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आपराधिक कानून

IPC की धारा 228-A

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 22-Dec-2023

XXX बनाम केरल राज्य

"धारा 228-A और न्यायाधीश (संरक्षण) अधिनियम, 1985 के विश्लेषण के आधार पर पीड़ितों के नाम व विवरण को भूलवश छिपाने की चूक के लिये IPC की धारा 228-A के तहत एक मजिस्ट्रेट पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है।"

न्यायमूर्ति देवन रामचंद्रन

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति देवन रामचंद्रन ने कहा है कि धारा 228-A और न्यायाधीश (संरक्षण) अधिनियम, 1985 के विश्लेषण के आधार पर पीड़ितों के नाम व विवरण को भूलवश छिपाने की चूक के लिये भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 228-A के तहत एक मजिस्ट्रेट पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है।

  • केरल उच्च न्यायालय ने यह फैसला XXX बनाम केरल राज्य के मामले में दिया।

XXX बनाम केरल राज्य की पृष्ठभूमि:

  • याचिकाकर्ता एक पुलिस अधिकारी द्वारा किये गए यौन अपराध का शिकार था। उस मामले में आरोपी को ज़मानत मिल गई थी।
  • पीड़ित ने ज़मानत रद्द करने के लिये एक आवेदन दायर किया जिसे खारिज़ कर दिया गया लेकिन मजिस्ट्रेट कोर्ट की चूक के कारण फैसले में उसका नाम और विवरण दिखाया गया।
  • याचिकाकर्ता ने आधिकारिक रिकॉर्ड से अपना विवरण अज्ञात करने के लिये उच्च न्यायालय का रुख किया और साथ ही IPC की धारा 228-A के तहत मजिस्ट्रेट के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की।
  • न्यायालय ने कहा कि IPC की धारा 228-A केवल उन लोगों के खिलाफ लागू होती है जो अपनी पहचान उजागर करने के लिये पीड़ितों के नाम व विवरण छापते या प्रकाशित करते हैं और कहा कि उन न्यायिक अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जा सकती है जो अनजाने में हुई चूक के लिये पीड़ितों द्वारा दायर आवेदनों या याचिकाओं पर विचार कर रहे थे।
  • न्यायालय ने कहा कि धारा 228-A में स्पष्टीकरण यह प्रावधान करता है कि इस धारा के तहत उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होगी।
  • इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी कहा कि निर्णयों के कारण को न्यायालय के शीर्ष अधिकारियों द्वारा दिया गया था तथा न्यायिक अधिकारियों द्वारा केवल निर्णयों को सही और सत्यापित किया गया था।
  • न्यायालय ने कार्रवाई एवं अनुपालन के लिये सभी न्यायिक अधिकारियों के साथ-साथ केरल न्यायिक अकादमी के निदेशक को फैसले की एक प्रति प्रसारित करने का निर्देश दिया और मजिस्ट्रेट को दो सप्ताह के अंदर सभी कार्यवाहियों से याचिकाकर्ता के नाम व विवरण को हटाने का निर्देश दिया।

न्यायालय की टिप्पणी:

  • IPC की धारा 228 A के तहत मजिस्ट्रेट के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने के क्रम में इसे न्यायाधीश (संरक्षण) अधिनियम, 1985 के प्रावधानों के आलोक में देखा जाना चाहिये।
  • न्यायाधीश (संरक्षण) अधिनियम, 1985 के तहत न्यायिक अधिकारियों को आधिकारिक या न्यायिक कर्त्तव्यों के निर्वहन के दौरान उनके द्वारा किये गए किसी कार्य या शब्द के संबंध में कार्रवाई से सुरक्षा प्रदान की गई।

IPC की धारा 228 A:

  • धारा 228 A: कुछ अपराधों में पीड़ित की पहचान को बताना, आदि।
    (1) जब किसी भी नाम या किसी भी मामले को मुद्रित या प्रकाशित किया जाता है जिससे किसी भी व्यक्ति की पहचान ज्ञात हो सकती है जिसके खिलाफ [धारा 376, [धारा 376A, धारा 376AB, धारा 376B, धारा 376C, धारा 376D, धारा 376DA, धारा 376DB के तहत अपराध] या धारा 376E] आरोप लगाया जाता है या अपराध किया हुआ पाया जाता है (इसके बाद इस धारा के तहत पीड़ित के रूप में संदर्भित किया जाता है) तो उसे एक अवधि के लिये कारावास की सज़ा दी जाएगी जिसे दो साल तक बढ़ाया जा सकता है और ज़ुर्माना भी लगाया जा सकता है।
    (2) उपधारा (1), कोई भी नाम या किसी ऐसे मामले के मुद्रण या प्रकाशन तक विस्तारित नहीं है जिससे पीड़ित की पहचान ज्ञात हो सकती है यदि ऐसा मुद्रण या प्रकाशन-
    (a) पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी या ऐसे अपराध की जाँच करने वाले पुलिस अधिकारी से संबंधित हो जो इन प्रयोजनों के लिये सद्भावना से कार्य करता हो; या
    (b)  पीड़ित द्वारा या उसकी लिखित अनुमति से; या
    (c) जहाँ पीड़ित मर चुका है या नाबालिग है या मानसिक रूप से विक्षिप्त है, वहाँ पीड़ित के निकटतम रिश्तेदार द्वारा या उसकी लिखित अनुमति से; बशर्ते कि निकटतम रिश्तेदार द्वारा ऐसा कोई अधिकार उसके अलावा किसी अन्य को नहीं दिया गया हो।  
    (3) जो कोई उपधारा (1) में निर्दिष्ट किसी अपराध के संबंध में न्यायालय के समक्ष किसी कार्यवाही के संबंध में किसी भी मामले को ऐसी न्यायालय की पूर्व अनुमति के बिना मुद्रित या प्रकाशित करेगा, उसे एक निश्चित अवधि के लिये कारावास दिया जाएगा जो कि दो साल बढ़ने के साथ ज़ुर्माना भी लग सकता है।
  • स्पष्टीकरण: किसी भी HC या SC के फैसले का मुद्रण या प्रकाशन इस धारा के अर्थ में अपराध की श्रेणी में नहीं ता है।