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आपराधिक कानून

अभियुक्त के अपराध की उपधारणा

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 21-Mar-2024

सुरेश प्रसाद बनाम झारखंड राज्य

एक बार जब भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304B का मूल संघटक अभियोजन पक्ष द्वारा सिद्ध कर दिया जाता है तो न्यायालय अभियुक्त के अपराध की उपधारणा करेगा।

न्यायमूर्ति रत्नाकर भेंगरा और अंबुज नाथ

स्रोत: झारखंड उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, झारखंड उच्च न्यायालय ने सुरेश प्रसाद बनाम झारखंड राज्य के मामले में कहा है कि एक बार जब भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 304B का मूल संघटक अभियोजन पक्ष द्वारा सिद्ध कर दिया जाता है तो न्यायालय अभियुक्त के अपराध की उपधारणा करेगा।

सुरेश प्रसाद बनाम झारखंड राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अभियोजन का मामला सूचक गुप्तचर द्वारिका महतो की लिखित रिपोर्ट के आधार पर शुरू किया गया था, जिसमें आरोप लगाया गया था कि उसकी बेटी लखिया देवी का विवाह एक वर्ष पहले अपीलकर्त्ता से हिंदू संस्कार और रीति-रिवाज़ के अनुसार हुआ था।
  • विवाह की तारीख से पाँच महीने बाद, अपीलकर्त्ता ने अपने परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर रंगीन टेलीविज़न और मोटरसाइकिल की मांग को पूरा करने के लिये उसे प्रताड़ित करना शुरू कर दिया और 24 मार्च, 2011 को, वह अपने वैवाहिक घर में मृत पाई गई।
  • जाँच के बाद, पुलिस ने घटना को सत्य पाया और अपीलकर्त्ता के विरुद्ध IPC की धारा 304B के तहत आरोप पत्र प्रस्तुत किया।
  • ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ता को IPC की धारा 304B के तहत अपराध का दोषी ठहराया और इस प्रकार, उसे 10,000 रुपए के ज़ुर्माने के साथ आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई तथा ज़ुर्माना अदा न करने पर उसे दी गई सज़ा के अतिरिक्त आगे एक वर्ष के कठोर कारावास भुगतने का निर्देश दिया गया।
  • इस निर्णय के विरुद्ध अपीलकर्त्ता ने झारखंड उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।
  • तद्नुसार, सज़ा में संशोधन के साथ यह अपील को आंशिक रूप से स्वीकार किया गया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति रत्नाकर भेंगरा और न्यायमूर्ति अंबुज नाथ की पीठ ने कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 113B का प्रावधान विधायिका के न्यायालय की ओर से अनिवार्य आवेदन करने के आशय को प्रकट करता है, ताकि यह माना जा सके कि मृत्यु उस व्यक्ति द्वारा की गई है जिसने महिला को दहेज की मांग के लिये क्रूरता दिखाई और उसका उत्पीड़न किया था।
  • आगे यह माना गया कि एक बार IPC की धारा 304B का मूल संघटक अभियोजन पक्ष द्वारा सिद्ध कर दिया जाता है तो न्यायालय अभियुक्त के अपराध की उपधारणा करेगा। इस स्तर पर, अपराध की इस उपधारणा का खंडन करने और अपनी बेगुनाही साबित करने का भार अभियुक्त पर आ जाता है।

इसमें कौन-से प्रासंगिक विधिक प्रावधान शामिल हैं?

IPC की धारा 304B:

  • यह धारा दहेज हत्या से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि -
    (1) जहाँ किसी स्त्री की मृत्यु किसी दाह या शारीरिक क्षति द्वारा कारित की जाती है या उसके विवाह के सात वर्ष के भीतर सामान्य परिस्थितियों से अन्यथा हो जाती है और यह दर्शित किया जाता है कि उसकी मृत्यु के कुछ पूर्व उसके पति ने या उसके पति के किसी नातेदार ने, दहेज की किसी मांग के लिये, या उसके संबंध में, उसके साथ क्रूरता की थी या उसे तंग किया था वहाँ ऐसी मृत्यु को “दहेज मृत्यु” कहा जाएगा और ऐसा पति या नातेदार उसकी मृत्यु कारित करने वाला समझा जाएगा।
    स्पष्टीकरण– इस उपधारा के प्रयोजनों के लिये "दहेज" का वही अर्थ है जो दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961  की धारा 2 में है।
    (2) जो कोई दहेज मृत्यु कारित करेगा वह कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष से कम की नहीं होगी किंतु जो आजीवन कारावास की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा।
  • बंसीलाल बनाम हरियाणा राज्य (2011) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि, IPC की धारा 304B के प्रावधान को आकर्षित करने के लिये, अपराध के मुख्य तत्वों में से एक जिसे स्थापित करना आवश्यक है, वह यह है कि उसकी मृत्यु के ठीक पहले दहेज की मांग को लेकर उसके साथ क्रूरता और उत्पीड़न किया गया।

IEA की धारा 113B:

  • IEA की धारा 113B दहेज हत्या की उपधारणा से संबंधित है।
  • दहेज हत्या के मामले में त्वरित न्याय प्रदान करने के लिये इस धारा को दहेज प्रतिषेध (संशोधन) अधिनियम, 1986 द्वारा जोड़ा गया था।
  • जब प्रश्न यह है कि किसी व्यक्ति ने किसी स्त्री की दहेज हत्या की है और यह दर्शित किया जाता है कि मृत्यु के कुछ पूर्व ऐसे व्यक्ति ने दहेज की किसी मांग के लिये, या उसके संबंध में उस स्त्री के साथ क्रूरता की थी या उसको तंग किया था तो न्यायालय यह उपधारणा करेगा कि ऐसे व्यक्ति ने दहेज मृत्यु कारित की थी। इस धारा के प्रयोजनों के लिये "दहेज मृत्यु" का वही अर्थ है जो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304B में है।
  • ऐसे मामलों में, अभियोजन पक्ष को यह सिद्ध करना होता है कि दहेज हत्या हुई है, और फिर अपनी बेगुनाही सिद्ध करने की ज़िम्मेदारी अभियुक्त पर आ जाती है।