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सिविल कानून
सिविल विधि के अंतर्गत रेस ज्यूडिकाटा
« »13-Jun-2024
NCT दिल्ली सरकार एवं अन्य बनाम मेसर्स BSK रिटेलर्स LLP एवं अन्य “लोक हित से जुड़े मामलों में रेस ज्यूडिकाटा का सिद्धांत लचीला हो सकता है”। न्यायमूर्ति सूर्यकांत, दीपांकर दत्ता एवं उज्ज्वल भुयान |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली सरकार एवं अन्य बनाम मेसर्स BSK रिटेलर्स LLP एवं अन्य के मामले में दिल्ली सरकार के पक्ष में निर्णय दिया था, जिसमें कहा गया था कि जहाँ लोक हित दाँव पर लगा हो, वहाँ रेस ज्यूडिकाटा का सिद्धांत सख्ती से लागू नहीं हो सकता।
- न्यायालय ने ऐसे मामलों में लचीले दृष्टिकोण की आवश्यकता पर बल दिया तथा व्यक्तिगत विवादों से परे उनके व्यापक निहितार्थों को मान्यता दी।
- न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुयान की पीठ द्वारा की गई यह टिप्पणी विधिक कार्यवाही में जनहित पर विचार करने के महत्त्व को उजागर करती है।
NCT दिल्ली सरकार एवं अन्य बनाम मेसर्स BSK रिटेलर्स LLP एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 के अंतर्गत वर्ष 1957 से 2006 के मध्य दिल्ली सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया प्रारंभ की गई थी।
- भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 ने 1894 के अधिनियम को प्रतिस्थापित किया, जिसमें धारा 24 को शामिल किया गया, जिसके अनुसार भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही कुछ शर्तों के अंतर्गत समाप्त मानी गई।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने पुणे नगर निगम जैसे निर्णयों पर विश्वास करते हुए कुछ अधिग्रहण की कार्यवाही को समाप्त घोषित कर दिया।
- दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन (DMRC) एवं दिल्ली विकास प्राधिकरण (DDA) सहित दिल्ली सरकार के अधिकारियों ने इन निर्णयों को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी।
- वर्ष 2020 में, इंदौर विकास प्राधिकरण के निर्णय ने धारा 24 के अंतर्गत होने वाली चूक की शर्तों को स्पष्ट किया।
- दिल्ली सरकार ने नई व्याख्या के आधार पर उच्च न्यायालय के निर्णयों पर पुनर्विचार की मांग की।
- उच्चतम न्यायालय ने पुनर्विचार के लिये अनुमति दे दी, जिसमें मेसर्स BSK रिटेलर्स LLP मामले की सिविल अपील मुख्य मामला थी।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 की धारा 24(2) के आधार पर अधिग्रहण की कार्यवाही को समाप्त घोषित कर दिया था।
- इस निर्णय के विरुद्ध DDA की अपील को उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2016 में खारिज कर दिया था।
- GNCTD ने इंदौर विकास प्राधिकरण के निर्णय के कारण पुनर्विचार की मांग करते हुए उच्चतम न्यायालय के समक्ष विशेष अनुमति याचिका (SLP) दायर की।
- मेसर्स BSK रिटेलर्स LLP ने पिछले आदेशों के विलय एवं GNCTD की पिछली मुकदमेबाज़ी में भागीदारी का हवाला देते हुए SLP की स्थिरता के विषय में प्रारंभिक आपत्ति उठाई।
- अपीलकर्त्ता-प्राधिकारियों ने तर्क दिया कि मनोहरलाल में निर्णय 1 जनवरी 2014 से पूर्वव्यापी रूप से लागू होता है, जिससे सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 (CPC) में रेस ज्यूडिकाटा के सिद्धांत के अंतर्गत पहले दौर में उच्चतम न्यायालय के आदेश अप्रभावी हो जाते हैं, क्योंकि विधि परिवर्तित हो गया था।
- उन्होंने तर्क दिया कि उन्हें पहले दौर में केवल औपचारिक रूप से शामिल किया गया था तथा उनकी आवेदन की सुनवाई पर्याप्त रूप से नहीं की गई।
- भूमि स्वामियों ने तर्क दिया कि रेस ज्यूडिकाटा लागू होता है, इस बात पर ज़ोर देते हुए कि अधिग्रहण करने वाले अधिकारी, रिंग अथॉरिटीज़ सरकार राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (GNCTD) एवं लाभार्थी (DDA, आदि) सार्वजनिक उद्देश्यों के लिये भूमि अधिग्रहण में एक समान हित साझा करते हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि पहले दौर में एक प्राधिकरण द्वारा दीवानी अपील को खारिज करना बाद के विचारण में दूसरे प्राधिकरण के विरुद्ध रेस ज्यूडिकाटा के रूप में कार्य करता है।
- भूस्वामियों ने दावा किया कि जब एक पक्ष वाद संस्थित करता है, तो उसे सभी इच्छुक पक्षों की ओर से वाद संस्थित करने वाला माना जाता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि मुकदमेबाज़ी के पहले दौर में लिया गया निर्णय दूसरे दौर पर रोक लगाने के लिये न्यायिक निर्णय के रूप में कार्य नहीं कर सकता, विशेष रूप से उन स्थितियों पर विचार करते हुए जहाँ व्यापक लोक हित दाँव पर लगा हो।
- इसने उल्लेख किया कि GNCTD एवं DDA के मध्य न तो उच्च न्यायालय के समक्ष एवं न ही उच्चतम न्यायालय के समक्ष कोई परस्पर विरोधी हित थे।
- पहले दौर में उनके मध्य कोई विवाद्यक विषय नहीं था।
- जनहित की चिंताओं को ध्यान में रखते हुए, दिल्ली सरकार द्वारा दायर अधिकांश अपीलों को स्वीकार कर लिया गया तथा निर्देश जारी किये गए।
- अन्य मामलों में अलग आदेश पारित किये गए।
- न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुयान की पीठ ने कहा कि ऐसे मामलों में, "न्यायालयों को अधिक लचीला रुख अपनाना चाहिये, क्योंकि कुछ मामले व्यक्तिगत विवादों से परे होते हैं तथा इनके दूरगामी जनहित निहितार्थ होते हैं”।
रेस ज्यूडिकाटा क्या है?
- रेस ज्यूडिकाटा- रेस का अर्थ है 'मामला' एवं ज्यूडिकाटा का अर्थ है 'पहले से तय' इसलिये रेस ज्यूडिकाटा का सीधा-सा अर्थ है- 'वह मामला जिसका निर्णय हो चुका है'।
- यह सिद्धांत निम्नलिखित विधिक सूत्रों पर आधारित है:
- इंटरेस्ट रिपब्लिके यूट सिट फिनिस लिटियम- यह राज्य के हित में है कि मुकदमेबाज़ी की एक सीमा होनी चाहिये।
- नेमो डेबेट बिस वेक्सारी प्रो ऊना एट ईएडेम कॉसा- किसी को भी एक ही कारण से दो बार परेशान नहीं किया जाएगा।
- रेस जुडीकाटा प्रो वेरिटेट एसिपिटुर- एक न्यायिक निर्णय को बतौर युक्तियुक्त स्वीकार किया जाना चाहिये।
- यह अवधारणा CPC की धारा 11 के अंतर्गत निहित है।
CPC की धारा 11 क्या है?
- CPC की धारा 11- रेस ज्यूडिकाटा- कोई भी न्यायालय ऐसे किसी वाद या मुद्दे पर विचारण नहीं करेगा जिसमें मामला प्रत्यक्ष एवं मूल रूप से उसी पक्षकारों के मध्य के पूर्व वाद में प्रत्यक्ष और मूल रूप से मामला रहा हो, या उन पक्षकारों के मध्य जिनके अंतर्गत वे या उनमें से कोई दावा करता है, जो उसी शीर्षक के अंतर्गत वाद संस्थित कर रहे हैं, ऐसे बाद के वाद या उस वाद पर विचारण करने के लिये सक्षम न्यायालय में जिसमें ऐसे मामले को बाद में संस्थित किया गया हो तथा उस पर ऐसे न्यायालय द्वारा विचारण किया गया हो और अंतिम रूप से निर्णय दिया गया हो।
- स्पष्टीकरण I - पूर्ववर्ती वाद से तात्पर्य ऐसे वाद से होगा जिसका निर्णय प्रश्नगत वाद से पहले हो चुका है, चाहे वह उससे पहले संस्थित किया गया हो या नहीं।
- स्पष्टीकरण II - इस धारा के प्रयोजनों के लिये, किसी न्यायालय की सक्षमता का निर्धारण ऐसे न्यायालय के निर्णय से अपील के अधिकार के विषय में किसी उपबंध पर ध्यान दिये बिना किया जाएगा।
- स्पष्टीकरण III - उपर्युक्त संदर्भित मामले को पूर्ववर्ती वाद में एक पक्ष द्वारा आरोपित किया जाना चाहिये तथा दूसरे पक्ष द्वारा स्पष्टतः या निहित रूप से अस्वीकार या स्वीकार किया जाना चाहिये।
- स्पष्टीकरण IV - कोई मामला जो ऐसे पूर्ववर्ती वाद में बचाव या अभियोजन का आधार बनाया जा सकता था तथा बनाया जाना चाहिये था, ऐसे वाद में प्रत्यक्षतः एवं सारतः विवाद्यक विषय माना जाएगा।
- स्पष्टीकरण V - वादपत्र में दावा किया गया कोई अनुतोष, जो डिक्री द्वारा स्पष्ट रूप से प्रदान नहीं किया गया है, इस धारा के प्रयोजनों के लिये अस्वीकार किया गया समझा जाएगा।
- स्पष्टीकरण VI - जहाँ व्यक्ति किसी सार्वजनिक अधिकार या अपने तथा दूसरों के लिये सामूहिक रूप से दावा किये गए निजी अधिकार के संबंध में सद्भावपूर्वक वाद संस्थित करते हैं, वहाँ ऐसे अधिकार में हितबद्ध सभी व्यक्ति, इस धारा के प्रयोजनों के लिये, ऐसे वाद संस्थित करने वाले व्यक्तियों के अधीन दावा करते समझे जाएंगे।
- स्पष्टीकरण VII - इस धारा के उपबंध किसी डिक्री के निष्पादन के लिये कार्यवाही पर लागू होंगे तथा इस धारा में किसी वाद, मुद्दे या पूर्व वाद के प्रति निर्देशों का अर्थ क्रमशः डिक्री के निष्पादन के लिये कार्यवाही, ऐसी कार्यवाही में उठने वाले प्रश्न एवं उस डिक्री के निष्पादन के लिये पूर्व कार्यवाही के प्रति निर्देशों के रूप में लगाया जाएगा।
- स्पष्टीकरण VII - इस धारा के उपबंध किसी डिक्री के निष्पादन के लिये कार्यवाही पर लागू होंगे तथा इस धारा में किसी वाद, मुद्दे या पूर्व वाद के प्रति निर्देशों का अर्थ क्रमशः डिक्री के निष्पादन के लिये कार्यवाही, ऐसी कार्यवाही में उठने वाले प्रश्न एवं उस डिक्री के निष्पादन के लिये पूर्व कार्यवाही के प्रति निर्देशों के रूप में लगाया जाएगा।
इसमें कौन-से प्रासंगिक महत्त्वपूर्ण मामले निहित हैं?
- पुणे नगर निगम एवं अन्य बनाम हरकचंद मिसरीमल सोलंकी एवं अन्य, (2014)
- उच्चतम न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय में कहा कि यदि 1894 के अधिनियम के अंतर्गत अधिग्रहित भूमि के लिये क्षतिपूर्ति भूमि स्वामी को नहीं दिया गया है या सक्षम न्यायालय में जमा नहीं किया गया है तथा राजकोष में नहीं रखा गया है, तो अधिग्रहण समाप्त माना जाएगा तथा भूमि स्वामियों को उच्च क्षतिपूर्ति का अधिकार देने वाले वर्ष 2013 के विधि के अंतर्गत आएगा।
- इंदौर विकास प्राधिकरण बनाम मनोहरलाल, (2020)
- न्यायालय ने कहा कि भूमि स्वामी इस बात पर ज़ोर नहीं दे सकते कि 1 जनवरी, 2014 से नए भूमि अधिग्रहण विधि के लागू होने पर पुराने अधिनियम के अंतर्गत भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही जारी रखने के लिये राशि न्यायालय में जमा कराई जाए।