विधिक अधिकार के रूप में संपत्ति का अधिकार
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सांविधानिक विधि

विधिक अधिकार के रूप में संपत्ति का अधिकार

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 03-Jan-2024

पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य बनाम अचिंता रॉय

"राज्य नागरिकों की सुरक्षा करने और संवैधानिक अधिकारों के रूप में मान्यता प्राप्त उनके संपत्ति अधिकारों को बनाए रखने के लिये बाध्य है।"

न्यायमूर्ति सिद्धार्थ रॉय चौधरी

स्रोत: कलकत्ता उच्च न्यायालय (SA 60 of 2021)

चर्चा में क्यों?

कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सिद्धार्थ रॉय चौधरी ने पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य बनाम अचिंता रॉय के मामले में अनुच्छेद 300-A के तहत संपत्ति के अधिकार की रक्षा के लिये राज्यों की ज़िम्मेदारी के संबंध में टिप्पणी दी।

पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य  बनाम अचिंता रॉय मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • वादी के अनुसार, वह भूमि अभिलेखों में अपनी माँ की भूमि के मालिक थे।
  • वर्ष 1987 में अचानक, राज्य ने स्वयं को मुकदमे की संपत्ति के मालिक के रूप में उल्लेख किया।
  • ज़िला न्यायाधीश ने वादी के पक्ष में फैसला सुनाया जिसके खिलाफ राज्य ने HC के समक्ष अपील दायर की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • कलकत्ता HC ने माना कि, अवर न्यायालय के समक्ष चल रही विधिक कार्यवाही के दौरान, प्रतिवादी राज्य ने अवैध रूप से वादी को विचाराधीन संपत्ति से निष्कासित कर दिया, यह कार्रवाई पूरी तरह से अवैध मानी गई।
  • न्यायालय ने कहा कि राज्य नागरिकों की सुरक्षा करने और संवैधानिक अधिकारों के रूप में मान्यता प्राप्त उनके संपत्ति अधिकारों को बनाए रखने के लिये बाध्य है।
  • नतीजतन, राज्य अब 1 मई, 2000 से संपत्ति के गलत तरीके से बेदखली के लिये वादी को मुआवज़ा देने के लिये ज़िम्मेदार है, जब तक कि सही कब्ज़ा बहाल नहीं हो जाता।

भारत के संविधान के तहत संपत्ति का अधिकार क्या है?

  • संपत्ति के अधिकार की प्रारंभिक स्थिति:
    • संपत्ति के अधिकार को शुरू में भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(f) और अनुच्छेद 31 के तहत एक मूल अधिकार के रूप में मान्यता दी गई थी।
    • इन प्रावधानों ने नागरिकों को संपत्ति अर्जित करने, धारण करने और निपटान करने के अधिकार की गारंटी दी तथा कानून के अधिकार के बिना संपत्ति से वंचित करने पर रोक लगा दी।
  • प्रथम संशोधन (1951):
    • कृषि सुधारों की आवश्यकता को पहचानते हुए और सामाजिक असमानताओं को संबोधित करते हुए, संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951 ने अनुच्छेद 19(1)(f) तथा अनुच्छेद 31 में संशोधन किया, जिससे सरकार के लिये आम जनता के हित में संपत्ति के अधिकार पर प्रतिबंध लगाने का मार्ग प्रशस्त हुआ।
  • 44वाँ संशोधन (1978):
    • सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन 44वें संशोधन अधिनियम, 1978 के साथ आया, जिसने संपत्ति के मूल अधिकार को पूरी तरह समाप्त करके संवैधानिक परिदृश्य को बदल दिया।
    • अनुच्छेद 19(1)(f) और अनुच्छेद 31 को 20 जून, 1979 से हटा दिया गया।
    • 44वें संशोधन अधिनियम में एक नया प्रावधान, अनुच्छेद 300-A शामिल किया गया, जिसने संपत्ति के अधिकार को मूल अधिकार के बजाय विधिक अधिकार के रूप में स्वीकार किया।
  • वर्तमान स्थिति:
    • वर्तमान संवैधानिक ढाँचे के अनुसार, संपत्ति का अधिकार मुख्य रूप से भारत के संविधान के अनुच्छेद 300-A द्वारा शासित होता है।
    • अनुच्छेद 300-A में कहा गया है कि कानून के अधिकार के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा।
    • पहले के प्रावधानों के विपरीत, वर्तमान रुख इस बात पर ज़ोर देता है कि संपत्ति का अधिकार पूर्ण नहीं है और इसे कानून द्वारा विनियमित किया जा सकता है।

संपत्ति के अधिकार से संबंधित ऐतिहासिक मामले क्या हैं?

  • ए. के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950):
    • मद्रास HC द्वारा सुना गया यह मामला उन शुरुआती उदाहरणों में से एक था जहाँ न्यायालय संपत्ति के अधिकार और इसे विनियमित करने की राज्य की शक्ति के बीच संघर्ष का सामना कर रहा था।
    • न्यायालय ने मद्रास लोक व्यवस्था रखरखाव अधिनियम, 1949 की संवैधानिकता को बरकरार रखा, जिसने राज्य को लोक व्यवस्था के लिये किसी भी संपत्ति पर कब्ज़ा करने का अधिकार दिया।
  • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973):
    • इस मामले को प्राय: "आधारभूत संरचना सिद्धांत" (Basic Structure Doctrine) मामले के रूप में जाना जाता है।
    • हालाँकि यह सीधे तौर पर संपत्ति के अधिकार से संबंधित नहीं है, लेकिन संवैधानिक संदर्भ को समझने में यह महत्त्वपूर्ण है।
    • उच्चतम न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा कि संसद के पास संविधान में संशोधन करने की शक्ति तो है, लेकिन वह इसके मूल ढाँचे में परिवर्तन नहीं कर सकती।
    • इस मामले ने अप्रत्यक्ष रूप से बाद के संशोधन को प्रभावित किया जिसने संपत्ति के अधिकार को विधिक अधिकार में बदल दिया।
  • मिनर्वा मिल्स लिमिटेड बनाम भारत संघ (1980):
    • इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के कुछ हिस्सों को रद्द कर दिया, जिसने संसद को संविधान में संशोधन करने की असीमित शक्ति दी थी।
    • न्यायालय ने संपत्ति के मूल अधिकार को समाप्त करने वाले संशोधन को बरकरार रखते हुए इस बात पर ज़ोर दिया कि भले ही संपत्ति का अधिकार अब मूल अधिकार नहीं है, लेकिन यह एक संवैधानिक अधिकार बना हुआ है।
  • जिलुभाई नानभाई खाचर बनाम गुजरात राज्य (1995):
    • SC ने माना कि संपत्ति का अधिकार संविधान के आधारभूत संरचना सिद्धांत का हिस्सा नहीं है।