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आपराधिक कानून

पुनरीक्षण की शक्ति

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 18-Jun-2024

करण छेत्री बनाम सिक्किम राज्य

"दोषपूर्ण सज़ा- आदेश के विरुद्ध अपील करने में राज्य की विफलता उच्च न्यायालय को उसकी पुनरीक्षण शक्तियों का उपयोग करने से नहीं रोकती है।"

न्यायमूर्ति मीनाक्षी मदन राय एवं न्यायमूर्ति भास्कर राज प्रधान

स्रोत:  सिक्किम उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में करण छेत्री बनाम सिक्किम राज्य के मामले ने ध्यान आकर्षित किया है क्योंकि सिक्किम उच्च न्यायालय ने धारा 376D IPC के अधीन सामूहिक बलात्संग के लिये ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई सज़ा की समीक्षा की है। उच्च न्यायालय ने CrPC की धारा 397 के अधीन अपने अधिकार पर बल दिया कि राज्य द्वारा अपील करने में विफल रहने के बावजूद सज़ा को संशोधित किया जा सकता है, जिससे ऐसे अपराधों के लिये बीस वर्ष के कारावास की सांविधिक न्यूनतम सज़ा का अनुपालन सुनिश्चित हो सके।

  • यह मामला सज़ा संबंधी त्रुटियों को सुधारने तथा राज्य द्वारा अपील न किये जाने की स्थिति में भी सांविधिक न्यूनतम दण्ड का पालन सुनिश्चित करने के लिये उच्च न्यायालय के अधिकार पर प्रकाश डालता है।

करण छेत्री बनाम सिक्किम राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • करण छेत्री बनाम सिक्किम राज्य तथा नीमा शेरपा उर्फ नानी को बाऊ बनाम सिक्किम राज्य, दोनों मामले एक ही FIR से उत्पन्न हुए थे।
  • आरोपी को दोषी पाया गया तथा ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ताओं को धारा 376D भारतीय दण्ड संहिता 1860 (IPC) के अधीन सामूहिक बलात्संग के अपराध के लिये 12 वर्ष के कारावास की सज़ा सुनाई थी।
  • अपीलकर्त्ताओं ने सिक्किम के ग्यालशिंग में फास्ट ट्रैक कोर्ट द्वारा भारतीय दण्ड संहिता की विभिन्न धाराओं के अधीन अपनी सज़ा को चुनौती दी, जिसमें धारा 450 (घर में बलपूर्वक अनाधिकृत प्रवेश), 376D (सामूहिक बलात्संग) एवं 376(2)(l) (बलात्संग का दोहरा अपराध) शामिल है।
  • अपील सिक्किम उच्च न्यायालय में दायर की गई है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • खंडपीठ, ट्रायल कोर्ट द्वारा सामूहिक बलात्संग के लिये अभियुक्तों को दोषी ठहराए जाने के विरुद्ध उनकी अपील की समीक्षा कर रही थी।
  • सिक्किम उच्च न्यायालय ने दोषपूर्ण सज़ा आदेश के विरुद्ध अपील करने में राज्य की विफलता के बावजूद CrPC की धारा 397 के अधीन पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग करने के अपने अधिकार की पुष्टि की।
  • इसने इस बात पर बल दिया कि दोषपूर्ण सज़ा के विरुद्ध अपील न करने में राज्य की लापरवाही उच्च न्यायालय को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 397 एवं धारा 401 के अधीन अपनी पुनरीक्षण शक्तियों का उपयोग करने से नहीं रोकती है ताकि सज़ा को संभावित रूप से बढ़ाया जा सके।
  • न्यायालय ने कहा कि दोषी को विधिवत अधिसूचित किया जाना चाहिये तथा सज़ा के मामले पर व्यक्तिगत रूप से या विधिक प्रतिनिधित्व के माध्यम से विचारण का अवसर प्रदान किया जाना चाहिये।

BNSS क्या है?

परिचय:

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) केंद्र सरकार द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) को प्रतिस्थापित करने के लिये प्रस्तुत किये गए तीन आपराधिक विधि विधेयकों में से एक है।
  • BNSS को 20 दिसंबर, 2023 को लोकसभा में तथा 21 दिसंबर, 2023 को राज्यसभा में पारित किया गया।
  • 25 दिसंबर, 2023 को राष्ट्रपति ने तीन नए आपराधिक संहिता विधेयकों को अपनी स्वीकृति दी।

BNSS की धारा 438 क्या है?

परिचय:

  • BNSS की धारा 438 पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग करने के लिये अभिलेखों को मांगने से संबंधित है, जिसे पहले CrPC की धारा 398 के अधीन निपटाया गया था। इसमें कहा गया है कि-
  • उच्च न्यायालय या कोई सत्र न्यायाधीश अपने स्थानीय क्षेत्राधिकार में स्थित किसी अवर दण्ड न्यायालय के समक्ष किसी कार्यवाही के अभिलेख को मांग सकता है तथा उसकी जाँच कर सकता है ताकि वह स्वयं को किसी निष्कर्ष, दण्डादेश या आदेश की शुद्धता, वैधानिकता या औचित्य के विषय में संतुष्ट कर सके, जो दर्ज किया गया हो या पारित किया गया हो और ऐसे अवर न्यायालय की किसी कार्यवाही की नियमितता के बारे में तथा ऐसा अभिलेख मांगते समय निर्देश दे सकता है कि किसी दण्डादेश या आदेश के निष्पादन को निलंबित कर दिया जाए और यदि अभियुक्त कारावास में है तो उसे अभिलेख की जाँच लंबित रहने तक अपने बाॅण्ड या ज़मानत  बाॅण्ड पर रिहा कर दिया जाए।
    स्पष्टीकरण- सभी मजिस्ट्रेट, चाहे वे कार्यपालक हों या न्यायिक और चाहे वे आरंभिक या अपीलीय अधिकारिता का प्रयोग करते हों, इस उपधारा एवं धारा 439 के प्रयोजनों के लिये    सेशन न्यायाधीश से कनिष्ठ समझे जाएंगे।
  • उप-धारा (1) द्वारा प्रदत्त पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग किसी अपील, जाँच, परीक्षण या अन्य कार्यवाही में पारित किसी मध्यवर्ती आदेश के संबंध में नहीं किया जाएगा।
  • यदि इस धारा के अधीन कोई आवेदन किसी व्यक्ति द्वारा उच्च न्यायालय या सत्र न्यायाधीश के समक्ष किया गया है, तो उसी व्यक्ति द्वारा किया गया कोई और आवेदन उनमें से किसी अन्य द्वारा स्वीकार नहीं किया जाएगा।

BNSS की धारा 442 क्या है?

BNSS की धारा 422 उच्च न्यायालय की पुनरीक्षण शक्तियों से संबंधित है, जिसका निपटारा CrPC की धारा 401 के अधीन किया गया था। इसमें कहा गया है कि-

  • किसी कार्यवाही के मामले में जिसका रिकॉर्ड स्वयं उच्च न्यायालय द्वारा मांगा गया है या जो अन्यथा उसके ज्ञान में आता है, उच्च न्यायालय अपने विवेकानुसार धारा 427, 430, 431 एवं 432 द्वारा अपील न्यायालय को या धारा 344 द्वारा सत्र न्यायालय को प्रदत्त शक्तियों में से किसी का भी प्रयोग कर सकता है तथा जब पुनरीक्षण न्यायालय के न्यायाधीशों की राय समान रूप से विभाजित हो, तो मामले का निपटारा धारा 433 द्वारा प्रदान की गई विधि से किया जाएगा।
  • इस धारा के अंतर्गत कोई भी आदेश अभियुक्त या अन्य व्यक्ति के प्रतिकूल तब तक नहीं दिया जाएगा जब तक कि उसे व्यक्तिगत रूप से या अपने बचाव में अधिवक्ता द्वारा विचारण का अवसर न मिल गया हो।
  • इस धारा की कोई भी बात उच्च न्यायालय को दोषमुक्ति के निष्कर्ष को दोषसिद्धि में परिवर्तित करने के लिये प्राधिकृत करने वाली नहीं समझी जाएगी।
  • जहाँ इस संहिता के अंतर्गत कोई अपील होती है तथा कोई अपील नहीं की जाती है, वहाँ उस पक्षकार के कहने पर पुनरीक्षण के माध्यम से कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी जो अपील कर सकता था।
  • जहाँ इस संहिता के अधीन कोई अपील होती है, किंतु किसी व्यक्ति द्वारा उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण के लिये आवेदन किया गया है तथा उच्च न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि ऐसा आवेदन इस दोषपूर्ण विश्वास के अधीन किया गया था कि उसमें कोई अपील नहीं हो सकती और न्याय के हित में ऐसा करना आवश्यक है, वहाँ उच्च न्यायालय पुनरीक्षण के लिये आवेदन को अपील याचिका के रूप में मान सकेगा और तद्नुसार उस पर कार्यवाही कर सकेगा।

निर्णयज विधियाँ:

  • ईश्वरमूर्ति बनाम एन. कृष्णास्वामी (2006) में मद्रास उच्च न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 397(1) में उल्लिखित शब्द 'दण्ड या आदेश के निष्पादन को निलंबित करने का निर्देश देते हैं' को शब्दों एवं यदि अभियुक्त कारावास में है तो उसे रिकॉर्ड की जाँच लंबित रहने तक ज़मानत पर या उसके बाॅण्ड पर रिहा किया जाना चाहिये से 'विसंगत रूप से' पढ़ा जाना चाहिये।
  • मोहम्मद हासिम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2016) में यह माना गया कि जब विधि के अंतर्गत न्यूनतम सज़ा निर्धारित हो तो न्यायालयों के पास सज़ा कम करने का विवेकाधिकार नहीं है।