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आपराधिक कानून

दूसरी पत्नी शिकायत नहीं कर सकती

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 29-Jan-2024

“दूसरी पत्नी द्वारा अपने पति और ससुराल वालों के खिलाफ दायर की गई शिकायत सुनवाई योग्य नहीं है।”

न्यायमूर्ति संजय के. अग्रवाल और न्यायमूर्ति सचिन सिंह राजपूत

स्रोत: छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने सुमन शर्मा और अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य और अन्य मामले में फैसला सुनाया है कि भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498-A के प्रावधानों के तहत दूसरी पत्नी द्वारा अपने पति और ससुराल वालों के खिलाफ दायर की गई शिकायत सुनवाई योग्य नहीं है।

सुमन शर्मा एवं अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में शिकायतकर्त्ता ने सह-अभियुक्त (सुभाष शर्मा) और याचिकाकर्त्ताओं के खिलाफ लिखित शिकायत दर्ज कराई थी।
  • शिकायतकर्त्ता का आरोप था कि सह-अभियुक्त और याचिकाकर्त्ता संख्या 1 पहले से ही शादीशुदा था और उसकी शादी के तुरंत बाद याचिकाकर्त्ता और सह-अभियुक्त ने उसे परेशान करना शुरू कर दिया
  • इसके बाद, उसने सह-अभियुक्तों और याचिकाकर्त्ताओं के खिलाफ IPC की धारा 498-A के तहत अपराध के लिये एक लिखित शिकायत दर्ज की
  • शिकायतकर्त्ता द्वारा दायर शिकायत को चुनौती देते हुए याचिकाकर्त्ताओं ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश के समक्ष दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के तहत एक और याचिका दायर की।
  • सुनवाई के दौरान, एकल न्यायाधीश ने शिवचरण लाल वर्मा और अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2007) और राजिंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य (2015) मामले में उच्च न्यायालय की खंडपीठ द्वारा दिये गए फैसलों में विरोधाभास पाया और मामले को संदर्भित किया।
  • खंडपीठ ने माना कि उपर्युक्त मामलों में दिये गए निर्णयों के साथ कोई स्पष्ट विरोधाभास नहीं है और इसीलिये CrPCकी धारा 482 के तहत याचिका पर निर्णय लेने के लिये यह मामला एकल न्यायाधीश के समक्ष सूचीबद्ध किया गया है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति संजय के. अग्रवाल और न्यायमूर्ति सचिन सिंह राजपूत की खंडपीठ ने कहा कि IPC की धारा 498-A के तहत दंडनीय अपराध के लिये दूसरी पत्नी द्वारा दर्ज की गई शिकायत मान्य नहीं होगी।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि शिवचरण लाल वर्मा और अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2007) और राजिंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य (2015) में उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिये गए फैसले में कोई स्पष्ट विरोधाभास नहीं था।
    • शिवचरण लाल वर्मा और अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2007) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विवाह का अमान्य होने की स्थिति में IPC की धारा 498-A के तहत दोषसिद्धि का कोई विशेष अर्थ नहीं है
    • राजिंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य (2015) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाया कि हस्बैंड की परिभाषा के अभाव में ऐसे व्यक्तियों को विशेष रूप से शामिल किया जाना चाहिए जो पति के रूप में अपनी भूमिका के कथित अभ्यास में ऐसी महिला के साथ विवाह करते हैं और सहवास करते हैं। उन्हें आईपीसी की धारा 498-ए के दायरे से बाहर करने का कोई आधार नहीं है।
    • उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाया कि पति की परिभाषा का अभाव जिसमें स्पष्ट रूप से उन लोगों को शामिल किया गया है जो पति के रूप में अपनी भूमिका के कथित अभ्यास में ऐसी महिला के साथ विवाह करते हैं और सहवास करते हैं, उन्हें IPC की धारा 498-A के दायरे से बाहर करने का कोई आधार नहीं है।
  • यदि उच्चतम न्यायालय की समान संख्या वाली पीठों के निर्णयों में कोई विरोधाभास है, तो पहले वाले फैसले का ही पालन किया जाना चाहिये और तद्नुसार मौजूदा मामले में शिवचरण लाल वर्मा मामले में किये गए फैसले का पालन किया जाना चाहिये।

IPC की धारा 498-A क्या है?

परिचय:

  • विवाहित स्त्रियों को पति अथवा उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता का शिकार होने से बचाने के लिये वर्ष 1983 में धारा 498A पेश की गई थी।
  • इसके अनुसार जो कोई, किसी स्त्री का पति या पति का नातेदार होते हुए, ऐसी स्त्री के प्रति क्रूरता करेगा, वह कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा।
  • स्पष्टीकरण- इस धारा के प्रयोजनों के लिये "क्रूरता" से निम्नलिखित अभिप्रेत है:
  • जानबूझकर किया गया कोई आचरण जो ऐसी प्रकृति का है जिससे उस स्त्री को आत्महत्या करने के लिये प्रेरित करने की या उस स्त्री के जीवन, अंग या स्वास्थ्य को (जो चाहे मानसिक हो अथवा शारीरिक) गंभीर क्षति या खतरा कारित करने की संभावना है; या
  • किसी स्त्री को इस दृष्टि से तंग करना कि उसको अथवा उसके किसी नातेदार को किसी संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति की कोई मांग पूरी करने के लिये प्रपीड़ित किया जाए या किसी स्त्री को इस कारण तंग करना कि उसका कोई नातेदार ऐसी मांग पूरी करने में असफल रहा है।
  • इस धारा के तहत अपराध संज्ञेय और गैर जमानती अपराध है।
  • धारा 498-A के तहत शिकायत अपराध से पीड़ित स्त्री अथवा उसके रक्त-संबंधी, विवाह अथवा दत्तक ग्रहण से संबंधित किसी भी व्यक्ति द्वारा दर्ज की जा सकती है। और यदि ऐसा कोई रिश्तेदार नहीं है, तो राज्य सरकार द्वारा इस संबंध में अधिसूचित किसी भी लोक सेवक द्वारा किया जा सकता है।
  • धारा 498-A के तहत अपराध का आरोप लगाने वाली शिकायत कथित घटना के 3 वर्ष के भीतर दर्ज की जा सकती है। हालाँकि, धारा 473 दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) न्यायालय को इस सीमा अवधि के बाद किसी अपराध का संज्ञान लेने का अधिकार प्रदान करती है यदि वह संतुष्ट है कि न्याय के हित में ऐसा करना आवश्यक है।

आवश्यक तत्त्व:

  • धारा 498-A के तहत अपराध में निम्नलिखित आवश्यक तत्त्वों का होना आवश्यक है:
    • स्त्री विवाहित होनी चाहिये;
    • उसके साथ क्रूरता अथवा उत्पीड़न किया गया हो;
    • ऐसी क्रूरता अथवा उत्पीड़न या तो स्त्री के पति अथवा उसके पति के रिश्तेदार द्वारा किया गया हो

लोक विधि:

  • अरुण व्यास बनाम अनीता व्यास, (1999) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाया कि धारा 498-A में अपराध का मुख्य आधार क्रूरता है। यह एक कंटीन्यूइंग ऑफेंस है और स्त्री द्वारा क्रूरता का शिकार बनने के प्रत्येक अवसर को क्रूरता की सीमा का एक नया प्रारंभिक बिंदु माना जाएगा
  • मंजू राम कलिता बनाम असम राज्य (2009) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाया कि किसी अभियुक्त को IPC की धारा 498A के तहत दोषी ठहराने के लिये यह स्थापित करना होगा कि स्त्री के साथ लगातार अथवा समय-समय पर क्रूरता की गई है, कम से कम शिकायत दर्ज करने के समय के करीब। छोटे-मोटे झगड़ों को IPC की धारा 498-A के प्रावधानों के तहत क्रूरता नहीं कहा जा सकता।