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 08-Feb-2024

एम. आर. मोहन कुमार एवं अन्य बनाम NIL

"जब वसीयत लाभार्थी के पक्ष में निष्पादित की गई थी तो ऐसा माना जाता है कि किसी निष्पादक की नियुक्ति नहीं की गई है और केवल निष्पादक की नियुक्ति न होना प्रोबेट को अस्वीकार करने का आधार नहीं हो सकता है।"

न्यायमूर्ति एच. पी. संदेश

स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एम. आर. मोहन कुमार और अन्य बनाम NIL के उस मामले में प्रोबेट जारी करने के बारे में सुनवाई की, जहाँ निष्पादक का नाम नहीं दिया गया है।

एम. आर. मोहन कुमार एवं अन्य बनाम NIL मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अपीलकर्त्ताओं ने सन्नारंगप्पा के नाम से याचिका में उल्लिखित संपत्ति के स्वामित्व का दावा करते हुए प्रोबेट के लिये आवेदन किया था, जो उन्हें 22 नवंबर, 1978 को प्रदान किया गया था।
    • उन्होंने दावा किया कि वे मालिकों के रूप में संपत्ति का उपयोग कर रहे थे।
  • सन्नारंगप्पा (जो अविवाहित थे) की देखभाल अपीलकर्त्ताओं के पिता और स्वयं अपीलकर्त्ताओं ने उनके जीवनकाल के दौरान की थी। सन्नारंगप्पा के दादा ने 14 फरवरी, 2001 को एक वसीयत तैयार की थी, जिसे 15 फरवरी, 2001 को पंजीकृत किया गया था। सन्नारंगप्पा का 29 जून, 2001 को निधन हो गया।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने तहसीलदार को कत्था (khatha) अंतरण करने के लिये आवेदन किया था, लेकिन अंतरण के लिये आवश्यक दस्तावेज़ों की कमी का हवाला देते हुए तहसीलदार ने इनकार कर दिया।
  • अपीलकर्त्ताओं ने भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के अनुसार प्रोबेट/उत्तराधिकार प्रमाणपत्र जारी करने की मांग की।
    • दो समाचार पत्रों में उद्धृत होने के बावजूद, कोई भी प्रतिवादी इस मामले का विरोध करने के लिये उपस्थित नहीं हुआ।
  • ट्रायल कोर्ट ने मौखिक एवं दस्तावेज़ी सहित सभी साक्ष्यों पर विचार किया और निष्कर्ष निकाला कि जब तक वसीयतकर्त्ता द्वारा वसीयत में निष्पादक को नियुक्त नहीं किया जाता, तब तक प्रोबेट देना लागू नहीं होता।
    • इसलिये, अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय में अपील की।

न्यायालय की टिप्पणी क्या थी?

  • न्यायमूर्ति एच. पी. संदेश ने आदेश दिया कि “जब वसीयत लाभार्थी के पक्ष में निष्पादित की गई थी तो ऐसा माना जाता है कि किसी निष्पादक की नियुक्ति नहीं की गई है और केवल निष्पादक की नियुक्ति न होना प्रोबेट को अस्वीकार करने का आधार नहीं हो सकता है।
  • इसलिये, एकल न्यायाधीश पीठ ने अपीलकर्त्ताओं के पक्ष में प्रोबेट/उत्तराधिकार प्रमाणपत्र प्रदान किया।

भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के तहत प्रोबेट क्या है?

  • प्रोबेट:
    • भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 30 सितंबर, 1925 को लागू किया गया था।
    • भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के तहत प्रोबेट एक कानूनी प्रक्रिया है जिसके तहत किसी मृत व्यक्ति की अंतिम वसीयत और वसीयतनामा को प्रमाणित किया जाता है।
  • परिभाषा:
    • भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 2(f) के तहत "प्रोबेट" का अर्थ वसीयतकर्त्ता की संपत्ति के अंतरण के असंदर्भ में सक्षम क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय की मुहर के तहत प्रमाणित वसीयत की प्रति है।
  • प्रोबेट प्रक्रिया आरंभ करना:
    • प्रोबेट प्रक्रिया निष्पादक या किसी इच्छुक पक्ष द्वारा उचित न्यायालय में याचिका दायर करने के साथ शुरू होती है। इस याचिका में मृतक का नाम, मृत्यु की तारीख और वसीयत की एक प्रति जैसे विवरण शामिल होते हैं।
  • वसीयत की जाँच:
    • प्रोबेट कार्यवाही के दौरान, भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 61 के तहत न्यायालय वसीयत की वैधता की जाँच (यह सुनिश्चित करते हुए कि यह सभी कानूनी आवश्यकताओं को पूरा करती है और अनुचित प्रभाव या प्रपीड़न के बिना निष्पादित की जाती है) करता है।
  • अंतरण के संदर्भ में सूचना एवं अवसर:
    • न्यायालय उत्तराधिकारियों और इच्छुक पक्षों को एक नोटिस जारी करता है, जिससे उन्हें आपत्ति होने पर वसीयत पर आपत्ति करने का अवसर मिलता है।
  • प्रोबेट प्रदान करना:
    • यदि न्यायालय वसीयत की वैधता से संतुष्ट है, तो वह वसीयत की शर्तों के अनुसार संपत्ति का प्रबंधन करने के निष्पादक के अधिकार को आधिकारिक तौर पर मान्यता देते हुए प्रोबेट प्रदान करता है।