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आपराधिक कानून
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 19(1) के अधीन संस्वीकृति
« »30-Jul-2024
शिवेंद्र नाथ वर्मा बनाम भारत संघ “हम नहीं सोचते कि नंजप्पा मामले में निर्णय का परिमाण, संज्ञान आदेश पारित होने के उपरांत दी गई संस्वीकृति को अमान्य करने तक विस्तारित होता है”। न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में शिवेंद्र नाथ वर्मा बनाम भारत संघ मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 2018 (PC एक्ट) की धारा 19(1) के अधीन दी गई संस्वीकृति को केवल इसलिये अवैध नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि संस्वीकृति से पूर्व न्यायालय द्वारा संज्ञान ले लिया गया था।
शिवेन्द्र नाथ वर्मा बनाम भारत संघ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में ट्रायल कोर्ट ने PC अधिनियम की धारा 19(1) के अनुसार सक्षम प्राधिकारी द्वारा वैध संस्वीकृति प्राप्त होने से पूर्व मामले का संज्ञान ले लिया।
- जबकि संस्वीकृति, ट्रायल कोर्ट द्वारा संज्ञान लिये जाने के उपरांत दी गई थी।
- इस मामले में झारखंड उच्च न्यायालय में अपील की गई।
- झारखंड उच्च न्यायालय ने बिना संस्वीकृति के कार्यवाही जारी रखने के ट्रायल कोर्ट के निर्णय को यथावत् रखा और सक्षम प्राधिकारी द्वारा बाद में दी गई संस्वीकृति को वैध ठहराया।
- उच्च न्यायालय ने कहा कि संस्वीकृति से पहले संज्ञान लेना एक प्रक्रियागत अनियमितता थी, जबकि बाद में सक्षम प्राधिकारी द्वारा संस्वीकृति प्रदान की गई थी।
- अपीलकर्त्ता द्वारा उच्च न्यायालय के आदेश को अस्वीकार करने तथा न्यायालय द्वारा संज्ञान लिये जाने के उपरांत दी गई संस्वीकृति को निरस्त करने के लिये उच्चतम न्यायालय में आपराधिक अपील दायर की गई थी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ट्रायल कोर्ट ने बिना संस्वीकृति के संज्ञान लेकर त्रुटि कारित की है।
- इसके अतिरिक्त उच्चतम न्यायालय ने कहा कि केंद्रीय अंवेषण ब्यूरो संबंधित न्यायालय के समक्ष संस्वीकृति दाखिल कर सकती है तथा तद्नुसार आवश्यकता पड़ने पर कार्यवाही प्रारंभ की जा सकती है।
- हालाँकि उच्चतम न्यायालय ने न्यायालय द्वारा संज्ञान लिये जाने के उपरांत दी गई संस्वीकृति को अमान्य ठहराने के तर्क को स्वीकार नहीं किया, क्योंकि PC अधिनियम की धारा 19(1) एक प्रक्रियात्मक धारा है।
- उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि ऐसे प्रतिबंधों को तब तक अवैध नहीं माना जा सकता जब तक कि न्याय में कोई चूक न हो।
- अतः उच्चतम न्यायालय ने संस्वीकृति को वैध माना।
भ्रष्टाचार निवारण (संशोधन) अधिनियम, 2018 की धारा 19 क्या है?
- पूर्व संस्वीकृति की आवश्यकता
- कोई भी न्यायालय पूर्व संस्वीकृति के बिना किसी लोक सेवक के विरुद्ध धारा 7, 11, 13 और 15 के अधीन किये गए अपराधों का संज्ञान नहीं ले सकती।
- लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 में अपवादों का प्रावधान किया गया है।
- संस्वीकृति देने वाले अधिकारी
- संघीय मामलों के लिये: केंद्र सरकार
- राज्य के मामलों के लिये: राज्य सरकार
- दूसरों के लिये: व्यक्ति को पद से हटाने के लिये सक्षम प्राधिकारी
- संस्वीकृति हेतु अनुरोध की प्रक्रिया
- यह अनुरोध पुलिस अधिकारियों, जाँच एजेंसियों या अन्य विधि प्रवर्तन अधिकारियों द्वारा किया जा सकता है।
- अन्य व्यक्तियों को पहले सक्षम न्यायालय में शिकायत दर्ज करनी होगी।
- न्यायालय CrPC की धारा 203 के अधीन की गयी शिकायत को अवीकार नहीं कर सकता।
- लोक सेवकों के लिये सुरक्षा उपाय
- संस्वीकृति देने से पूर्व लोक सेवकों को विचारण का अवसर अवश्य दिया जाना चाहिये (अन्य विधिक प्रवर्तन अनुरोधों के लिये)।
- संस्वीकृति निर्णय के लिये समय-सीमा
- उपयुक्त प्राधिकारी को प्रस्ताव प्राप्त होने के तीन महीने के भीतर निर्णय लेने का प्रयास करना चाहिये।
- यदि विधिक परामर्श की आवश्यकता हो तो एक अतिरिक्त माह का समय दिया जा सकता है।
- संस्वीकृति हेतु दिशा-निर्देश
- केंद्र सरकार अभियोजन की संस्वीकृति के लिये दिशा-निर्देश निर्धारित कर सकती है।
- लोक सेवक की परिभाषा
- इसमें वे लोग भी शामिल हैं जो उस अवधि के दौरान पद पर नहीं थे, जिस अवधि में अपराध का आरोप लगाया गया है।
- इसमें वे लोग भी शामिल हैं जो अभियोजन के समय भिन्न पद पर आसीन थे।
- संस्वीकृति प्रदाता अधिकरण पर स्पष्टीकरण
- संशय की स्थिति में, कथित अपराध के समय लोक सेवक को हटाने के लिये सक्षम प्राधिकारी द्वारा संस्वीकृति दी जानी चाहिये।
- विधिक कार्यवाही और प्रतिबंध
- संस्वीकृति की अनुपस्थिति या त्रुटि से न्यायालय के निर्णय को तब तक नहीं पलटा जा सकता जब तक कि न्याय में विफलता न हुई हो।
- न्यायालय, संस्वीकृति में त्रुटि के कारण कार्यवाही पर रोक नहीं लगा सकते, जब तक कि इससे न्याय में विफलता न हो।
- अन्य आधारों पर कार्यवाही पर रोक नहीं लगाई जाएगी अथवा अंतरिम आदेशों में संशोधन नहीं किया जाएगा।
- न्याय की विफलता का निर्धारण
- न्यायालयों को इस बात पर विचार करना चाहिये कि क्या कार्यवाही के दौरान भी आपत्तियाँ उठाई जा सकती थीं।
- स्पष्टीकरण
- "त्रुटि" में संस्वीकृति देने वाले प्राधिकारी की योग्यता भी शामिल है।
- "स्वीकृति" में निर्दिष्ट प्राधिकारियों या व्यक्तियों द्वारा अभियोजन हेतु आवश्यकताएँ शामिल हैं।
निर्णयज विधियाँ
- नंजप्पा बनाम कर्नाटक राज्य (2012):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि वाद निष्कर्ष पर पहुँच गया है और कोई निर्णय या सजा हुई है, तो अपीलीय या पुनरीक्षण न्यायालय द्वारा उसमें केवल इसलिये हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि धारा 19(1) के अधीन अभियोजन की संस्वीकृति देने वाले आदेश में कोई चूक, त्रुटि या अनियमितता थी।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि ट्रायल कोर्ट, संस्वीकृति को आदेश की अवैधता के बावजूद आगे बढाता है, तो उसे विधि के अनुसार अवैध माना जाएगा और ऐसे अभियोजन के लिये वैध स्वीकृति दिये जाने पर, उसी अपराध के लिये दूसरे ट्रायल पर रोक नहीं लगाई जाएगी।