके विरुद्ध साक्ष्य में प्रदर्शित किसी भी परिस्थिति को स्पष्ट करने में सक्षम बनाना है।
      • न्यायालय को अभियुक्त के मामले पर विचार करते समय उस भौतिक परिस्थिति पर विचार नहीं करना चाहिये जो अभियुक्त के समक्ष नहीं रखी गई है।
      • अभियुक्त के समक्ष भौतिक परिस्थिति प्रस्तुत करने में विफलता गंभीर अनियमितता के समान है और यदि यह सिद्ध हो जाता है कि इससे अभियुक्त के प्रति पूर्वाग्रह उत्पन्न हुआ है तो इससे वाद की प्रक्रिया प्रभावित होगी।
      • यदि अभियुक्त को भौतिक परिस्थितियाँ बताने में अनियमितता न्याय की विफलता का कारण नहीं बनती है, तो यह एक सुधार योग्य दोष है। यह तय करते समय कि क्या दोष को ठीक किया जा सकता है, घटना की तिथि से समय बीतने पर विचार किया जाता है।
      • यदि अनियमितता सुधार योग्य है, तो अपीलीय न्यायालय भी अभियुक्त से उन भौतिक परिस्थितियों के विषय में पूछताछ कर सकता है, जो उसके समक्ष नहीं रखी गई हैं।
      • किसी मामले में धारा 313 के अंतर्गत अभियुक्त के पूरक बयान दर्ज करने के चरण से मामले को ट्रायल कोर्ट को वापस भेजा जा सकता है।
      • यह तय करते समय कि क्या अभियुक्त के प्रति कोई पूर्वाग्रह उत्पन्न हुआ है, तर्क करने में देरी, विचार किये जाने वाले कई कारकों में से मात्र एक है।
  • शोभित चमार एवं अन्य बनाम बिहार राज्य (1998):
    • जहाँ धारा 313 का अनुपालन न करने का तर्क प्रथम बार उच्चतम न्यायालय के समक्ष उठाया गया था और यह सिद्ध हो गया है कि अभियुक्त को कोई पूर्वाग्रह नहीं हुआ है, वहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि वाद दोषपूर्ण था।
  • इंद्रकुँवर बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2023):
    • CrPC उच्चतम न्यायालय ने CrPC की धारा 313 पर फिर से विधान बनाया:
      • इस धारा का उद्देश्य न्यायालय और अभियुक्त के बीच संवाद स्थापित करना है।
      • अभियुक्त अपनी संलिप्तता स्वीकार कर सकता है या नहीं भी कर सकता है, या फिर घटनाओं या व्याख्या का वैकल्पिक संस्करण भी प्रस्तुत कर सकता है।
      • इस बयान को दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं बनाया जा सकता और यह न तो कोई ठोस साक्ष्य है तथा न ही कोई वैकल्पिक साक्ष्य है।
        • इससे दोषमुक्ति तो नहीं होती, परंतु अभियोजन का भार कम हो जाता है।
      • इस वक्तव्य को संपूर्ण रूप में पढ़ा जाना चाहिये तथा इसके किसी एक भाग को अलग करके नहीं पढ़ा जा सकता।
      • ऐसा बयान शपथ पर नहीं दिया गया है और इसलिये भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 3 के तहत साक्ष्य के रूप में योग्य नहीं माना जा सकता है; हालाँकि बयान के दोषपूर्ण आयाम का उपयोग अभियोजन पक्ष के मामले को विश्वसनीयता प्रदान करने के लिये किया जा सकता है।
      • जिन परिस्थितियों को अभियुक्त के समक्ष नहीं रखा गया है, उन पर विचार नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि उन्हें स्पष्ट करने का कोई अवसर नहीं दिया गया।
      • न्यायालय को अभियुक्त से सभी आपत्तिजनक परिस्थितियों के विषय में प्रश्न पूछना चाहिये।
  • जय प्रकाश तिवारी बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2022):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 313 अभियुक्त को अपनी निर्दोषता सिद्ध करने का अधिकार प्रदान करती है और इसे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत संवैधानिक अधिकार माना जा सकता है।
    • न्यायालय ने यह भी कहा कि सभी परिस्थितियों को एक साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से निष्पक्ष अवसर नष्ट हो जाएगा और यह मात्र औपचारिकता के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा।