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सिविल कानून

परिसीमा अधिनियम की धारा 4

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 11-Jul-2024

पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य बनाम राजपथ कॉन्ट्रैक्टर्स एंड इंजीनियर्स लिमिटेड

उच्चतम  न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि यदि कोई आवेदन 3 महीने की अवधि के उपरांत दायर किया जाता है तो उसे परिसीमा अधिनियम की धारा 4 के अंतर्गत लाभ नहीं मिलेगा”।

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति पंकज मिथल

स्रोत : उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य बनाम राजपथ कॉन्ट्रैक्टर्स एंड इंजीनियर्स लिमिटेड के मामले में माना है कि इस मामले में निर्धारित अवधि की समाप्ति के उपरांत परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 4 को लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि न्यायालय उस अवधि के दौरान काम कर रहा था।

पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य बनाम राजपथ कॉन्ट्रैक्टर्स एंड इंजीनियर्स लिमिटेड मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में वादी और प्रतिवादी के बीच संविदा थी, विवाद उत्पन्न हुआ तथा प्रतिवादी ने मध्यस्थता खंड को रद्द कर दिया।
  • 30 जून 2022 को मध्यस्थ अधिकरण द्वारा प्रतिवादी के पक्ष में मध्यस्थता पंचाट पारित किया गया। प्रतियाँ उसी दिन प्राप्त हुईं।
  • अपीलीय-याचिकाकर्त्ता ने मध्यस्थता और सुलह अधिनियम (A & C अधिनियम) की धारा 34 के अंतर्गत 31 अक्तूबर 2022 को कलकत्ता उच्च न्यायालय में पंचाट को रद्द करने के लिये याचिका दायर की, क्योंकि न्यायालयों में 1अक्तूबर 2022 से 30 अक्तूबर 2022 तक दुर्गापूजा अवकाश था।
  • उच्च न्यायालय ने याचिका को अस्वीकार कर दिया क्योंकि परिसीमा अधिनियम 1963 (LA) के अंतर्गत प्रतिबंध था और याचिका 30 सितंबर 2022 को या उससे पहले दायर की जानी चाहिये थी, उसके बाद नहीं।
  • उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने पाया कि A & C अधिनियम की धारा 34(3) के अनुसार परिसीमा अवधि तीन महीने है और 30 दिनों के विस्तार का प्रावधान "निर्धारित अवधि" वाक्यांश के अंतर्गत शामिल नहीं है।
    • इसका तात्पर्य यह है कि परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 12 के अनुसार परिसीमा अवधि 1 जुलाई 2022 से आरंभ हुई।
    • अतः 30 दिनों की अधिकतम अवधि की अनुमति देकर परिसीमा अवधि 30 अक्तूबर 2022 को समाप्त हो गई।
  • न्यायालय ने कहा कि परिसीमा अधिनियम की धारा 4 लागू नहीं होती, क्योंकि छुट्टियाँ निर्धारित अवधि से पहले ही समाप्त हो गईं और अपीलकर्त्ता इसका अनुपालन करने में विफल रहा।

इस मामले में कौन-से विधिक प्रावधान संदर्भित हैं?

A&C अधिनियम की धारा 34:

यह धारा मध्यस्थता पंचाट को रद्द करने के आवेदन से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-

 किसी मध्यस्थता पंचाट के विरुद्ध न्यायालय का आश्रय केवल उपधारा (2) और उपधारा (3) के अनुसार ऐसे पंचाट को अपास्त करने के लिये आवेदन द्वारा ही लिया जा सकेगा।

न्यायालय द्वारा मध्यस्थता निर्णय को केवल तभी रद्द किया जा सकता है जब

(a) आवेदन करने वाला पक्ष मध्यस्थ अधिकरण के रिकॉर्ड के आधार पर यह स्थापित करता है कि—

(i) कोई पक्ष किसी अक्षमता से ग्रस्त था, या

(ii) मध्यस्थता समझौता उस विधि के अधीन वैध नहीं है जिसके अधीन पक्षकारों ने इसे रखा है या, उस पर कोई संकेत न होने पर, उस समय लागू विधि के तहत वैध नहीं है; या

(iii) आवेदन करने वाले पक्ष को मध्यस्थ की नियुक्ति या मध्यस्थता कार्यवाही की समुचित सूचना नहीं दी गई थी या वह अन्यथा अपना मामला प्रस्तुत करने में असमर्थ था; या

(iv) मध्यस्थता पंचाट किसी ऐसे विवाद से संबंधित है जो मध्यस्थता के लिये प्रस्तुत किये जाने की शर्तों के अंतर्गत नहीं आता है या उसमें मध्यस्थता के लिये प्रस्तुत किये जाने की शर्तों के अंतर्गत नहीं आता है, या इसमें मध्यस्थता के लिये  प्रस्तुत किये जाने के दायरे से परे मामलों पर निर्णय शामिल हैं:

बशर्ते कि, यदि मध्यस्थता के लिये प्रस्तुत मामलों पर निर्णयों को उन मामलों से अलग किया जा सकता है जो इस प्रकार प्रस्तुत नहीं किये गए हैं, तो मध्यस्थता पंचाट का केवल वह भाग अपास्त किया जा सकेगा जिसमें मध्यस्थता के लिये प्रस्तुत नहीं किये गए मामलों पर निर्णय अंतर्विष्ट हैं; या

(v) मध्यस्थ अधिकरण की संरचना या मध्यस्थ प्रक्रिया पक्षकारों की सहमति के अनुसार नहीं थी, जब तक कि ऐसा समझौता इस भाग के किसी ऐसे उपबंध के विरोध में न हो, जिससे पक्षकार मुक्त नही हो सकते, या ऐसा समझौता न होने की स्थिति में, इस भाग के अनुसार नहीं था; या

(b) न्यायालय का मानना ​​है कि—

(i) विवाद की विषय-वस्तु वर्तमान में लागू विधि के अंतर्गत मध्यस्थता द्वारा निपटान योग्य नहीं है, या

(ii) मध्यस्थता पंचाट भारत की सार्वजनिक नीति के विपरीत है।

(2A) अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थताओं के अतिरिक्त अन्य मध्यस्थताओं से उत्पन्न मध्यस्थता पंचाट को भी न्यायालय द्वारा रद्द किया जा सकता है, यदि न्यायालय पाता है कि पंचाट में स्पष्ट रूप से अवैधता होने के कारण वह पंचाट दोषपूर्ण है:

बशर्ते कि किसी निर्णय को केवल विधि के गलत प्रयोग या साक्ष्य के पुनर्मूल्यांकन के आधार पर रद्द नहीं किया जाएगा।

(3)अपास्त करने के लिये आवेदन, उस तिथि से तीन महीने बीत जाने के पश्चात नहीं किया जा सकता है, जिस तिथि को आवेदन करने वाले पक्षकार ने मध्यस्थता पंचाट प्राप्त किया था या यदि धारा 33 के अधीन अनुरोध किया गया था, तो उस तिथि से, जिस तिथि को मध्यस्थ अधिकरण द्वारा उस अनुरोध का निपटारा कर दिया गया था: परंतु यदि न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि आवेदक को तीन महीने की उक्त अवधि के भीतर आवेदन करने से पर्याप्त कारण से रोका गया था, तो वह आवेदन पर तीस दिन की अतिरिक्त अवधि के भीतर विचार कर सकता है, किंतु उसके पश्चात नहीं।

(4) उपधारा (1) के अधीन आवेदन प्राप्त होने पर, न्यायालय, जहाँ यह समुचित हो और पक्षकार द्वारा ऐसा अनुरोध किया गया हो, मध्यस्थ अधिकरण को मध्यस्थ कार्यवाही पुनः आरंभ करने का अवसर देने के लिये या ऐसी अन्य कार्यवाही करने के लिये, जो मध्यस्थ अधिकरण की राय में मध्यस्थ पंचाट को अपास्त करने के आधार को समाप्त कर देगी, कार्यवाही को अपने द्वारा निर्धारित समयावधि के लिये स्थगित कर सकता है।

(5) इस धारा के अंतर्गत आवेदन किसी पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष को पूर्व सूचना जारी करने के बाद ही दायर किया जाएगा तथा ऐसे आवेदन के साथ आवेदक द्वारा उक्त अपेक्षा के अनुपालन का शपथपत्र संलग्न किया जाएगा।

(6) इस धारा के अधीन आवेदन का निपटान शीघ्रता से, तथा किसी भी दशा में, उस तिथि से एक वर्ष की अवधि के अंदर किया जाएगा, जिसको उपधारा (5) में निर्दिष्ट नोटिस दूसरे पक्षकार को तामील किया गया है।

परिसीमा अधिनियम की धारा 4

  • यह धारा न्यायालय बंद होने पर निर्धारित अवधि की समाप्ति से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि जहाँ किसी वाद, अपील या आवेदन के लिये निर्धारित अवधि न्यायालय बंद होने के दिन समाप्त हो जाती है,
  • वहाँ वाद, अपील या आवेदन उस दिन संस्थित किया जा सकता है, प्रस्तुत किया जा सकता है या किया जा सकता है जब न्यायालय पुनः खुले।
  • स्पष्टीकरण- इस धारा के अर्थ में किसी दिन न्यायालय बंद समझा जाएगा यदि वह अपने सामान्य कार्य समय के किसी भाग में उस दिन बंद रहता है।

परिसीमा अधिनियम की धारा 12

  • यह धारा विधिक कार्यवाही में समय के बहिष्कार से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-
    • किसी वाद, अपील या आवेदन के लिये परिसीमा अवधि की गणना करते समय, वह दिन जिससे ऐसी अवधि की गणना की जानी है, निकाल दिया जाएगा।
    • किसी अपील या अपील की अनुमति के लिये या किसी निर्णय के पुनरीक्षण या पुनर्विलोकन के लिये आवेदन के लिये परिसीमा अवधि की गणना करते समय, वह दिन जिस दिन परिवादित निर्णय सुनाया गया था तथा जिस डिक्री, दण्डादेश या आदेश के विरुद्ध अपील की गई थी या जिसे संशोधित या पुनर्विलोकित किया जाना था, उसकी प्रति प्राप्त करने के लिये अपेक्षित समय को छोड़ दिया जाएगा।
    • जहाँ किसी डिक्री या आदेश के विरुद्ध अपील की जाती है या उसे संशोधित या समीक्षा करने की मांग की जाती है, या जहाँ किसी डिक्री या आदेश के विरुद्ध अपील करने की अनुमति के लिये आवेदन किया जाता है, वहाँ निर्णय की प्रति प्राप्त करने के लिये अपेक्षित समय को भी बाहर रखा जाएगा।
    • किसी निर्णय को रद्द करने के लिये आवेदन की परिसीमा अवधि की गणना करते समय, निर्णय की प्रति प्राप्त करने के लिये अपेक्षित समय को बाहर रखा जाएगा।
    • स्पष्टीकरण- इस धारा के अधीन किसी डिक्री या आदेश की प्रतिलिपि प्राप्त करने के लिये अपेक्षित समय की गणना करते समय, प्रतिलिपि के लिये आवेदन किये जाने के पूर्व डिक्री या आदेश को तैयार करने में न्यायालय द्वारा लिया गया समय अपवर्जित नहीं किया जाएगा।

इस मामले में किस महत्त्वपूर्ण निर्णय का उल्लेख किया गया है?

  • असम शहरी जल आपूर्ति एवं सीवरेज बोर्ड बनाम सुभाष प्रोजेक्ट्स एंड मार्केटिंग लिमिटेड (2012):
    • इस मामले में यह माना गया कि वाक्यांश ‘निर्धारित अवधि’ में A & C अधिनियम, 1996 की धारा 34 के अधीन दी गई 30 दिनों की विस्तारित अवधि शामिल नहीं है।