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आपराधिक कानून
BNSS के अधीन FIR रद्द करना
« »25-Jul-2024
श्री अनुपम गहोई बनाम राज्य (NCT दिल्ली सरकार) एवं अन्य “भारतीय दण्ड संहिता के अधीन दर्ज FIR को रद्द करने के लिये यदि 1 जुलाई के उपरांत याचिका दायर की जाती है, तो उस पर BNSS (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता) द्वारा विचार किया जाना चाहिये।” न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
दिल्ली उच्च न्यायालय ने श्री अनुपम गहोई बनाम राज्य (दिल्ली सरकार) एवं अन्य मामले में हाल ही में एक वैवाहिक मामले को अस्वीकार कर दिया, जिसमें एक पति ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 (BNSS) के तहत वर्ष 2018 में अपनी पत्नी द्वारा दर्ज FIR को अमान्य करने की मांग की थी।
- न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी ने निर्णय दिया कि भले ही पति की याचिका BNSS के अधीन 1 जुलाई, 2023 के उपरांत दायर की गई हो, परंतु प्रक्रियागत कार्यवाही के कारण इसे CrPC प्रावधानों के अधीन माना जाएगा।
- यह निर्णय, कुटुंब न्यायालय के माध्यम से दोनों पक्षों के बीच हुए करार के बाद लिया गया, जिसके परिणामस्वरूप आपसी सहमति से उनका विवाह विच्छेद हो गया और करार की शर्तों के अनुसार संपत्ति का हस्तांतरण हो गया, जिससे FIR अनावश्यक हो गई तथा उसे रद्द कर दिया गया।
श्री अनुपम गहोई बनाम राज्य (दिल्ली सरकार) एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 27 फरवरी 2018 को शिकायतकर्त्ता (पत्नी), जो प्रतिवादी नंबर 2 है, द्वारा याचिकाकर्त्ता (पति) के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498-A / 406/34 के अधीन FIR दर्ज की गई थी।
- इस दंपति के दो बच्चे थे, जिनकी उम्र लगभग 17 और 19 वर्ष थी।
- 15 मार्च 2021 को कुटुंब न्यायालयों में मध्यस्थता के माध्यम से दोनों पक्षों ने करार कर लिया।
- 20 अप्रैल 2022 को आपसी सहमति से उनकी विवाह को भंग करते हुए विवाह-विच्छेद का आदेश दिया गया।
- याचिकाकर्त्ता (पति) ने CrPC की धारा 482 के अधीन FIR को रद्द करने की मांग करते हुए यह याचिका दायर की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि याचिका 1 जुलाई, 2024 को BNSS लागू होने के उपरांत CrPC के अधीन दायर की गई थी।
- न्यायालय ने पाया कि BNSS की धारा 531(2)(a) के अनुसार, CrPC के अधीन केवल 1 जुलाई, 2024 से पहले लंबित कार्यवाही ही जारी रखी जानी थी। नई याचिकाएँ BNSS के अधीन दायर की जानी चाहिये।
- न्यायालय ने व्याख्या की कि BNSS की धारा 531 का मसौदा तैयार करने में संसद का आशय बीच में शासकीय विधि में परिवर्तन कर प्रक्रियागत कार्यवाही को बाधित करने से बचना था।
- अनावश्यक विलंब से बचने के लिये, न्यायालय ने याचिका को CrPC की धारा 482 और BNSS की धारा 528 के अधीन दायर याचिका माना।
- न्यायालय ने मध्यस्थता के माध्यम से 15 मार्च 2021 को हुए समझौता विलेख और 20 अप्रैल 2022 की तलाक डिक्री को संज्ञान में लिया।
- इसने सत्यापित किया कि तलाक के आदेश के विरुद्ध कोई अपील दायर नहीं की गई थी।
- न्यायालय ने इस बात पर गौर किया कि राज्य को FIR रद्द करने पर कोई आपत्ति नहीं है।
- उच्चतम न्यायालय के स्थापित मामलों (ज्ञान सिंह बनाम पंजाब राज्य और नरिंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य) का उदाहरण देते हुए, न्यायालय ने कहा कि FIR को रद्द न करने का कोई कारण नहीं है।
- न्यायालय ने टिप्पणी की कि प्राथमिकी और संबंधित कार्यवाही जारी रखना निरर्थक होगा तथा पक्षों के बीच करार को देखते हुए उनके बीच शांति के लिये अनुकूल नहीं होगा।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि FIR रद्द करने से बच्चों के अपने पिता के संबंध में विधिक अधिकार प्रभावित नहीं होंगे।
CrPC की धारा 482 क्या है?
परिचय:
- यह धारा उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों के बचाव से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि इस संहिता की कोई भी बात उच्च न्यायालय की ऐसे आदेश देने की अंतर्निहित शक्तियों को सीमित या प्रभावित करने वाली नहीं समझी जाएगी जो इस संहिता के तहत किसी आदेश को प्रभावी करने के लिये या किसी न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये या अन्यथा न्यायिक उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये आवश्यक हो सकते हैं।
- यह धारा उच्च न्यायालयों को कोई अंतर्निहित शक्ति प्रदान नहीं करती है तथा केवल इस तथ्य को स्वीकार करती है कि उच्च न्यायालयों के पास अंतर्निहित शक्तियाँ हैं।
BNSS की धारा 528 क्या है?
परिचय:
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 528 पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग करने के लिये अभिलेखों को मांगने से संबंधित है।
- यह धारा उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों के बचाव से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि इस संहिता की कोई भी बात उच्च न्यायालय की ऐसे आदेश देने की अंतर्निहित शक्तियों को सीमित या प्रभावित करने वाली नहीं समझी जाएगी जो इस संहिता के अधीन किसी आदेश को प्रभावी करने के लिये या किसी न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये या अन्यथा न्यायिक उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये आवश्यक हो सकते हैं।
- यह धारा उच्च न्यायालयों को कोई अंतर्निहित शक्ति प्रदान नहीं करती है तथा केवल इस तथ्य को स्वीकार करती है कि उच्च न्यायालयों के पास अंतर्निहित शक्तियाँ हैं।
उद्देश्य:
- धारा 528 में यह निर्धारित किया गया है कि अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग कब किया जा सकता है।
- इसमें तीन उद्देश्यों का उल्लेख किया गया है जिनके लिये अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है:
- संहिता के अंतर्गत किसी आदेश को प्रभावी करने के लिये आवश्यक आदेश देना।
- किसी भी न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग रोकने के लिये।
- न्यायिक उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये।
वे कौन-से मामले हैं जहाँ उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों का उपयोग नहीं किया जा सकता?
- निम्नलिखित मामलों में उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग नहीं किया जा सकता:
- किसी संज्ञेय मामले में पुलिस को दी गई प्राथमिकी के परिणामस्वरूप पुलिस जाँच की कार्यवाही को रद्द करना; किसी संज्ञेय मामले की जाँच करने के पुलिस के सांविधिक अधिकारों में हस्तक्षेप करना।
- किसी जाँच को सिर्फ इसलिये रद्द कर देना क्योंकि FIR में किसी अपराध का प्रकटन नहीं हुआ है, जबकि जाँच अन्य सामग्रियों के आधार पर की जा सकती है।
- FIR/शिकायत में लगाए गए आरोपों की विश्वसनीयता या वास्तविकता के विषय में पूछताछ करना।
- अंतर्निहित अधिकारिता का प्रयोग केवल अंतिम आदेशों के विरुद्ध किया जा सकता है, अंतरवर्ती आदेशों के विरुद्ध नहीं।
- जाँच के दौरान अभियुक्त की गिरफ्तारी पर रोक लगाने का आदेश।
BNSS की धारा 528 और ज़मानत प्रावधान:
- BNSS की धारा 528 के अधीन निहित शक्ति का उपयोग उच्च न्यायालय द्वारा योग्यता के आधार पर ज़मानत याचिका का निपटारा करने के बाद, किसी आदेश को पुनः खोलने या बदलने के लिये नहीं किया जा सकता है।
- धारा 528 CrPC के आधार पर ज़मानत नहीं दी जा सकती।
- अगर ज़मानती अपराध के लिये ज़मानत दी जाती है, तो CrPC में इसे रद्द करने का कोई प्रावधान नहीं है। हालाँकि उच्च न्यायालय साक्षी के साथ छेड़छाड़, अधिकारियों को रिश्वत देने या फरार होने की कोशिश आदि के आधार पर अंतर्निहित शक्ति का उपयोग करके इसे रद्द कर सकता है।
BNSS की धारा 528 (पूर्व में CrPC की धारा 482) और कार्यवाही को रद्द करना
- आर.पी. कपूर बनाम पंजाब राज्य (1960) में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि निम्नलिखित मामलों में कार्यवाही को रद्द करने के लिये उच्च न्यायालय के अंतर्निहित क्षेत्राधिकार का प्रयोग किया जा सकता है:
- जहाँ कार्यवाही आरंभ करने या जारी रखने पर विधिक रोक हो।
- जहाँ FIR या शिकायत में लगाए गए आरोप एवं कथित अपराध में समानता नहीं हैं।
- जहाँ या तो आरोप के समर्थन में कोई विधिक साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया है या प्रस्तुत साक्ष्य स्पष्ट रूप से आरोप को सिद्ध करने में विफल रहे हैं।
निर्णयज विधियाँ:
- मेसर्स पेप्सी फूड लिमिटेड बनाम विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट (1998) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये CrPC की धारा 482 के अधीन उच्च न्यायालय द्वारा पुलिस द्वारा आरोप-पत्र दाखिल करने के उपरांत नई जाँच या पुनः जाँच का आदेश दिया जा सकता है।
- साकिरी वासु बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2008) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने FIR पंजीकृत न होने की स्थिति में धारा 482 CrPC के अधीन याचिकाओं पर विचार न करने की चेतावनी दी थी, तथा पुलिस अधिकारियों या मजिस्ट्रेट से संपर्क करने जैसे वैकल्पिक उपायों का समर्थन भी किया थी।
- भीष्म लाल वर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2023) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 482 के अधीन दूसरी याचिका उन आधारों पर स्वीकार्य नहीं होगी जो पहली याचिका दायर करने के समय उपलब्ध थे।