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आपराधिक कानून

CrPC की धारा 317

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 28-Nov-2023

एस.मुजीबर रहमान बनाम राज्य

"अगर अदालत ने पहले ही आगे की जाँच की अनुमति दे दी है, तो CrPC की धारा 317 (2) के तहत मुकदमे का विभाजन नहीं हो सकता है।"

न्यायमूर्ति अभय एस ओका, न्यायमूर्ति पंकज मिथल

स्रोत – उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों ?

न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति पंकज मिथल की पीठ ने उस परिदृश्य की व्याख्या की जिसके तहत आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 CrPC की धारा 317 (2) के तहत मुकदमे का विभाजन नहीं हो सकता है।

एस. मुजीबर रहमान बनाम राज्य मामले की पृष्ठभूमि:

  • 31 आरोपियों के खिलाफ धारा 395, 397, 212, 120बी और तमिलनाडु सार्वजनिक संपत्ति क्षति अधिनियम, 1982 की धारा 3 के तहत दंडनीय अपराधों के लिये प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज़ की गई थी।
  • कुछ अभियुक्तों की मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थिति सुनिश्चित नहीं की गई।
  • तेलंगाना उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट को CrPC की धारा 317 (2) के तहत उपस्थित और अनुपस्थित आरोपियों के मुकदमे को विभाजित करने का आदेश दिया।
  • हालाँकि, मामले की आगे की जाँच के लिये पारित मजिस्ट्रेट का आदेश अभी भी प्रक्रिया में था, इसलिये याचिकाकर्त्ता ने मुकदमे को विभाजित करने के उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ उच्चतम न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया।

टिप्पणियाँ:

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "जब उच्च न्यायालय ने मुकदमे को विभाजित करने की अनुमति दी, तो उच्च न्यायालय द्वारा महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर ध्यान नहीं दिया गया, जिनमें से एक यह है कि 13 फरवरी 2019 को मजिस्ट्रेट द्वारा आगे की जाँच का आदेश पारित किया गया था।"
    • इसलिये, यह वह चरण नहीं था जिस पर उच्च न्यायालय मामले को विभाजित करने की अनुमति दे सकता था।

CrPC, 1973 की धारा 317(2) क्या है?

  • के बारे में:
    • धारा 317(2) अदालत को आपराधिक मामले में कार्यवाही को स्थगित करने या विभाजित करने की शक्ति देती है।
    • इस शक्ति का प्रयोग तब किया जाता है जब अदालत संतुष्ट हो जाती है कि आरोपी की व्यक्तिगत उपस्थिति फिलहाल आवश्यक नहीं है।
  • कानूनी ढाँचा:
    • यदि ऐसे किसी भी मामले में अभियुक्त का प्रतिनिधित्त्व किसी वकील द्वारा नहीं किया जाता है, या यदि न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट उसकी व्यक्तिगत उपस्थिति को आवश्यक मानता है, तो वह, यदि वह उचित समझे और उसके द्वारा दर्ज़ किये जाने वाले कारणों से, ऐसी जाँच या सुनवाई या आदेश को स्थगित कर सकता है कि ऐसे आरोपियों का मामला अलग से उठाया जाए या चलाया जाए।
  • बँटवारे का आधार:
    • अदालत यह तय करने के लिये विभिन्न आधारों पर विचार कर सकती है कि अभियुक्त की व्यक्तिगत उपस्थिति आवश्यक है या नहीं।
      • आधार में अभियुक्त की बीमारी, वैध कारण से अनुपस्थिति या अन्य परिस्थितियाँ शामिल हो सकती हैं जो अभियुक्त की उपस्थिति को अव्यवहारिक बनाती हैं।
  • न्यायालय का विवेकाधिकार:
    • कार्यवाही को विभाजित करने का निर्णय न्यायालय के विवेक पर है।
    • अदालत को मामले की परिस्थितियों पर विचार करना चाहिये और यह निर्धारित करना चाहिये कि क्या आरोपी की अनुपस्थिति में आगे बढ़ना न्याय के हित में है।
  • प्रक्रिया का दुरुपयोग रोकना:
    • यह प्रावधान कानूनी प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने में मदद करता है। यह अदालत को मुकदमे की निष्पक्षता से समझौता किये बिना मामलों को कुशलतापूर्वक प्रबंधित करने की अनुमति देता है।