होम / करेंट अफेयर्स
सिविल कानून
रेस ज्यूडिकाटा का सिद्धांत
« »10-Jul-2024
विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से हर नारायण तिवारी (मृत) बनाम छावनी बोर्ड, रामगढ़ छावनी एवं अन्य "इस मामले में रेस ज्यूडिकाटा का सिद्धांत लागू नहीं होगा, क्योंकि वर्तमान वाद में मुद्दा न तो प्रत्यक्ष रूप से और न ही अप्रत्यक्ष रूप से पिछले वाद से संबंधित था तथा उक्त पूर्व वाद में सह-प्रतिवादियों के मध्य हितों का कोई टकराव नहीं था, जिस पर कभी निर्णय नहीं हुआ”। न्यायमूर्ति अभय एस. ओका एवं न्यायमूर्ति पंकज मिथल |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से हर नारायण तिवारी (मृत) बनाम कैंटोनमेंट बोर्ड, रामगढ़ कैंटोनमेंट एवं अन्य के मामले में माना है कि यदि सह-प्रतिवादियों के मध्य हितों का टकराव है तो रेस ज्युडिकाटा का सिद्धांत सह-प्रतिवादियों पर भी लागू होगा।
विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से हर नारायण तिवारी (मृत) बनाम कैंटोनमेंट बोर्ड, रामगढ़ कैंटोनमेंट एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- पिछले वाद में वादी एवं वर्तमान वाद के प्रतिवादी सह-प्रतिवादी थे।
- वर्तमान वाद में वादी ने भूमि का दावा करते हुए वाद दायर किया।
- वादी ने उस भूमि पर अपने अधिकार एवं स्वामित्व का दावा किया जिसे रैयती बंदोबस्त के माध्यम से मालिक राजा ने उसे अंतरित किया था।
- संपत्ति का दूसरा भाग राजा ने अस्थायी रूप से कैंटोनमेंट बोर्ड को दिया था जिस पर बोर्ड ने दावा किया था।
- ट्रायल कोर्ट ने वादी के पक्ष में आदेश दिया।
- प्रतिवादी द्वारा पटना उच्च न्यायालय में पहली अपील की गई, जिसने ट्रायल कोर्ट के आदेश को पलट दिया तथा प्रतिवादी के पक्ष में निर्णय दिया, जिसमें कहा गया कि रेस ज्युडिकाटा के सिद्धांत के अनुसार वाद संस्थित करना वर्जित है।
- वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध पटना उच्च न्यायालय में दूसरी अपील दायर की, वादी ने तर्क दिया कि पिछले वाद में वादी एवं सह-प्रतिवादी उचित रूप से अनुकूल नहीं थे।
- दावों पर निर्णय नहीं लिया गया और महारानी के अधिकारों पर निर्णय मात्र से प्रतिवादियों के अधिकार समाप्त नहीं हो जाते।
- उच्च न्यायालय ने अपील को खारिज कर दिया क्योंकि सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 (CPC) की धारा 100 के अनुसार वाद में कोई महत्त्वपूर्ण विधिक प्रश्न नहीं किया जाता।
- वादी ने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने यह टिप्पणी की कि पिछले वाद में वादी वर्तमान वाद में भूमि पर दावा कर रहा था, जबकि प्रतिवादी राजा की संपत्ति पर अपना अधिकार स्थापित कर रहा था।
- इसका तात्पर्य यह है कि पिछले वाद में वर्तमान वाद के पक्षकारों के मध्य कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संघर्ष नहीं था।
- इसलिये, उच्चतम न्यायालय ने माना कि CPC की धारा 11 के अनुसार रेस ज्युडिकाटा के सिद्धांत की कोई प्रयोज्यता नहीं होनी चाहिये तथा सिद्धांत के आवश्यक तत्त्वों को स्थापित करने के लिये गोविंदम्मल बनाम वैद्यनाथन (2017) के महत्त्वपूर्ण मामले का भी हवाला दिया।
- उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि प्रतिवादियों के अधिकारों पर न्यायालय द्वारा निर्णय नहीं दिया गया तथा राजा की संपूर्ण भूमि पर महारानी के अधिकारों पर ही स्पष्टता दी गई।
- यहाँ यह भी कहा गया कि वादी एवं प्रतिवादी के मध्य विवादित भूमि ही विवाद का विषय है, न कि राजा की संपूर्ण भूमि।
- उच्चतम न्यायालय ने यह भी माना कि इस मामले में विधि का एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है क्योंकि पिछले वाद में पक्षों के अधिकारों का निर्धारण नहीं किया गया था।
इस मामले में संदर्भित प्रासंगिक विधिक प्रावधान क्या हैं?
CPC की धारा 11 - रेस ज्युडिकाटा
- कोई भी न्यायालय ऐसे किसी वाद या विवाद्यक तथ्य का विचारण नहीं करेगा, जिसमें प्रत्यक्षतः एवं सारतः विवाद्यक विषय उन्हीं पक्षकारों के मध्य या उन पक्षकारों के मध्य, जिनके अधीन वे या उनमें से कोई दावा करते हैं तथा जो उसी शीर्षक के अधीन वाद संस्थित कर रहे हैं, किसी पूर्व वाद में प्रत्यक्षतः एवं सारतः विवाद्यक रहा हो, ऐसे पश्चातवर्ती वाद का या उस वाद का विचारण करने के लिये सक्षम न्यायालय में, जिसमें ऐसा विवाद्यक विषय बाद में उठाया गया हो और जिस पर ऐसे न्यायालय द्वारा विचारण किया गया हो तथा अंतिम रूप से निर्णय दिया गया हो।
- स्पष्टीकरण I: "पूर्ववर्ती वाद" से तात्पर्य ऐसे वाद से है जिसका निर्णय प्रश्नगत वाद से पहले हो चुका है, चाहे वह उससे पहले संस्थित किया गया हो या नहीं।
- स्पष्टीकरण II: इस धारा के प्रयोजनों के लिये, किसी न्यायालय की सक्षमता का निर्धारण ऐसे न्यायालय के निर्णय से अपील के अधिकार के विषय में किसी भी प्रावधान पर ध्यान दिये बिना किया जाएगा।
- स्पष्टीकरण III: उपर्युक्त मामले को पूर्ववर्ती वाद में एक पक्ष द्वारा आरोपित किया गया होगा तथा दूसरे पक्ष द्वारा स्पष्टतः या निहित रूप से अस्वीकार किया गया होगा या स्वीकार किया गया होगा।
- स्पष्टीकरण IV: कोई मामला जो ऐसे पूर्ववर्ती वाद में बचाव या आक्रमण का आधार बनाया जा सकता था तथा बनाया जाना चाहिये था, ऐसे वाद में प्रत्यक्षतः एवं सारतः विवाद्यक तथ्य माना जाएगा।
- स्पष्टीकरण V: वादपत्र में दावा किया गया कोई अनुतोष, जो डिक्री द्वारा स्पष्ट रूप से प्रदान नहीं किया गया है, इस धारा के प्रयोजनों के लिये अस्वीकार किया गया समझा जाएगा।
- स्पष्टीकरण VI: जहाँ व्यक्ति सार्वजनिक अधिकार या अपने और दूसरों के लिये आम तौर पर दावा किये गए निजी अधिकार के संबंध में सद्भावपूर्वक वाद संस्थित करते हैं, ऐसे अधिकार में हितबद्ध सभी व्यक्तियों को, इस धारा के प्रयोजनों के लिये, ऐसे वाद करने वाले व्यक्तियों के अधीन दावा करने वाला समझा जाएगा।
- स्पष्टीकरण VII: इस धारा के प्रावधान किसी डिक्री के निष्पादन के लिये कार्यवाही पर लागू होंगे तथा इस धारा में किसी वाद, मुद्दे या पूर्ववर्ती वाद के संदर्भ को क्रमशः डिक्री के निष्पादन के लिये कार्यवाही, ऐसी कार्यवाही में उठने वाले प्रश्न एवं उस डिक्री के निष्पादन के लिये पूर्ववर्ती कार्यवाही के संदर्भ के रूप में समझा जाएगा।
- स्पष्टीकरण VIII: कोई मुद्दा, जो सीमित अधिकार क्षेत्र वाले न्यायालय द्वारा सुना गया हो तथा अंतिम रूप से तय किया गया हो, जो ऐसे मुद्दे पर निर्णय करने में सक्षम हो, किसी भी पश्चातवर्ती वाद में रेस ज्यूडिकेटा के रूप में संचालित होगा, भले ही सीमित अधिकार क्षेत्र वाला ऐसा न्यायालय ऐसे पश्चातवर्ती वाद या उस वाद पर विचारण करने में सक्षम न हो, जिसमें ऐसा मुद्दा बाद में उठाया गया हो।
CPC की धारा 100 - द्वितीय अपील
- इस संहिता के मूल भाग में या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि द्वारा अन्यथा अभिव्यक्त रूप से उपबंधित के सिवाय, उच्च न्यायालय के अधीनस्थ किसी न्यायालय द्वारा अपील में पारित प्रत्येक डिक्री के विरुद्ध अपील उच्च न्यायालय में होगी, यदि उच्च न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि मामले में विधि का कोई सारवान प्रश्न अंतर्निहित है।
- इस धारा के अंतर्गत एकपक्षीय रूप से पारित अपीलीय डिक्री के विरुद्ध अपील की जा सकेगी।
- इस धारा के अंतर्गत अपील में, अपील ज्ञापन में अपील में अंतर्निहित विधि के सारवान प्रश्न का स्पष्ट उल्लेख होगा।
- जहाँ उच्च न्यायालय को यह विश्वास हो कि किसी मामले में विधि का सारवान प्रश्न अंतर्निहित है, वहाँ वह उस प्रश्न को प्रस्तुत करेगा।
- अपील इस प्रकार तैयार किये गए प्रश्न पर सुनी जाएगी तथा अपील का विचारण के समय प्रत्यर्थी को यह तर्क देने की अनुमति दी जाएगी कि मामले में ऐसा प्रश्न अंतर्निहित नहीं है।
- परंतु इस उपधारा की कोई बात न्यायालय की उस शक्ति को छीनने वाली या कम करने वाली नहीं समझी जाएगी जो उसके द्वारा तैयार नहीं किये गए किसी अन्य विधि के सारवान प्रश्न पर अपील सुनने की, कारणों को लेखबद्ध करके, शक्ति छीनती है या कम करती है, यदि उसका यह समाधान हो जाता है कि मामले में ऐसा प्रश्न अंतर्ग्रस्त है।
रेस ज्युडिकाटा का सिद्धांत क्या है?
- इस सिद्धांत का सीधा तात्पर्य है कि किसी भी मामले पर दोबारा निर्णय नहीं दिया जाना चाहिये या उसी मुद्दे पर कोई वाद संस्थित नहीं किया जाना चाहिये जो पहले ही न्यायालय द्वारा तय किया जा चुका है।
- रेस ज्युडिकाटा का सिद्धांत तीन लैटिन विधिक सूत्रों पर आधारित है:
- इंटरेस्ट रिपब्लिका यूट सिट फिनिस लिटियम: इससे तात्पर्य है कि यह राज्य के हित में है कि वाद का अंत होना चाहिये।
- नेमो डेबेट बिस वेक्सारी प्रो ऊना एट ईएडेम कॉसा: इससे तात्पर्य है कि किसी भी व्यक्ति को एक ही कारण से दो बार परेशान नहीं किया जाना चाहिये।
- रेस ज्युडिकाटा प्रो वेरिटेट ओक्कीपिटुर: इससे तात्पर्य है कि न्यायिक निर्णय को सही के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिये। ऐसे मामले में, जहाँ निर्णय में विरोधाभास है, तो यह न्यायपालिका की शर्मिंदगी का कारण बनता है।
सह-प्रतिवादियों पर रेस ज्यूडिकाटा के सिद्धांत की प्रयोज्यता पर आधारित महत्त्वपूर्ण निर्णय क्या है?
- गोविंदम्मल बनाम वैद्यनाथन (2017): इस मामले में सह-प्रतिवादियों के मध्य रेस ज्यूडिकाटा के सिद्धांत को लागू करने के लिये तीन शर्तें पूरी होना आवश्यक हैं:
- सह-प्रतिवादियों के मध्य हितों का टकराव होना चाहिये,
- वादी को राहत देने के लिये उक्त टकराव का निर्णय करना आवश्यक है, तथा
- उक्त टकराव पर अंतिम निर्णय होना चाहिये।