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वाणिज्यिक विधि

माध्यस्थम् याचिका में मांग का उल्लेख न होना

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 08-Jan-2024

यूनियन ऑफ इंडिया बनाम मेसर्स पैनेसिया बायोटेक लिमिटेड

"राहत मांगे बिना, शुरुआत में याचिका सुनवाई योग्य नहीं है, जिससे यह अस्थायी हो जाती है।"

न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत और नीना बंसल कृष्णा

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

परिचय:

न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत और नीना बंसल कृष्णा ने हाल ही में कहा कि यदि कोई पक्ष माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 (A&C अधिनियम) की धारा 34 के तहत प्रस्तुत आवेदन में मांग का उल्लेख नहीं करता है, तो यह आवेदन अमान्य हो जाता है।

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह फैसला यूनियन ऑफ इंडिया बनाम मेसर्स पैनेसिया बायोटेक लिमिटेड के मामले में दिया।

यूनियन ऑफ इंडिया बनाम मेसर्स पैनेसिया बायोटेक लिमिटेड की पृष्ठभूमि क्या है?

  • अपीलकर्त्ता ने ऐसी याचिका दायर करने के लिये अधिनियम में उल्लिखित 3 महीने और 30 दिनों की सीमा अवधि से सुमेलित होने के लिये A&C अधिनियम की धारा 34 के तहत लापरवाही से पहली याचिका दायर की।
  • अपीलकर्त्ता ने मांग करते समय इसका उल्लेख करना छोड़ दिया।
  • अपीलकर्त्ता ने मूल याचिका की खामियों को दूर करने के लिये फिर से याचिका दायर की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि A&C अधिनियम की धारा 34 के तहत विवादित फैसले को रद्द करने की मांग के बिना एक याचिका को वैध याचिका नहीं माना जा सकता है क्योंकि ऐसी याचिकाएँ राहत के बिना आधारहीन होंगी।
    • बिना किसी मांग के यह नहीं समझा जा सकता कि याचिका में दिये गए कथनों के आधार पर क्या राहत मांगी जा रही है?
    • इस प्रकार, राहत की मांग के बिना, शुरुआत में याचिका सुनवाई के योग्य नहीं है, जिससे यह अस्थायी हो जाती है।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि मांग खंड के बिना ऐसी अधूरी याचिकाओं को वैध फाइलिंग के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि A&C अधिनियम की धारा 34 के तहत आपत्तियाँ दर्ज करने की समय सीमा अस्थिर है।
    • इस प्रकार, यह किसी भी संदेह से परे है कि अधिनियम, 1996 की धारा 34(3) के तहत 3 महीने और 30 दिनों की इस समय सीमा के भीतर एक पूरी याचिका दायर की जानी चाहिये, जो अपीलकर्त्ता करने में विफल रहा है।
  • न्यायालय ने अपील खारिज़ कर दी।

याचिका में प्रार्थना के उल्लेख पर ऐतिहासिक मामले क्या हैं?

  • ट्रोजन एंड कंपनी लिमिटेड बनाम आर. एम. एन. एन. नागप्पा चेट्टियार (1953):
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि वादपत्र में मांग खंड उस राहत को इंगित करता है जो दाखिल करने वाले पक्ष द्वारा मांगी गई है और न्यायालय ऐसी राहत देने का हकदार नहीं है जो नहीं मांगी गई थी।
    • इस प्रकार, मांग प्रकरण में संबंधित मांग के बिना कोई राहत नहीं दी जा सकती।
  • भरत अमृतलाल कोठारी एवं अन्य वी. दोसुखान समदखान सिंध और अन्य (2010):
    • उच्चतम न्यायालय ने राहत प्राप्त करने के लिये मांग का उल्लेख करने के महत्त्व पर गौर किया।

इस मामले में क्या विधिक प्रावधान शामिल हैं?

धारा 34: माध्यस्थम् पंचाट अपास्त करने के लिये आवेदन-

(1) माध्यस्थम् पंचाट के विरुद्ध, न्यायालय का आश्रय केवल उपधारा (2) या उपधारा (3) के अनुसार, ऐसे पंचाट को अपास्त करने के लिये आवेदन करके ही लिया जा सकेगा ।

(2) कोई माध्यस्थम् पंचाट न्यायालय द्वारा तभी अपास्त किया जा सकेगा, यदि-

(a) आवेदन करने वाला पक्षकार यह सबूत देता है कि-

(i) कोई पक्षकार किसी असमर्थता से ग्रस्त था, या

(ii) माध्यस्थम् करार उस विधि के, जिसके अधीन पक्षकारों ने उसे किया है या इस बारे में कोई संकेत न होने पर, तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन विधिमान्य नहीं है; या

(iii) आवेदन करने वाले पक्षकार को, मध्यस्थ की नियुक्ति की या माध्यस्थम् कार्यवाहियों की उचित सूचना नहीं दी गई थी, या वह अपना मामला प्रस्तुत करने में अन्यथा असमर्थ था; या

(iv) माध्यस्थम् पंचाट ऐसे विवाद से संबंधित है जो अनुध्यात नहीं किया गया है या माध्यस्थम् के लिये निवेदन करने के लिये रखे गए निबंधनों के भीतर नहीं आता है या उसमें ऐसी बातों के बारे में विनिश्चय है जो माध्यस्थम् के लिये निवेदित विषयक्षेत्र से बाहर हैं :

परंतु यदि, माध्यस्थम् के लिये निवेदित किये गए विषयों पर विनिश्चयों को उन विषयों के बारे में किये

गए विनिश्चयों से पृथक् किया जा सकता है, जिन्हें निवेदित नहीं किया गया है, तो माध्यस्थम् पंचाट के केवल उस भाग को, जिसमें माध्यस्थम् के लिये निवेदित न किये गए विषयों पर विनिश्चय है, अपास्त किया जा सकेगा; या

(v) माध्यस्थम् अधिकरण की संरचना या माध्यस्थम् प्रक्रिया, पक्षकारों के करार के अनुसार नहीं थी, जब तक कि ऐसा करार इस भाग के उपबंधों के विरोध में न हो और जिससे पक्षकार नहीं हट सकते थे, या ऐसे करार के अभाव में, इस भाग के अनुसार नहीं थी; या

(b) न्यायालय का यह निष्कर्ष है कि-

(i) विवाद की विषय-वस्तु, तत्समय प्रवृत्त विधि के अधीन माध्यस्थम् द्वारा निपटाए जाने योग्य नहीं हैं; या

(ii) माध्यस्थम् पंचाट भारत की लोक नीति के विरुद्ध है।

स्पष्टीकरण- उपखंड (ii) की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, किसी शंका को दूर करने के लिये यह घोषित किया जाता है कि कोई पंचाट भारत की लोक नीति के विरुद्ध है यदि पंचाट का दिया जाना कपट या भ्रष्ट आचरण द्वारा उत्प्रेरित या प्रभावित किया गया था या धारा 75 अथवा धारा 81 के अतिक्रमण में था ।

(3) अपास्त करने के लिये कोई आवेदन, उस तारीख से, जिसको आवेदन करने वाले पक्षकार ने माध्यस्थम् पंचाट प्राप्त किया था, या यदि अनुरोध धारा 33 के अधीन किया गया है तो उस तारीख से, जिसको माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा अनुरोध का निपटारा किया गया था, तीन मास के अवसान के पश्चात् नहीं किया जाएगा :

परंतु यह कि जहाँ न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि आवेदक उक्त तीन मास की अवधि के भीतर आवेदन करने से पर्याप्त कारणों से निवारित किया गया था तो वह तीस दिन की अतिरिक्त अवधि में आवेदन ग्रहण कर सकेगा किंतु इसके पश्चात् नहीं ।

(4) उपधारा (1) के अधीन आवेदन प्राप्त होने पर, जहाँ यह समुचित हो और इसके लिये किसी पक्षकार द्वारा अनुरोध किया जाए, वहाँ न्यायालय, माध्यस्थम् अधिकरण को इस बात का अवसर देने के लिये कि वह माध्यस्थम् कार्यवाहियों को चालू रख सके या ऐसी कोई अन्य कार्रवाई कर सके जिससे माध्यस्थम् अधिकरण की राय में माध्यस्थम् पंचाट के अपास्त करने के लिये आधार समाप्त हो जाएँ, कार्यवाहियों को उतनी अवधि के लिये स्थगित कर सकेगा जो उसके द्वारा अवधारित की जाएँ।

(5) इस धारा के तहत एक आवेदन एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष को पूर्व सूचना जारी करने के बाद ही दायर किया जाएगा और ऐसे आवेदन के साथ आवेदक द्वारा उक्त आवश्यकता के अनुपालन का समर्थन करने वाला एक शपथ-पत्र संलग्न किया जाएगा।

(6) इस धारा के तहत एक आवेदन का निपटान शीघ्रता से किया जाएगा और किसी भी घटना में, उस तारीख से एक वर्ष की अवधि के भीतर, जिस दिन उप-धारा (5) में निर्दिष्ट नोटिस दूसरे पक्ष को दिया जाएगा।