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आपराधिक कानून

उच्च न्यायालय द्वारा प्रक्रियात्मक त्रुटि

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 12-Oct-2023

चंद्र प्रताप सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य

"इस प्रकार, उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ता या उसके वकील की दलील सुने बिना अपीलकर्त्ता द्वारा की गई सजा के खिलाफ अपील पर फैसला करके अवैध कृत्य किया है।"

न्यायमूर्ति अभय एस ओका, न्यायमूर्ति पंकज मित्तल

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति पंकज मित्तल ने कहा कि इस प्रकार, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ता या उसके वकील की दलील सुने बिना अपीलकर्त्ता द्वारा की गई सजा के खिलाफ अपील पर फैसला करके अवैधता की है।

  • उच्चतम न्यायालय ने यह टिप्पणी एस. चंद्र प्रताप सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले में दी।

चंद्र प्रताप सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • उच्चतम न्यायालय ने एक तिहरे हत्याकांड की सुनवाई की, जिसमें उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ता के वकील की दलील सुने बिना ही फैसला दे दिया।
  • उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ता को सामान्य इरादे के साथ हत्या करने के लिये आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
  • अपीलकर्त्ता को भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 34 के तहत आरोपों पर अपना बचाव करने का अवसर मिला क्योंकि आरोपी के खिलाफ मूल आरोप भारतीय दंड संहिता की धारा 148 और/या 149 के साथ पठित धारा 302 के तहत थे, जिन्हें बाद में उच्च न्यायालय द्वारा आईपीसी की धारा 34 के साथ पठित आरोप में बदल दिया गया था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय द्वारा की गई त्रुटि पर जोर देते हुए कहा, "यह पता चलने के बाद कि अपीलकर्त्ता द्वारा नियुक्त वकील अनुपस्थित था, उच्च न्यायालय को उसके मामले का समर्थन करने के लिये एक वकील नियुक्त करना चाहिये था"।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 386 द्वारा प्रदत्त व्यापक शक्तियों के मद्देनजर, यहां तक कि एक अपीलीय अदालत भी आरोप को बदलने या जोड़ने के लिये दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 216 के तहत शक्ति का प्रयोग कर सकती है।
  • उच्चतम न्यायालय ने सबूतों के आधार पर मामले की जाँच करके सामान्य इरादे से हत्या के लिये दोषसिद्धि को रद्द कर दिया क्योंकि मामला बहुत लंबे समय से लंबित था और उच्च न्यायालय ने फैसला देने में प्रक्रियात्मक त्रुटि की थी।

हालाँकि, उच्चतम न्यायालय ने सबूतों को गायब करने या अपराधी को पकड़ने के लिये गलत जानकारी देने के लिये भारतीय दंड संहिता की धारा 201 के तहत उनकी सजा को बरकरार रखा।

मामले में शामिल प्रमुख कानूनी प्रावधान क्या थे?

भारतीय दंड संहिता, 1860

धारा 201 - अपराध के साक्ष्य का विलोपन, या अपराधी को प्रतिच्छादित करने के लिये झूठी जानकारी देना।

  • भारतीय दंड संहिता की धारा 201 के अनुसार, जो भी कोई यह जानते हुए या यह विश्वास करने का कारण रखते हुए कि कोई अपराध किया गया है, उस अपराध के किये जाने के किसी साक्ष्य का विलोप, इस आशय से कारित करेगा कि अपराधी को वैध दण्ड से प्रतिच्छादित करे या उस अपराध से संबंधित कोई ऐसी जानकारी देगा, जिसके गलत होने का उसे ज्ञान या विश्वास है;
  • यदि अपराध मॄत्यु से दण्डनीय हो - यदि वह अपराध जिसके किये जाने का उसे ज्ञान या विश्वास है, मॄत्यु से दण्डनीय हो, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे सात वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है से दण्डित किया जाएगा और साथ ही वह आर्थिक दण्ड के लिये भी उत्तरदायी होगा। 
  • यदि अपराध आजीवन कारावास से दण्डनीय हो - और यदि वह अपराध आजीवन कारावास या दस वर्ष तक के कारावास, से दण्डनीय हो, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे तीन वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है से दण्डित किया जाएगा और साथ ही वह आर्थिक दण्ड के लिये भी उत्तरदायी होगा।
  • यदि अपराध दस वर्ष से कम के कारावास से दण्डनीय हो - और यदि वह अपराध दस वर्ष से कम के कारावास से दण्डनीय हो, तो उसे उस अपराध के लिये उपबंधित कारावास की दीर्घतम अवधि की एक-चौथाई अवधि के लिये जो उस अपराध के लिये उपबंधित कारावास की हो, से दण्डित किया जाएगा या आर्थिक दण्ड से या फिर दोनों से दण्डित किया जाएगा।

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973

सीआरपीसी की धारा 386 — अपील न्यायालय की शक्तियाँ —

ऐसे अभिलेख के परिशीलन और यदि अपीलार्थी या उसका प्लीडर हाजिर है तो उसे तथा यदि लोक अभियोजक हाजिर है तो उसे और धारा 377 या धारा 378 के अधीन अपील की दशा में यदि अभियुक्त हाजिर है तो उसे सुनने के पश्चात् अपील न्यायालय उस दशा में जिसमें उसका यह विचार है कि हस्तक्षेप करने का पर्याप्त आधार नहीं है अपील को खारिज कर सकता है, अथवा–

(क) दोषमुक्ति के आदेश से अपील में ऐसे आदेश को उलट सकता है और निदेश दे सकता है कि अतिरिक्त जाँच की जाए अथवा अभियुक्त, यथास्थिति, पुनः विचारित किया जाए या विचारार्थ सुपुर्द किया जाए, अथवा उसे दोषी ठहरा सकता है और उसे विधि के अनुसार दण्डादेश दे सकता है;

(ख) दोषसिद्धि से अपील में–

(i) निष्कर्ष और दण्डादेश को उलट सकता है और अभियुक्त को दोषमुक्त या उन्मोचित कर सकता है या ऐसे अपील न्यायालय के अधीनस्थ सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय द्वारा उसके पुनः विचारित किये जाने का या विचारार्थ सुपुर्द किये जाने का आदेश दे सकता है, अथवा

(ii) दण्डादेश को कायम रखते हुए निष्कर्ष में परिवर्तन कर सकता है, अथवा

(iii) निष्कर्ष में परिवर्तन करके या किये बिना दण्ड के स्वरूप या परिमाण में अथवा स्वरूप और परिमाण में परिवर्तन कर सकता है, किन्तु इस प्रकार नहीं कि उससे दण्ड में वृद्धि हो जाए;

(ग) दण्डादेश की वृद्धि के लिये अपील में–

(i) निष्कर्ष और दण्डादेश को उलट सकता है और अभियुक्त को दोषमुक्त या उन्मोचित कर सकता है या ऐसे अपराध का विचारण करने के लिये सक्षम न्यायालय द्वारा उसका पुनर्विचारण करने का आदेश दे सकता है, या

(ii) दण्डादेश को कायम रखते हुए निष्कर्ष में परिवर्तन कर सकता है, या

(iii) निष्कर्ष में परिवर्तन करके या किये बिना, दण्ड के स्वरूप या परिमाण में अथवा स्वरूप और परिमाण में परिवर्तन कर सकता है जिससे उसमें वृद्धि या कमी हो जाए;

(घ) किसी अन्य आदेश से अपील में ऐसे आदेश को परिवर्तित कर सकता है या उलट सकता है;

(ङ) कोई संशोधन या कोई पारिणामिक या आनुषंगिक आदेश, जो न्यायसंगत या उचित हो, कर सकता है:

परन्तु दण्ड में तब तक वृद्धि नहीं की जाएगी जब तक अभियुक्त को ऐसी वृद्धि के विरुद्ध कारण दर्शित करने का अवसर न मिल चुका हो :

परन्तु यह और कि अपील न्यायालय उस अपराध के लिये, जिसे उसकी राय में अभियुक्त ने किया है उससे अधिक दण्ड नहीं देगा, जो अपीलाधीन आदेश या दण्डादेश पारित करने वाले न्यायालय द्वारा ऐसे अपराध के लिये दिया जा सकता था।