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आपराधिक कानून

CrPC की धारा 299

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 10-May-2024

सुखपाल सिंह बनाम NCT दिल्ली

“आरोपी की अनुपस्थिति में दर्ज किया गया साक्षी का बयान साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य है, अगर वह CrPC की धारा 299 के अनुसार हो”।

न्यायमूर्ति बी. आर. गवई एवं संदीप मेहता

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों?   

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने सुखपाल सिंह बनाम NCT दिल्ली के मामले में निर्णय दिया कि यदि अभियुक्त की गिरफ्तारी के बाद अभियोजन पक्ष के साक्षियों का पता नहीं लगाया जा सकता है तथा उन्हें अभियोजन के दौरान गवाही देने के लिये कठघरे में नहीं लाया जा सकता है, तो अभियुक्त की अनुपस्थिति में उनके बयान दर्ज किये जा सकते हैं। यदि यह दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 299 के अनुसार है, इसे ठोस साक्ष्य माना जाता है।

सुखपाल सिंह बनाम NCT दिल्ली मामले की पृष्ठभूमि:

  • अपीलकर्त्ता ने तीन बच्चों की माँ उषा से विवाह किया था, वैवाहिक समस्याओं के कारण वह अपने गाँव में इनसे अलग रहता है।
  • उषा को आई स्पष्ट चोटों के साथ मृत पाया गया, कथित तौर पर सुखपाल द्वारा लिखा गया एक नोट अपराध स्थल पर पाया गया।
  • एक प्रमुख साक्षी, अशोक कुमार पाठक, (उनके पड़ोसी) को अभियोजन के लिये नहीं खोजा जा सका, लेकिन उनके पहले के बयान को साक्ष्य के रूप में माना गया।
  • संस्वीकृति का नोट एवं लिखत विश्लेषण ने अभियोजन पक्षकार के मामले की बुनियाद रखी, जिससे सुखपाल को दोषी ठहराया गया।
  • न्यायालय ने अपराध स्थल पर सुखपाल की उपस्थिति एवं उसके बाद उसके फरार होने के आधार पर सुखपाल को दोषी पाया, जो दोषी होने का संकेत देता है।
  • अपीलकर्त्ता की अपील पर, उच्च न्यायालय ने सुखपाल की संलिप्तता के साक्ष्य के रूप में संस्वीकृत नोट के महत्त्व की पुष्टि करते हुए, दोषसिद्धि को बरकरार रखा।
  • अभियोजन पक्ष ने अपराध स्थल पर सुखपाल की उपस्थिति तथा उसके बाद न्याय से बचने के प्रयास को सफलतापूर्वक प्रदर्शित किया, जिससे उसे दोषी ठहराया गया।
  • मामला प्रत्यक्ष गवाहों की अनुपस्थिति में अपराध स्थापित करने में परिस्थितिजन्य साक्ष्य और विशेषज्ञ विश्लेषण पर निर्भरता पर प्रकाश डालता है।
  • अपील उच्चतम न्यायालय में दायर की गई, न्यायालय ने उच्च न्यायालय और विचारण न्यायालय  के निर्णय की पुष्टि की तथा तद्नुसार अपील खारिज कर दी गई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ:

  • न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति संदीप मेहता ने उच्च न्यायालय और विचारण न्यायालय के फैसलों को बरकरार रखते हुए इस बात पर ज़ोर दिया कि CrPC की धारा 299 के तहत यदि कोई आरोपी व्यक्ति फरार हो गया है तथा उसे गिरफ्तार करने की तत्काल कोई संभावना नहीं है, तो अभियोजन पक्षकार के गवाहों के बयान उनकी अनुपस्थिति में दर्ज किये जाएँगे। अभियोजन पक्ष का साक्षी उपलब्ध नहीं होने की स्थिति में, अभियुक्तों की अगली गिरफ्तारी पर उनका उपयोग किया जा सकता है।
  • इसके अलावा न्यायालय ने कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 33 के साथ पठित धारा 299 CrPC के प्रावधानों के आलोक में, विचारण न्यायालय का यह मानना ​​उचित था कि इनमें अशोक कुमार पाठक (अभियोजन गवाह) का बयान दर्ज किया गया था। कार्यवाही को ठोस साक्ष्य के रूप में पढ़ा जाना उपयुक्त था।
  • उच्चतम न्यायालय, विचारण न्यायालय द्वारा दर्ज किये गए निष्कर्षों से सहमत है तथा मामले के इस महत्त्वपूर्ण पहलू पर उच्च न्यायालय द्वारा पुष्टि की गई है।

इसमें कौन-से प्रासंगिक विधिक प्रावधान शामिल हैं?

CrPC की धारा 299

परिचय:

  • CrPC की धारा 299 अभियुक्त की अनुपस्थिति में साक्ष्य के अभिलेख से संबंधित है।
  • CrPC की धारा 299 अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 335 में उल्लिखित है।

विधिक प्रावधान:

  • यदि यह साबित कर दिया जाता है कि अभियुक्त व्यक्ति फरार हो गया है और उसके तुरंत गिरफ्तार किये जाने की कोई संभावना नहीं है तो उस अपराध के लिये, जिसका परिवाद किया गया है, उस व्यक्ति का [विचारण करने के लिये या विचारण के लिये सुपुर्द करने के लिये सक्षमट न्यायालय अभियोजन की ओर से पेश किये गए साक्षियों की (यदि कोई हों), उसकी अनुपस्थिति में परीक्षा कर सकता है और उनका अभिसाक्ष्य अभिलिखित कर सकता है तथा ऐसा कोई अभिसाक्ष्य उस व्यक्ति के गिरफ्तार होने पर, उस अपराध की जाँच या विचारण में, जिसका उस पर आरोप है, उसके विरुद्ध साक्ष्य में दिया जा सकता है यदि अभिसाक्षी मर गया है, या साक्ष्य देने के लिये असमर्थ है, या मिल नहीं सकता है या उसकी हाज़िरी इतने विलंब, व्यय या असुविधा के बिना, जितनी कि मामले की परिस्थितियों में अनुचित होगी, नहीं कराई जा सकती है ।
  • यदि यह प्रतीत होता है कि मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय कोई अपराध किसी अज्ञात व्यक्ति या किन्हीं अज्ञात व्यक्तियों द्वारा किया गया है तो उच्च न्यायालय या सेशन न्यायाधीश निदेश दे सकता है कि कोई प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट जाँच करे और किन्हीं साक्षियों की जो अपराध के बारे में साक्ष्य दे सकते हों, परीक्षा करे और ऐसे लिया गया कोई अभिसाक्ष्य, किसी ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध जिस पर अपराध का तत्पश्चात् अभियोग लगाया जाता है, साक्ष्य में दिया जा सकता है यदि अभिसाक्षी मर जाता है या साक्ष्य देने के लिये असमर्थ हो जाता है या भारत की सीमाओं से परे है।

निर्णयज विधि:

  • निर्मल सिंह बनाम हरियाणा राज्य (2000) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने उन परिस्थितियों पर विचार-विमर्श किया जिसके तहत CrPC की धारा 299 के तहत दर्ज गवाह का बयान IEA की धारा 33 के तहत स्वीकार्य माना जाएगा। CrPC की धारा 299 को IEA की धारा 33 का अपवाद माना जाता है।
    • इस अपवाद का तात्पर्य यह है कि CrPC की धारा 299 के तहत दर्ज किये गए गवाहों के बयान IEA की धारा 33 द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के अधीन नहीं हैं।
    • अनिवार्य रूप से, CrPC की धारा 299 के तहत दर्ज किये गए बयानों के माध्यम से प्राप्त साक्ष्य, जिरह के अवसर की अनुपस्थिति के बावजूद, विधिक रूप से स्वीकार्य हो सकते हैं।

IEA की धारा 33 

परिचय:

  • IEA की धारा 33 किसी साक्ष्य में कथित तथ्यों की सत्यता को पश्चात्वर्ती कार्यवाही में साबित करने के लिये उस साक्ष्य के सुसंगत से संबंधित है।
  • यह प्रावधान आमतौर पर तब लागू किया जाता है, जब गवाह मृत्यु, पता लगाने में असमर्थता, साक्ष्य देने में असमर्थता, या विरोधी पक्षकार द्वारा उनकी गवाही को रोकने के लिये जानबूझकर किये गए प्रयासों जैसे कारणों से बाद की कार्यवाही में गवाही देने के लिये अनुपलब्ध होता है।

विधिक प्रावधान:

  • IEA की धारा 33 बाद की कार्यवाही में, उसमें बताए गए तथ्यों की सत्यता को साबित करने के लिये कुछ साक्ष्यों की प्रासंगिकता से संबंधित है।
  • किसी साक्ष्य में कथित तथ्यों की सम्यता को प्रश्चात्वर्ती कार्यवाही में साबित करने के लिये उस साक्ष्य की सुसंगति- वह साक्ष्य, जो किसी साक्षी ने किसी न्यायिक कार्यवाही में, या किसी साक्षी ने किसी न्यायिक कार्यवाही में, या विधि द्वारा उसे लेने के लिये प्राधिकृत किसी व्यक्ति के समक्ष दिया है, उन तथ्यों की सत्यता को, जो उस साक्ष्य में कथित है, किसी पश्चातवर्ती न्यायिक कार्यवाहि में या उसी न्यायिक कार्यवाही के आगामी प्रक्रम में साबित करने के प्रयोजन के लिये तब सुसंगत है; जबकि वह साक्षी मर गया है या मिल नहीं सकता है, या वह साक्ष्य देने के लिए असमर्थ है या प्रतिपक्षी द्वारा उसे पहुँच के बाहर कर दिया गया है अथवा यदि उसकी उपस्थिति इतने विलंब या व्यय के बिना, जितना कि मामले को परिस्थितियों में न्यायालय अयुक्तियुक्त समझता है, अभिप्राप्त नहीं की जा सकती।
    • इस धारा के प्रावधानों में यह प्रावधान है कि कार्यवाही उन्हीं पक्षकारों या उनके हितों के प्रतिनिधियों के बीच थी; जिनको पहली कार्यवाही में प्रतिकूल पक्षकार को जिरह करने का अधिकार और अवसर प्राप्त था।
    • यह कि मुद्दे में प्रश्न पहली कार्यवाही के समान ही थे और दूसरी कार्यवाही में भी।