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आपराधिक कानून
निवारक और सुधारात्मक दंड के बीच उचित संतुलन
« »20-Jul-2023
चर्चा में क्यों ?
- हाल ही में, बॉम्बे हाई कोर्ट ने 41 चोरियों के मामलों में दोषी ठहराए गये और 83 साल से अधिक जेल की सजा पा चुके एक 30 वर्षीय व्यक्ति को रिहा करने का आदेश दिया है।
- अदालत ने यह भी कहा कि चूँकि वह जुर्माना भरने की स्थिति में नहीं है, इसलिए जुर्माना राशि का भुगतान न करने पर उसे 10 साल 1 महीने और 26 दिन यानी कुल 93 साल 5 महीने की अतिरिक्त कैद भुगतनी होगी।
- अदालत असलम सलीम शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य की आपराधिक रिट याचिका पर सुनवाई कर रही थी ।
पृष्ठभूमि
- रिट क्षेत्राधिकार और अंतर्निहित शक्तियों के तहत विधिक सेवा प्राधिकरण (Legal Services Authority) के माध्यम से दायर याचिका में याचिकाकर्ता ने दलील दी है कि 41 मामलों में विभिन्न न्यायालयों द्वारा दी गई कारावास की सजाएं एक साथ चलेंगी।
- याचिकाकर्ता ने 1,26,400/- रुपये की जुर्माना राशि को रद्द करने का भी अनुरोध किया।
- उन्होंने कहा कि उन्हें इन मामलों में झूठा फंसाया गया था और अशिक्षित और आर्थिक रूप से विवश होने के कारण, उन्होंने इस विश्वास के तहत दोषी ठहराया कि उन्हें दिसंबर 2014 से विचाराधीन कैदी (undertrial prisoner) के रूप में बिताई गई अवधि के लिए रिहा कर दिया जायेगा।
- उच्च न्यायालय ने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CRPC) की धारा 427(1) के तहत सजा को एक साथ चलाने के विवेक का प्रयोग ट्रायल कोर्ट द्वारा नहीं किया गया था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- अदालत ने कहा कि यह सज़ा अपराध के अनुपात से बहुत अधिक है।
- न्यायमूर्ति रेवती मोहिते-डेरे और न्यायमूर्ति गौरी गोडसे की खंडपीठ ने इस बात पर जोर दिया कि सजा का मुख्य लक्ष्य निवारण और सुधार है, और इस मामले में, इस तरह की अत्यधिक सजा से न्याय का मखौल उड़ जाएगा।
भारतीय दंड संहिता, 1860 में सज़ा
- सज़ा अपराधी द्वारा किये गये अपराध के परिणामस्वरूप किसी समूह या व्यक्ति पर प्राधिकारी द्वारा लगाया गया एक अवांछनीय या अप्रिय परिणाम है।
- मनु के अनुसार, " दंड लोगों को नियंत्रण में रखता है, दंड उनकी रक्षा करता है, जब लोग सो रहे होते हैं तो दंड जागता रहता है, इसलिए बुद्धिमानों ने दंड को धर्म का स्रोत माना है" ।
- भारतीय दंड संहिता, 1860 में, धारा 53, विशेष रूप से विभिन्न प्रकार के दंडों से संबंधित है, यदि व्यक्ति को संहिता के तहत उत्तरदायी ठहराया जाता है तो उसे आपराधिक न्यायालयों द्वारा दंड दिये जा सकते हैं। संहिता की धारा 53 के तहत पाँच प्रकार के दंडों को मान्यता दी गयी है :
- मृत्यु दंड;
- आजीवन कारावास;
- कारावास:
- 3.1. कठोर कारावास; या
- 3.2. साधारण कारावास
- संपत्ति की जब्ती;
- जुर्माना
सज़ा के सिद्धांत
सज़ा के पाँच प्रमुख सिद्धांत नीचे उल्लिखित हैं:
1. प्रतिशोधात्मक (Retributive):
- यह लेक्स टैलियोनिस (Lex talionis) के सिद्धांत पर आधारित है, जिसका अर्थ है 'आंख के बदले आंख'।
- प्लेटो प्रतिशोधात्मक सिद्धांत के समर्थक थे।
2. निवारक (Deterrent):
- इसका उद्देश्य अपराधी को इस तरह से दंडित करके दोबारा अपराध करने से "रोकना" है कि यह व्यक्तियों या पूरे समाज के लिये एक उदाहरण स्थापित करे।
- सैल्मंड के अनुसार, " कानून का मुख्य उद्देश्य दुष्ट व्यक्ति को उसके समान विचारधारा वाले सभी लोगों के लिये एक उदाहरण और चेतावनी बनाना है "।
3. प्रतिबंधात्मक (Preventive):
- सज़ा का प्रतिबंधात्मक सिद्धांत अपराधियों को अस्थायी या स्थायी रूप से अक्षम करके संभावित अपराधों को रोकने का प्रयास करता है।
- अपराधियों को कारावास, मौत, निर्वासन, पद की जब्ती आदि जैसे दंडों द्वारा अपराध दोहराने से अक्षम कर दिया जाता है।
4. सुधारात्मक (Reformative):
- यह मानवतावादी नियम पर निर्भर करता है कि गलत काम करने वाला चाहे कोई भी गलत काम करे, वह इंसान को रहता ही है।
- इसमें कहा गया है कि सजा का प्राथमिक उद्देश्य अपराधी का सुधार होना चाहिए।
5. प्रतिकारात्मक (Compensatory):
- इसका मुख्य उद्देश्य अपराधी द्वारा किए गए अपराध से पीड़ित को मुआवजा देना है।
- जिस अपराधी ने किसी व्यक्ति (या व्यक्तियों के समूह) या संपत्ति को चोट पहुंचाई है, उसे पीड़ित को मुआवजा देना होगा।
समवर्ती और सतत सजा
- सतत सज़ा उस परिदृश्य को संदर्भित करती है जिसमें एक अदालत दो मामलों में सज़ा सुनाती है, दूसरी सज़ा पहली सज़ा की समाप्ति के बाद शुरू होगी।
- समवर्ती दंडों का मतलब है कि दो दंड समानांतर रूप से गिने जाएंगे।
- जब दो दंडों को एक साथ चलाने का निर्देश दिया जाता है, तो वे एक दंड में विलीन हो जाते हैं।
- सीआरपीसी, 1973 की धारा 31(1) न्यायालय को यह निर्देश देने का विवेकाधिकार देती है कि जब किसी व्यक्ति को दो या दो से अधिक अपराधों के एक मुकदमे में दोषी ठहराया जाता है तो सजा एक साथ चलेगी।
- सीआरपीसी, 1973 की धारा 427 यह निर्देश देती है कि एक सजा पूरी होने के बाद दूसरी सजा प्रभावी होती है। सज़ा सुनाने वाले न्यायालय के पास सज़ाओं की समवर्तीता का आदेश देने का विवेकाधिकार है।