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आपराधिक कानून
पॉलीग्राफ टेस्ट
« »29-May-2024
जसबीर सिंह (मृत) बनाम CBI “पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने पॉलीग्राफ परीक्षण की वैधता को खारिज कर दिया और CBI पर एक प्रमुख गवाह पर दबाव डालने का आरोप लगाया, जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 2002 के हत्या मामले में राम रहीम सिंह को दोषमुक्त कर दिया गया”। न्यायमूर्ति सुरेश्वर ठाकुर और न्यायमूर्ति ललित बत्रा |
स्रोत: पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह और चार अन्य को वर्ष 2002 के रणजीत सिंह हत्याकांड में दोषमुक्त किये जाने से विवाद उत्पन्न हो गया है। न्यायालय ने कहा कि पॉलीग्राफ टेस्ट कराने से पहले आरोपियों की सहमति ली गई थी।
जसबीर सिंह (मृत) बनाम CBI मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 10 जुलाई 2002 को रणजीत सिंह की चार लोगों ने खेतों में गोली मारकर हत्या कर दी थी। उनके पिता जोगिंदर सिंह को पूर्व विवादों के कारण राम कुमार सरपंच और राज सिंह पर शक था।
- जोगिंदर सिंह के बयान के आधार पर राम कुमार सरपंच, राज सिंह और चार अन्य के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 120-B, 302, 34 के अधीन FIR दर्ज की गई।
- बाद में जोगिंदर सिंह ने यौन शोषण से संबंधित एक गुमनाम-पत्र से संबंधित संदेह का हवाला देते हुए डेरा सच्चा सौदा के अनुयायियों को इसमें फँसाया।
- 08.2002 को जोगिंदर सिंह ने जसबीर सिंह और बाबा गुरमीत सिंह के कांस्टेबल तथा गनर सबदिल सिंह को हत्या में शामिल किया।
- 11.2002 को मामला CID क्राइम ब्रांच को सौंप दिया गया। 02.12.2002 को जसबीर सिंह और सबदिल सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया।
- CID अपराध शाखा ने 17.02.2003 को जसबीर सिंह और सबदिल सिंह के विरुद्ध आरोप-पत्र तथा एक पूरक आरोप-पत्र दायर किया।
- स्थानीय पुलिस की जाँच से असंतुष्ट होकर जोगिंदर सिंह ने CBI जाँच के लिये याचिका दायर की।
- उच्च न्यायालय ने 10.11.2003 को मामला CBI को हस्तांतरित कर दिया और जाँच प्रारंभ कर दी।
- कथित घटना से संबंधित तीन आरोपियों का पॉलीग्राफ टेस्ट कराया गया।
- उच्च न्यायालय ने डेरा प्रमुख और चार अन्य आरोपियों को उनकी अपीलों को स्वीकारते हुए दोषमुक्त कर दिया तथा पिछले निर्णय को पलट दिया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह और चार अन्य को दोषमुक्त कर दिया, जिन्हें वर्ष 2002 के रंजीत सिंह हत्या मामले में CBI न्यायालय ने आजीवन कारावास का दण्ड दिया था।
- खंडपीठ ने पाया कि CBI, जिसने नवंबर 2023 में जाँच का ज़िम्मा संभाला था, अपराध का उद्देश्य स्थापित करने में विफल रही तथा अभियोजन पक्ष का मामला "संदेह से घिरा हुआ" था।
- न्यायालय ने कहा कि वर्तमान मामला, न्यायालयों द्वारा अभिलेख पर उपलब्ध साक्ष्यों का तीक्ष्ण एवं वस्तुनिष्ठ विश्लेषण करने की आवश्यकता को स्पष्ट रूप से दर्शाता है, न कि उक्त वस्तुनिष्ठ विश्लेषण को अपराध की घटना के संबंध में अभियुक्त की कथित दोषपूर्ण भूमिका के विषय में मीडिया ट्रायल के माध्यम से निरर्थक बनाने का प्रयास किया जाना चाहिये।
- एक कथित घटना से संबंधित तीन आरोपियों पर पॉलीग्राफ टेस्ट किया गया। न्यायालय ने कहा कि इस परीक्षण के परिणामों से पता चलता है कि संबंधित प्रश्नों के कुछ भ्रामक उत्तर दिये गए थे।
- इसमें आगे कहा गया कि ऐसा कहीं भी नहीं कहा गया है कि पॉलीग्राफ परीक्षण करने से पहले आरोपी व्यक्तियों की सहमति ली गई थी।
पॉलीग्राफ टेस्ट क्या है?
- पॉलीग्राफ या झूठ डिटेक्टर टेस्ट एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें रक्तचाप, नाड़ी, श्वसन और त्वचा चालकता जैसे कई शारीरिक संकेतकों को मापा तथा रिकॉर्ड किया जाता है, जबकि टेस्ट कराने वाले व्यक्ति से कई प्रश्न पूछे जाते हैं एवं वह उनका उत्तर देता है।
- यह परीक्षण इस धारणा पर आधारित है कि जब कोई व्यक्ति झूठ बोलता है तो उसकी शारीरिक प्रतिक्रियाएँ, सामान्यतः होने वाली प्रतिक्रियाओं से भिन्न होती हैं।
- प्रत्येक उत्तर को एक संख्यात्मक मान दिया जाता है ताकि यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि व्यक्ति सच बोल रहा है, धोखा दे रहा है, या अनिश्चित है।
- पॉलीग्राफ जैसा परीक्षण पहली बार 19वीं शताब्दी में इतालवी अपराध विज्ञानी सेसारे लोम्ब्रोसो द्वारा किया गया था, जिन्होंने पूछताछ के दौरान संदिग्ध आपराधिक व्यक्तियों के रक्तचाप में परिवर्तन को मापने के लिये एक मशीन का उपयोग किया था।
पॉलीग्राफ टेस्ट की विधिक स्वीकार्यता क्या है?
- पॉलीग्राफी परीक्षण, नार्को-विश्लेषण एवं ब्रेन-मैपिंग जैसी अन्य विधियों के साथ, पुलिस द्वारा की जाने वाली शारीरिक हिंसा से बचते हुए जाँच को सुविधाजनक बनाने के लिये उपयोग किया जाता है।
- ये विधियाँ मुख्य रूप से अभियुक्त से सूचना प्राप्त करने तथा संभावित रूप से उन्हें दोषी ठहराने के लिये प्रयोग की जाती हैं।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21(3) के अनुसार, किसी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध गवाही देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता, जिससे पॉलीग्राफी परीक्षण के परिणाम न्यायालय में साक्ष्य के रूप में अस्वीकार्य हो जाते हैं।
- राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गोपनीयता अधिकारों की रक्षा करते हुए अनुच्छेद 21 के अनुसार पॉलीग्राफ परीक्षण आयोजित करने के लिये दिशा-निर्देश जारी किये हैं।
- इन दिशा-निर्देशों से पूर्व, ये परीक्षण अक्सर बलपूर्वक किये जाते थे और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन करते थे। दिशा-निर्देशों के बावजूद भी, कुछ एजेंसियाँ NHRC की अनुशंसाओं का पूरी तरह से पालन नहीं करती हैं।
- पॉलीग्राफी परीक्षण की सटीकता के विषय में प्रश्न उठते हैं, क्योंकि पूछताछ के दौरान भय या घबराहट के कारण परिणाम अविश्वसनीय हो सकते हैं।
- इससे निर्दोष व्यक्तियों को गलत दण्ड मिलने का संकट उत्पन्न हो जाता है, जो ऐसे परीक्षणों में दबाव में आकर स्वयं पर गलत आरोप लगा सकते हैं।
पॉलीग्राफ टेस्ट के संबंध में NHRC द्वारा जारी दिशा-निर्देश क्या हैं?
- राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) द्वारा संदिग्धों पर पॉलीग्राफ परीक्षण कराने के संबंध में जारी दिशा-निर्देश एक निष्पक्ष और पारदर्शी प्रक्रिया सुनिश्चित करते हैं, जिसमें अभियुक्तों के अधिकारों का सम्मान किया जाता है।
- स्वैच्छिक सहमति: अभियुक्त को पॉलीग्राफ परीक्षण के लिये स्वेच्छा से अपनी सहमति देनी होगी। उनके पास परीक्षण से मना करने का विकल्प होना चाहिये।
- सूचित सहमति: परीक्षण के लिये सहमति देने से पहले, आरोपी को इसके उद्देश्य, प्रक्रिया एवं विधिकनिहितार्थों के विषय में पूरी सूचना होनी चाहिये। यह सूचना पुलिस तथा आरोपी के अधिवक्ता द्वारा प्रदान की जानी चाहिये।
- अभिलिखित सहमति: पॉलीग्राफ परीक्षण के लिये अभियुक्त की सहमति न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष अभिलिखित की जानी चाहिये।
- दस्तावेज़: न्यायालय की कार्यवाही के समय, पुलिस को यह प्रदर्शित करने के लिये साक्ष्य प्रस्तुत करने होंगे कि आरोपी पॉलीग्राफ टेस्ट कराने के लिये सहमत था। यह दस्तावेज़ अधिवक्ता द्वारा न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है।
- बयानों का स्पष्टीकरण: अभियुक्त को यह समझना चाहिये कि पॉलीग्राफ परीक्षण के समय दिये गए बयानों को पुलिस को दिये गए बयान माना जाता है, न कि स्वीकारोक्ति।
- न्यायिक विचार: पॉलीग्राफ परीक्षण के परिणामों पर विचार करते समय, न्यायाधीश अभियुक्त की अभिरक्षा की अवधि एवं पूछताछ जैसे कारकों पर विचार करता है।
पॉलीग्राफ टेस्ट से संबंधित ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?
- सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य मामला 2010:
- उच्चतम न्यायालय ने नार्को परीक्षणों की वैधता और स्वीकार्यता पर निर्णय देते हुए कहा कि नार्को या झूठ डिटेक्टर परीक्षणों का अनैच्छिक रूप से किया जाना उस व्यक्ति की "मानसिक गोपनीयता" में घुसपैठ है।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि नार्को परीक्षण संविधान के अनुच्छेद 20(3) के अधीन आत्म-दोषी ठहराए जाने के विरुद्ध मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है, जिसमें कहा गया है कि किसी भी अपराध के आरोपी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध गवाह बनने के लिये बाध्य नहीं किया जाएगा।
- आत्म-दोष एक विधिक सिद्धांत है जिसके अधीन किसी व्यक्ति को किसी आपराधिक मामले में स्वयं के विरुद्ध सूचना देने अथवा गवाही देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता।
- डी. के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामला, 1997:
- उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनैच्छिक रूप से पॉलीग्राफ एवं नार्को परीक्षण कराना, अनुच्छेद 21 या जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार के संदर्भ में क्रूर, अमानवीय तथा अपमानजनक व्यवहार माना जाएगा।
- उच्चतम न्यायालय की अन्य टिप्पणियाँ:
- नार्को परीक्षण साक्ष्य के रूप में विश्वसनीय या निर्णायक नहीं हैं, क्योंकि वे मान्यताओं और संभावनाओं पर आधारित होते हैं।
- साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 के अंतर्गत, स्वैच्छिक रूप से किये गए परीक्षण के परिणामों की सहायता से बाद में प्राप्त कोई भी सूचना या सामग्री स्वीकार की जा सकती है।
- IEA की धारा 27 इस बात से संबंधित है कि अभियुक्त से प्राप्त कितनी सूचना को सिद्ध किया जा सकता है।
- इसमें कहा गया है कि जब किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति से, जो पुलिस अधिकारी की अभिरक्षा में है, प्राप्त सूचना के आधार पर कोई तथ्य खोजा जाता है, तो ऐसे तथ्य में से उतनी सूचना, चाहे वह स्वीकारोक्ति हो या न हो, जो खोजे गए तथ्य से स्पष्ट रूप से संबंधित हो, सिद्ध की जा सकेगी।
- न्यायालय ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा वर्ष 2000 में प्रकाशित ‘अभियुक्त पर पॉलीग्राफ परीक्षण के लिये दिशा-निर्देशों’ का सख्ती से पालन किया जाना चाहिये।