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आपराधिक कानून
CrPC की धारा 243(2)
« »12-Jan-2024
दिवाकर सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य "जब तक मजिस्ट्रेट इस बात से संतुष्ट नहीं हो जाता कि न्याय के उद्देश्य को पूरा करने के लिये यह आवश्यक है, तब तक मजिस्ट्रेट पहले से जाँचे गए अभियोजन पक्ष के गवाहों को दोबारा पेश होने के लिये बाध्य नहीं कर सकता।" न्यायमूर्ति ज्योत्सना शर्मा |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, दिवाकर सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने माना है कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 243(2) के प्रावधानों के अनुसार, जब तक मजिस्ट्रेट इस बात से संतुष्ट नहीं हो जाता कि न्याय के उद्देश्य को पूरा करने के लिये यह आवश्यक है, तब तक मजिस्ट्रेट पहले से जाँचे गए अभियोजन पक्ष के गवाहों को दोबारा पेश होने के लिये बाध्य नहीं कर सकता।
दिवाकर सिंह बनाम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- याचिकाकर्त्ता को पुलिस उप-निरीक्षक के रूप में तैनात किया गया था, और उसने भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) के प्रावधानों के तहत प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की थी।
- पुलिस ने मामले की जाँच की और उसमें नामित व्यक्तियों के खिलाफ नहीं बल्कि याचिकाकर्त्ता के खिलाफ चार्जशीट दायर की, जिसमें कहा गया कि याचिकाकर्त्ता ने अपने अज्ञात सहयोगियों के साथ लूट की फर्ज़ी घटना दिखाने की साज़िश रची और उसने झूठी घटना को असली दिखाने के लिये झूठे कागज़ात भी तैयार किये।
- अभियोजन पक्ष के साक्ष्य पुरे होने के बाद, याचिकाकर्त्ता ने न्याय के उद्देश्य को पूरा करने के लिये कुछ गवाहों जिनमें पुलिस अधिकारी भी शामिल थे, को बुलाने के लिये न्यायालय से अनुरोध करते हुए आवेदन दायर किया और ट्रायल कोर्ट ने उसके दोनों आवेदनों को खारिज़ कर दिया।
- इसके बाद, याचिकाकर्त्ता द्वारा एक आपराधिक पुनरीक्षण को प्राथमिकता दी गई जिसे आंशिक रूप से अनुमति दी गई थी।
- पुनरीक्षण न्यायालय के आदेश को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई, जो अभी भी लंबित है।
- उच्च न्यायालय के समक्ष मामले के लंबित रहने के दौरान, ट्रायल कोर्ट ने याचिकाकर्त्ता द्वारा दायर आवेदनों को अनुमति दी। हालाँकि, आदेश को पुनरीक्षण न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट को एक नया तर्कसंगत आदेश पारित करने के निर्देश के साथ रद्द कर दिया था।
- इसके बाद याचिकाकर्त्ता द्वारा उच्च न्यायालय के समक्ष भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 227 के तहत एक याचिका दायर की गई है, जिसमें उस आदेश को रद्द करने की मांग की गई है जिसके द्वारा आवेदन खारिज़ कर दिये गए थे, साथ ही न्यायालय को उचित निर्देश जारी करने की भी मांग की गई। बाद में यह याचिका खारिज़ कर दी गई।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति ज्योत्सना शर्मा ने कहा कि कानून यह प्रावधान करता है कि आमतौर पर पहले मामले में मजिस्ट्रेट प्रक्रिया जारी कर सकता है जब तक कि वह यह नहीं मानता कि इस तरह के आवेदन को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया जाना चाहिये कि यह परेशान करने या विलंब करने या न्याय के उद्देश्यों को विफल करने के लिये किया गया है।
- दूसरे मामले में (अर्थात्, जब किसी व्यक्ति से बचाव पक्ष द्वारा पहले ही जिरह की जा चुकी हो), ऐसे गवाह की उपस्थिति के लिये बाध्य नहीं किया जाएगा जब तक कि मजिस्ट्रेट संतुष्ट न हो जाए कि यह न्याय के लिये आवश्यक है।
- न्यायालय ने आगे निष्कर्ष निकाला कि CrPC की धारा 243(2) मजिस्ट्रेट को बाध्य करती है कि वह ऐसे किसी भी गवाह को उपस्थित होने के लिये बाध्य न करे जब तक कि वह संतुष्ट न हो कि यह न्याय के लिये आवश्यक है।
इसमें कौन-से प्रासंगिक कानूनी प्रावधान शामिल हैं?
CrPC की धारा 243:
- CrPC की धारा 243 प्रतिरक्षा के लिये साक्ष्य से संबंधित है जबकि यही प्रावधान भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 266 के तहत शामिल किया गया है।
- धारा 243(1) में कहा गया है कि अभियुक्त से अपेक्षा की जाएगी कि वह अपनी प्रतिरक्षा आरंभ करे तथा अपना साक्ष्य पेश करे; और यदि अभियुक्त कोई लिखित कथन देता है तो मजिस्ट्रेट उसे अभिलेख में फाइल करेगा।
- धारा 243(2) में कहा गया है कि यदि अभियुक्त अपनी प्रतिरक्षा आरंभ करने के पश्चात् मजिस्ट्रेट से आवेदन करता है कि वह परीक्षा या प्रतिरक्षा के, या कोई दस्तावेज़ या अन्य चीज़ पेश करने के प्रयोजन से हाज़िर होने के लिये किसी साक्षी को विवश करने के लिये कोई आदेशिका जारी करे तो, मजिस्ट्रेट ऐसी आदेशिका जारी करेगा जब तक उस का यह विचार न हो कि ऐसा आवेदन इस आधार पर नामंज़ूर कर दिया जाना चाहिये कि वह तंग करने के या विलंब करने के या न्याय के उद्देश्यों को विफल करने के प्रयोजन से किया गया है, और ऐसा कारण उसके द्वारा लेखबद्ध किया जाएगा।
- धारा 243(2) गवाहों की दो श्रेणियों से संबंधित है-
- नए गवाह जिन्हें बचाव पक्ष पेश करना चाहता है।
- वे गवाह जिन्हें अभियोजन साक्ष्य के दौरान पहले ही पेश किया जा चुका है, लेकिन बचाव पक्ष आगे की जाँच/ज़िरह करना चाहता है।
- धारा 243(3) में कहा गया है कि मजिस्ट्रेट उपधारा (2) के अधीन किसी आवेदन पर किसी साक्षी को समन करने के पूर्व यह अंपेक्षा कर सकता है कि विचारण के प्रयोजन के लिये हाज़िर होने में उस साक्षी द्वारा किये जाने वाले उचित व्यय न्यायालय में जमा कर दिये जाएँ।
COI का अनुच्छेद 227:
यह अनुच्छेद उच्च न्यायालय द्वारा सभी न्यायालयों पर अधीक्षण की शक्ति से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-
(1) प्रत्येक उच्च न्यायालय उन राज्यक्षेत्रों में सर्वत्र, जिनके संबंध में वह अपनी अधिकारिता का प्रयोग करता है, सभी न्यायालयों और अधिकरणों का अधीक्षण करेगा।
(2) पूर्वगामी उपबंध की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, उच्च न्यायालय-
(a) ऐसे न्यायालयों से विवरण मंगा सकेगा;
(b) ऐसे न्यायालयों की पद्धति और कार्यवाहियों के विनियमन के लिये साधारण नियम व प्रारूप बना सकेगा, और निकाल सकेगा तथा विहित कर सकेगा;
(c) किन्हीं ऐसे न्यायालयों के अधिकारियों द्वारा रखी जाने वाली पुस्तकों, प्रविष्टियों और लेखाओं के प्रारूप विहित कर सकेगा।
(3) उच्च न्यायालय उन फीसों की सारणियाँ भी स्थिर कर सकेगा, जो ऐसे न्यायालयों के शैरिफ को तथा सभी लिपिकों और अधिकारियों को तथा उनमें विधि-व्यावसाय करने वाले अटर्नियों, अधिवक्ताओं एवं प्लीडरों को अनुज्ञेय होंगी।
(4) इस अनुच्छेद की कोई बात उच्च न्यायालय को सशस्त्र बलों से संबंधित किसी विधि द्वारा या उसके अधीन गठित किसी न्यायालय या अधिकरण पर अधीक्षण की शक्तियाँ देने वाली नहीं समझी जाएगी।